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उथल-पुथल और जोखिम तो राजनीति के धंधे का जरूरी हिस्सा हैं. इसीलिए राजनेता हमेशा इनसे बचकर चलने की कोशिश करते हैं. आप उनसे जब भी कोई मुश्किल सवाल पूछें, वो आमतौर पर ऐसा जवाब देंगे, जिसमें शब्दों की भरमार तो होगी, लेकिन कोई ठोस मतलब नहीं निकलेगा.
प्रधानमंत्री मोदी की सबसे ताजा प्रतिक्रिया को ही देखिए, जो आज की तारीख में शायद धरती के सबसे घाघ राजनेता हैं. कठुआ और उन्नाव रेप केस में बीजेपी कार्यकर्ताओं के फंसने का मसला जब उनके सामने आया, तो पहले तो उन्होंने कई दिनों तक चुप्पी साधे रखी. इस उम्मीद में कि हंगामा अपने आप ही शांत हो जाएगा.
लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वो नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े होकर प्रवचन देने लगे:
देखा, वो इन जघन्य वारदातों की खुलकर निंदा करने या कठुआ, उन्नाव और बीजेपी का रत्ती भर जिक्र करने से भी कैसे साफ-साफ बच निकले. अगर मोदी ने ऐसा किया होता, तो हो सकता है, अपराध की इन वारदातों से दुखी लोगों को अच्छा लगता, लेकिन तब उनके राजनीतिक विरोधियों को सीधा हमला करने का बड़ा मौका मिल जाता. इसलिए उन्होंने बेहद सुरक्षित दांव खेला. 99 फीसदी राजनेता, 99 फीसदी मामलों में ऐसा ही करते हैं.
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लिहाजा, अगर कोई नेता जानबूझकर एक ऐसी चाल चले, जिसमें उसे नुकसान होने का जोखिम हो, तो ये कोई आम बात नहीं है. मैं चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के राहुल गांधी के महत्वपूर्ण फैसले को इसी श्रेणी में रखता हूं.
सबसे असरदार और नुकसानदेह आलोचना हुई भारत में कानून के तीन बड़े महारथियों की तरफ से. (जिनके सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र का दायरा सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों तक जाता है). राम जेठमलानी, जो आमतौर पर लीक से हटकर चलने के लिए मशहूर हैं, महाभियोग के प्रस्ताव पर किसी पहाड़ की तरह टूट पड़े.
फली नरीमन ने कहा,"ये एक खतरनाक मिसाल है. मुझे इससे गहरा दुख और आघात पहुंचा है. ये न्यायपालिका के लिए बेहद अपमानजनक है." सोली सोराबजी ने इसे "गलत सलाह और गलत सोच के साथ उठाया गया कदम" बताया.
72 घंटे के भीतर उप-राष्ट्रपति नायडू ने महाभियोग प्रस्ताव को खारिज कर दिया. कुछ देर के लिए लगा कि राहुल गांधी ने ऐसा जलता हुआ बूमरैंग चला दिया है, जो पलटकर खुद उन्हें ही झुलसा सकता है.
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लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने सबको चौंका दिया. वो जलता हुआ बूमरैंग एक मिसाइल में तब्दील हो गया. एक ऐसी मिसाइल, जिसने प्रक्षेपण के समय निकली आग के ठंडा होते ही बेहद सधे हुए ढंग से सही राह पकड़ी और अपने तय लक्ष्य की ओर बढ़ने लगी. मुख्य चर्चा महाभियोग प्रस्ताव की निंदा से हटकर उसके नतीजों पर केंद्रित हो गई. मसलन:
आपने देखा, कैसे एक जलता हुआ बूमरैंग सटीक निशाने की तरफ बढ़ती गाइडेड मिसाइल में तब्दील हो गया! राजनीति से निराश लोग कुछ दिनों पहले तक कह रहे थे कि ये सरकार जस्टिस रंजन गोगोई को अगला चीफ जस्टिस नहीं बनाएगी, भले ही इसके लिए उनकी वरिष्ठता की अनदेखी करनी पड़े. ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि जस्टिस गोगोई "देश के हुक्मरानों के लिए असुविधाजनक" माने जाते हैं.
