ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या मोदी की गुगली पर क्लीन बोल्ड हो जाएगा विपक्ष?

जनतांत्रिक राजनीति संख्या बल और बहुमत का खेल है. संख्या बल में थोड़े उलटफेर से सारा गणित उल्टा पड़ सकता है.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

राजनीति में एक हफ्ते में काफी कुछ बदल सकता है. अगर इस पुरानी कहावत को मानें, तो पंद्रह दिन में तो दोगुने बदलाव हो सकते हैं. भारत में 15 मार्च को खत्म हुए पखवाड़े के दौरान हमने कुछ ऐसा ही होते देखा है.

ज्योतिष के लिहाज से विचित्र माने जा रहे मार्च के इस महीने की तीसरी तारीख को बीजेपी ने त्रिपुरा में वामपंथियों को और नॉर्थ ईस्ट के बाकी राज्यों में कांग्रेस को बुरी तरह धूल चटा दी. हमारे हर पल रुख बदलने वाले ढुलमुल विश्लेषक फौरन ही "जो जीता वही सिकंदर" का राग अलाप रही भीड़ के सुर में सुर मिलाने लगे. लेकिन मैंने न सिर्फ इस बारे में फौरन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि मेरे मन में कुछ संदेह भी था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मैंने उस दिन लिखा था :

जनतांत्रिक राजनीति संख्या बल और बहुमत का खेल है. इसलिए यह नहीं भूलना चाहिए कि संख्या बल में थोड़े उलटफेर से सारा गणित उल्टा पड़ सकता है.

जरा कुछ आंकड़ों पर गौर करें:

  • पूर्वोत्तर में बीजेपी ने आज लगभग 50 लाख मतदाताओं के वोट बटोर लिए.
  • लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और अन्य हिस्सों में हुए उपचुनावों में करीब एक करोड़ वोटरों ने बीजेपी को ठुकरा भी दिया.

आंकड़ों पर गौर कीजिए- बड़ा कौन है? 50 लाख या एक करोड़?

इतना ही नहीं, मैंने कहा था, “11 मार्च को यूपी के फूलपुर और बिहार के अररिया समेत कुछ अन्य क्षेत्रों में होने वाले उपचुनावों में करीब 1 करोड़ और मतदाता भी अपने फैसले का एेलान करेंगे. तब तक इंतजार कीजिए.”

इन मतदाताओं के लिए “अच्छे दिन” का नारा एक ऐसा जुमला बन चुका है, जिसमें अब कोई जान नहीं है और न ही उस पर किसी को यकीन है. प्रधानमंत्री मोदी के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती वो नया जुमला खोजने की है, जो उनसे दूर छिटक रहे वोटरों का भरोसा फिर से जीत सके.

उससे पहले किसी को जश्न की शैंपेन नहीं खोलनी चाहिए!

गोरखपुर और फूलपुर के चौंकाने वाले आंकड़े

महज 11 दिन बाद, 14 मार्च को, जब यूपी और बिहार के उपचुनावों में वोटों की गिनती हुई, तो ये देखकर मैं खुद भी हैरान रह गया कि मेरी लिखी बातें कैसे एक सटीक भविष्यवाणी की तरह सही साबित हुईं. शैंपेन खोलना तो दूर, बीजेपी की हालत नागपुर के अंगूर के खेतों में तैयार 'देसी' की बोतल खोलने लायक भी नहीं रह गई. बीजेपी का हर जगह से सफाया हो गया. यहां तक कि योगी आदित्यनाथ का 1991 से अब तक अभेद्य रहा गोरखपुर का किला भी ढह गया.

गौर कीजिएगा कि तब मैंने उन चुनाव क्षेत्रों में गोरखपुर का नाम तक नहीं लिया था, जहां जनता का फैसला 'कुछ भी' हो सकता था, क्योंकि तब वहां किसी ऐसे नतीजे के बारे में सोचना भी मूर्खतापूर्ण लगता था.

लेकिन नतीजों में बीजेपी का सफाया इतने इकतरफा ढंग से हुआ कि राजनीतिक टिप्पणीकार बेहद सरलीकृत विश्लेषणों का सहारा लेने लगे. ज्यादातर राजनीतिक पंडित रातोंरात माहिर गणितज्ञ बन बैठे और आंकड़ों की धुआंधार बौछार करने लगे. मसलन:

  • गोरखपुर में मतदान का प्रतिशत काफी गिरने के बावजूद एसपी+बीएसपी के साझा वोट 2014 के मुकाबले 54,000 बढ गए और 4.02 लाख से 4.56 लाख हो गए. दूसरी तरफ बीजेपी के वोटों में 1 लाख से ज्यादा गिरावट आई और वो 5.39 लाख से घटकर 4.34 लाख रह गए.
  • बीजेपी के वोट शेयर में 6 फीसदी की गिरावट देखने को मिली, लेकिन इसका विपक्षी एकजुटता से कोई खास लेनादेना नहीं था. दरअसल, ये गिरावट बीजेपी के अपने वोटरों के उससे दूर छिटकने की वजह से आई.
  • फूलपुर में तो मतदान के प्रतिशत में और भी भारी गिरावट दर्ज की गई. लेकिन वहां एसपी+बीएसपी के साझा वोट 2014 के मुकाबले सिर्फ 16,000 ही घटे. (यानी 3.59 लाख से घटकर 3.43 लाख). जबकि बीजेपी के वोटों में इसी दौरान 2.20 लाख की हाहाकारी गिरावट आई. (5.03 लाख से घटकर 2.83 लाख). बीजेपी का वोट शेयर यहां 13 फीसदी घट गया. इससे पता चलता है कि पार्टी के मतदाताओं का उससे पूरी तरह मोहभंग हो गया है.
  • 2014 में अगर एसपी+बीएसपी+कांग्रेस का गठजोड़ हो गया होता तो बीजेपी गठबंधन को यूपी में 73 की बजाय 37 यानी 36 सीटें कम मिलतीं. लोकसभा में उसकी सीटें घटकर 248 के आसपास रह जातीं. अगर ऐसा होता तो पूरे 30 साल बाद, संसद में 272+ सीटों के साथ एक पार्टी के स्पष्ट बहुमत हासिल करने की एतिहासिक उपलब्धि भी प्रधानमंत्री मोदी से छिन जाती. (इससे पहले ऐसी कामयाबी 1985 में राजीव गांधी की इकतरफा जीत के समय देखने को मिली थी).
  • इतना ही नहीं, एसपी+बीएसपी+कांग्रेस के वोटों को अगर 2017 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के आधार पर जोड़ें तो यूपी में बीजेपी की सीटें और घटकर 23 रह जाएंगी. ऐसा होने पर संसद में बीजेपी का आंकड़ा 234 पर आ जाएगा, जो 1991 में नरसिंह राव सरकार को मिली सीटों के लगभग बराबर है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

मुझे पता है कि आंकड़ों की इस किताबी बाजीगरी से अब तक आपका सर चकराने लगा होगा. नतीजों के बाद लगाए जा रहे आंकड़ों के इस हिसाब-किताब की चाहे जो भी अहमियत हो, इसमें एक बात तो साफ उभर रही है. 2019 में एसपी+बीएसपी के साथ आने की संभावना बीजेपी को डराने वाली है. ऐसा इसलिए क्योंकि ये गठजोड़ अकेले ही 2019 में बीजेपी की 50 सीटें कम कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो अगले आम चुनाव के नतीजे 'कुछ भी'हो सकते हैं. (राजनीतिक पंडितों का एक और प्रिय मुहावरा !)

2019 में क्या होगा मोदी का नारा: गुगली और क्लीन बोल्ड

लेकिन थोड़ा इंतजार कीजिए. याद रखें कि 2014 में बीजेपी के वोटों का एक बड़ा हिस्सा उनके बेहद लोकप्रिय उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नाम पर मिला था. 2009 और 2014 के दरमियान कांग्रेस के वोट तो 11 करोड़ के आसपास ही बने रहे, लेकिन बीजेपी के वोट 8 करोड़ से छलांग लगाकर 17 करोड़ पर पहुंच गए. हालांकि सौ फीसदी सही होने का दावा तो नहीं किया जा सकता, फिर भी मोटे तौर पर ये माना जा सकता है कि इन 9 करोड़ अतिरिक्त वोटों में ज्यादातर हिस्सा "मोदी के फैन्स" का रहा होगा, जिन्हें "अच्छे दिन" के वादे से जुड़ी सकारात्मक बदलाव की उम्मीद ने जोश से भर दिया था.

गोरखपुर और फूलपुर में सीधे तौर पर मोदी का नाम ईवीएम पर नहीं लिखा था. ऐसे में क्या इन उपचुनावों के आंकड़ों के आधार पर ये नतीजा निकालना ठीक होगा कि "मोदी के फैन" उनसे दूर हो गए हैं? या वो अभी मोदी को एक और मौका देना पसंद करेंगे? या फिर "अच्छे दिन" का वादा "इंडिया शाइनिंग" की तरह ही मोदी के गले में लटका मील का पत्थर बन गया है?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि मोदी एक कभी न थकने वाले प्रचारक हैं. उनकी भाषण कला का कोई मुकाबला नहीं है. वो मतदाताओं ये समझाने की पूरी क्षमता रखते हैं कि "अच्छे दिन" का उनका वादा अब भी कायम है और 2014 से 2019 का कार्यकाल उनकी "पहली पारी" थी, जिसमें वो अतीत की गड़बड़ियों को ठीक करने का काम कर रहे थे. अपने चिरपरिचित बड़बोलेपन के साथ वो दावा कर सकते हैं कि "मेरा असली काम तो अब शुरू होगा, मेरी दूसरी पारी में."

