प्रधानमंत्री मोदी एक पॉलिटिकल डिकैथलीट हैं. आप खुद देखिए कि कैसे उनके राजनीतिक कार्यक्रम ठीक वैसे ही चलते हैं, जैसे दो दिन में 10 ट्रैक एंड फील्ड इवेंट वाली डिकैथलॉन प्रतियोगिता.
प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं (और हमें उन पर भरोसा है!) कि वो दिन-रात काम करते हैं. हफ्ते में सातों दिन. जिंदगी में उन्होंने कभी छुट्टी नहीं ली.
मेरे पास बर्बाद करने के लिए वक्त नहीं है. बड़े और जटिल मुद्दों पर दूसरों को सोचने दो. मुझे तो आम नागरिकों की छोटी-छोटी समस्याएं दूर करने में आनंद आता है.नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
लेकिन लगातार काम में लगे रहने क्या वाकई बड़ा वरदान है ?
एरिक वॉन मैनस्टीन हिटलर का सहयोगी था. उसके सबसे अच्छे सैन्य रणनीतिकारों में एक. वो एक निर्दयी शख्स था, जिसने यहूदियों पर अनगिनत अत्याचार किए. लेकिन उसने नेतृत्व के चुनाव की एक मशहूर थ्योरी भी दी है, जिसे इस ग्रिड से समझा जा सकता है:
मैनस्टीन के मुताबिक, "ऑफिसर सिर्फ चार तरह के होते हैं. पहली श्रेणी है मूर्ख और आलसी लोगों की. उन्हें जहां हैं, वहीं रहने दो. वो कोई नुकसान नहीं पहुंचाते. दूसरी श्रेणी कड़ी मेहनत करने वाले बुद्धिमान अधिकारियों की है. ऐसे लोग शानदार स्टाफ ऑफिसर होते हैं, जो हर काम पर पूरी बारीकी से नजर रखकर उसे पूरा कराते हैं. तीसरी श्रेणी है उनकी, जो मूर्ख हैं लेकिन कड़ी मेहनत करते हैं. ऐसे लोग किसी मुसीबत से कम नहीं. उन्हें फौरन काम से हटा देना चाहिए. क्योंकि ऐसे लोग सबके लिए बेमतलब का काम बढ़ाते रहते हैं. और आखिरी श्रेणी उनकी है, जो बुद्धिमान और आलसी हैं. ऐसे लोग ही सबसे ऊंचे पदों के लायक होते हैं."
प्रभावशाली नेता का 'आलसी' होना इतना जरूरी क्यों?
क्योंकि अगर आप बुद्धिमान होने के साथ ही थोड़े आलसी भी हैं, तो आप अपने विचारों को खुला छोड़ देते हैं, उन्हें आगे बढ़ने का मौका देते हैं और समस्याओं के क्रिएटिव और असामान्य हल खोज निकालते हैं. अक्सर किसी नेता को सबसे बेहतरीन विचार तब सूझते हैं, जब वो कॉर्नर रूम की खिड़की से यूं ही बिना किसी मकसद के बाहर देख रहे होते हैं और उनके मन में अगर-मगर से भरे लाखों सवाल एक साथ खलबली मचा रहे होते हैं.
ध्यान रहे कि एक नेता को अपने हाथों से कोई काम करने की जरूरत बहुत कम ही पड़ती है. लेकिन उसे दुनिया का सबसे थकाने वाला काम लगातार करना पड़ता है - फैसले करना, कुछ ऐसी बातें तय करना, जिनसे लाखों लोगों की जिंदगी सुधर सकती है या बर्बाद भी हो सकती है. ये एक तनाव देने वाला काम है, जिसे पूरा करने पर तारीफ तक नहीं मिलती. ये जिम्मेदारी वही निभा सकता है, जिसके पास इतनी दिमागी फुर्सत हो कि वो किसी मुद्दे पर अंतिम फैसले तक पहुंचने से पहले उससे जुड़ी तमाम जटिल परिस्थितियों और विकल्पों के बारे में अच्छी तरह से तोल-मोल कर सके.