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इस तरह, अगले चीफ जस्टिस की नियुक्ति में"वरिष्ठता क्रम की अनदेखी के खतरे"की काट तो शायद असरदार ढंग से हो गई है. लेकिन क्या महाभियोग प्रस्ताव की इस मिसाइल ने राहुल गांधी और विपक्ष को"जीत"के कुछ और मौके भी मुहैया करा दिए हैं? हां, कम से कम चार और....
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस नारायण शुक्ला के साथ प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के कथित रिश्तों की चर्चा पहले दबी हुई जुबान में होती थी. लेकिन अब, विश्वनाथ अग्रवाल और ओडिशा हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज आईएम कुदूसी के बीच हुई बॉलीवुड के डायलॉग जैसी कथित बातचीत की सीबीआई रिकॉर्डिंग संसदीय रिकॉर्ड का हिस्सा है.
अन्य आरोपों में, सुप्रीम कोर्ट के फर्जी एडमिनिस्ट्रेटिव ऑर्डर से लेकर 1999 में 2 एकड़ कृषि भूमि कब्जाने के लिए झूठा हलफनामा देने जैसे मामले शामिल हैं, जो अब अफवाहों के अंधेरे से निकलकर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध औपचारिक दस्तावेजों में दर्ज हो गए हैं. जाहिर है कि इन हालात में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा आने वाले दिनों में जो भी कदम उठाएंगे, उसे कड़ी सार्वजनिक समीक्षा से होकर गुजरना पड़ेगा.
वो वक्त गया जब सरकार और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर होने वाला टकराव महज चंद लोगों की माथापच्ची का मुद्दा था, जिससे आम लोगों को कोई लेना-देना नहीं था. अब तो ये मसला हर रोज की चर्चा में शामिल हो चुका है.
जनता को पता है कि मोदी सरकार ने जस्टिस केएम जोसेफ की नियुक्ति को पक्षपातपूर्ण सोच की वजह रोक दिया है. इसी वजह से जस्टिस इंदु मल्होत्रा की फाइल भी भूले-बिसरे कोने से धूल झाड़कर निकालनी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए रीजनल और नॉन-मेरिट कोटा तैयार करने की सरकार की धूर्तता भरी चाल का विरोध बढ़ता जा रहा है. ये इस सरकार के आलोचकों की एक और जीत है.
जज लोया की कथित तौर पर रहस्यमय हालात में मौत की जांच के लिए दायर जनहित याचिकाओं को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की बेंच ने खारिज कर दिया. और इसके फौरन बाद ही कांग्रेस ने महाभियोग प्रस्ताव पेश कर दिया.
दो-दुनी चार के इस गणित को समझना राजनीतिक तौर पर आसान था, जिससे जज लोया का मामला द कैरवन मैगजीन के पन्नों से निकलकर मेनस्ट्रीम मीडिया तक पहुंच गया. उनकी मौत से जुड़े कुछ अजीबोगरीब हालात और अनसुलझे सवाल अब रोजमर्रा की राजनीतिक चर्चा का हिस्सा बन गए हैं, जिससे भय मिश्रित बेचैनी और विरोध के सुर बढ़ रहे हैं.
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अब बात आखिरी जीत की. महाभियोग प्रस्ताव अकेले कांग्रेस का कदम नहीं था. छह और राजनीतिक दलों को प्रस्ताव पर दस्तखत के लिए राजी करने का श्रेय भी राहुल गांधी को जाता है. इनमें उत्तर प्रदेश की दिग्गज (और कांग्रेस की पुरानी विरोधी) पार्टियों बीएसपी और एसपी के अलावा एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई और आईयूएमएल भी शामिल हैं.
तब से अब तक विपक्षी दलों की ताकत में इजाफा ही हुआ है, क्योंकि मोदी और बीजेपी को अब सरकार में होने के कारण जनता की सत्ता-विरोधी भावनाओं का सामना करना पड़ रहा है. इस तरह, महाभियोग प्रस्ताव की "जोखिम" भरी पहल 2019 में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ विपक्ष की मारक एकता की शुरुआत साबित हो सकती है.
आम जिंदगी की तरह ही राजनीति में भी किस्मत बहादुरों का ही साथ देती है. राहुल गांधी, कांग्रेस और 6 प्रमुख विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का अभूतपूर्व फैसला करके शानदार राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया है. जिससे 2019 की चुनावी रेस में एक नई हलचल शुरू हो गई है.
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