प्रधानमंत्री मोदी को शब्दों के नए-नए शॉर्ट फॉर्म गढ़ने का बड़ा शौक है, जिसे देखकर मेरा मन ये अनुमान लगाने का हो रहा है कि 2019 में वो अपना नया चुनावी नारा किस तरह गढ़ सकते हैं. शायद कुछ ऐसे :

ये पांच साल तो मैंने गुगली (GOOGLY) फेकी थी, अगले पांच साल मैं क्लीन बोल्ड (CLEAN-BOWLEDDD)कर दूंगा! और यहां उनके GOOGLY और CLEAN-BOWLEDDD का पूरा अर्थ कुछ इस तरह होगा :

GOOGLY: (G) गुनहगारी (O) अपोजिशन और (O) ओल्ड गार्ड को (L) लपेट लिया(Y)

(मोदी दावा करेंगे कि "मैंने अपने पहले कार्यकाल के दौरान आपराधिक विपक्ष और थके हुए पुराने शासकों को नाकाम कर दिया है.")

CLEAN-BOWLEDDD: क्लीन न्यू इंडिया बिल्ट ऑन वर्ल्ड लीडरशिप एंड एनर्जेटिक डिजिटाइजेशन, डेमोक्रेसी एंड डेमोग्राफिक्स !

(मोदी आगे दावा करेंगे कि “आप प्रधानमंत्री के तौर पर मुझे दोबारा मौका दें, क्योंकि अब मैं एक स्वच्छ और नए भारत का निर्माण करूंगा, जो डिजिटाइजेशन, लोकतंत्र और युवा आबादी की तिहरी ताकत की बदौलत तेज रफ्तार से तरक्की करते हुए दुनिया की अगुवाई करेगा.”)

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या विपक्ष क्लीन बोल्ड हुए बिना मोदी की गुगली खेल सकता है?

ये एक कठिन और चुनौतीपूर्ण काम होगा. यूपी में विपक्षी वोटों को एक साथ जोड़ने से मिली सफलता क्रीज पर मौजूद बल्लेबाज के उस फुटवर्क जैसी है, जब वो बॉल फेंके जाने से पहले ही थोड़ा आगे निकल आता है और फिर बॉल के टप्पा खाते ही उसे फ्रंट फुट पर बढ़कर इस तरह खेलता है कि गुगली बॉल की स्पिन नाकाम हो जाती है.

यूपी में एसपी+बीएसपी+कांग्रेस गठजोड़ और महाराष्ट्र में कांग्रेस+एनसीपी गठबंधन भी एक बल्लेबाज का शुरुआती फुटवर्क है. लेकिन विपक्षी बल्लेबाज अगर इतने पर रुक गए और हिचकिचाते हुए क्रीज पर ही खड़े रहे, तो उनका क्लीन बोल्ड होना तय है. उन्हें पूरी ताकत के साथ आगे बढ़कर न सिर्फ बॉल की स्पिन को नाकाम करना होगा, बल्कि पिच पर आकर गुगली को छक्के में तब्दील करने का हौसला दिखाना होगा.

ये होगा कैसे? उन्हें अपने-अपने ईगो यानी अहं को ताक पर रखना होगा और नामुमकिन को मुमकिन बनाने की कोशिश करनी होगी:

पश्चिम बंगाल में टीएमसी-कांग्रेस का गठजोड़ बनाकर कमान ममता बनर्जी को सौंपनी होगी. आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के टूटे धड़ों को जोड़कर जगन रेड्डी को उसका निर्विवाद नेता घोषित करना होगा. ये सुझाव अजीब लग सकता है, लेकिन असम में हिमंता बिस्व सरमा को राज्य की कमान सौंपने का वादा करके साथ लाने की कोशिश करनी होगी. और नीतीश कुमार को एक बार फिर आरजेडी + कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिए क्यों नहीं मनाया जा सकता? अगर ऐसा हुआ तो क्या ये 2019 के राजनीतिक दंगल का सबसे असरदार और अंतिम दांव साबित नहीं होगा ?

क्या राजनीति असंभव को संभव बनाने की कला नहीं है ?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

[क्‍विंट ने अपने कैफिटेरिया से प्‍लास्‍ट‍िक प्‍लेट और चम्‍मच को पहले ही ‘गुडबाय’ कह दिया है. अपनी धरती की खातिर, 24 मार्च को ‘अर्थ आवर’ पर आप कौन-सा कदम उठाने जा रहे हैं? #GiveUp हैशटैग के साथ @TheQuint को टैग करते हुए अपनी बात हमें बताएं.]

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×