अगर आप हमेशा ही बेहद व्यस्त रहते हैं, यात्राएं करते रहते हैं, जुमलों से भरे और कभी न खत्म होने वाले भाषण देने में जुटे रहते हैं, जैसा कि मोदी करते हैं, तो आपका शरीर पूरी तरह थक जाता है. आपकी प्रतिभा दब जाती है. ऐसी हालत में :
- आप समस्याओं के सबसे सरल समाधान खोजने की जगह घिसे-पिटे, पुराने और जाने-पहचाने रास्तों पर चलने लगेंगे.
- आप अपने सहयोगियों से नए विकल्प खोजकर लाने को नहीं कहेंगे, बल्कि उन्हें सिर्फ यही निर्देश देंगे कि वो हर हाल में काम पूरा करें.
- आप अपने सहयोगियों को किसी समस्या का क्रिएटिव समाधान खोजने के दौरान होने वाली निर्दोष भूलें करने की छूट भी नहीं देंगे, बल्कि उन्हें नाकामी होने पर नतीजा भुगतने की चेतावनी से डराकर रखेंगे.
- आप अपने इर्द-गिर्द ऐसे लोगों को नहीं रखेंगे, जो आपसे अलग राय रखने की हिम्मत करके आपके नजरिए को और भी समृद्ध बना सकें. आपके आसपास सिर्फ हरकारों की मंडली होगी.
PM मोदी को 'आलसी' से नफरत है....
प्रधानमंत्री मोदी न तो खुद 'आलसी' हैं और न ही वो अपने आसपास किसी 'आलसी' व्यक्ति को बर्दाश्त कर सकते हैं. इसलिए मैनस्टीन के मॉडल के हिसाब से मोदी नेता नहीं, बल्कि चीफ स्टाफ ऑफिसर जैसे हैं. उनके आसपास:
- सिर्फ मंत्रिमंडल के कुछ युवा सहयोगी और चुनिंदा ब्यूरोक्रेट हैं, जो 'बुद्धिमान/परिश्रमी' होने के कारण अच्छे सबऑर्डिनेट कहे जा सकते हैं.
- कई 'मूर्ख/परिश्रमी' हैं, जिन्हें फौरन बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए, लेकिन हमारे घिसे-पिटे ढर्रे में बंधे प्रशासनिक ढांचे की वजह से वो ऐसा नहीं कर सकते.
- ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें 'मूर्ख/आलसी' की श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन वो ऐसे नहीं हैं, जिन्हें मैनस्टीन के सुझाव को मानकर नजरअंदाज किया जा सके या यूं ही पड़े रहने दिया जाए.
कुल मिलाकर हालत ये है कि मोदी की टीम में, खुद उन्हीं के दावों के मुताबिक 'बुद्धिमान/आलसी' लोग नहीं हैं. मैनस्टीन के मॉडल के हिसाब से परखें तो ये टीम 'क्रिएटिव लीडरशिप' के पैमाने पर बेहद कमजोर है. इसमें 'कमांड/स्टाफ ऑफिसर्स' की भरमार है, जो व्यवस्था के पुराने पहिए को चलाते तो रह सकते हैं, लेकिन नए रास्तों पर आगे नहीं बढ़ सकते.
पीएम मोदी अगर बुद्धिमान और 'आलसी' बनना पसंद करते तो?
ये पूरी तरह अटकलबाजी वाली बात होगी, लेकिन काश...ऐसा होता, तो तस्वीर कुछ और होती. जाहिर है, कोई भी ये दावा नहीं करेगा कि 4 साल में भारत एक आदर्श राज्य बन गया होता. लेकिन हम आज जिस फटेहाल स्थिति में हैं, उससे तो निश्चित ही बेहतर होते....
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