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कांग्रेस ने दिए उबाऊ और थके नारों से निकलने के संकेत

ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में पारित आर्थिक प्रस्ताव के क्या हैं मायने?

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मैंने अभी-अभी ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में पारित आर्थिक प्रस्ताव पढ़ा. मुझे इसमें "गरीबी हटाओ", समाजवाद और "गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम" जैसे पुराने कांग्रेसी जुमले कहीं नजर नहीं आए. लिहाजा, मैं इसे एक बार फिर से पढ़ने को मजबूर हुआ ताकि ये पक्का हो जाए कि मुझसे कहीं कुछ छूट तो नहीं गया है.

जी हां! मेरी आंखों ने धोखा नहीं खाया. इस पूरे दस्तावेज में कांग्रेस के पुराने इतिहास से जुड़े इन थके हुए नारों का जिक्र एक बार भी नहीं आया. 12 पन्नों का ये दस्तावेज न सिर्फ बेहद सधी हुई भाषा में लिखा गया है, बल्कि इसकी साज-सज्जा और छपाई भी बेहद साफ-सुथरी है. (इसमें न तो टाइपिंग की गलतियां हैं और न ही टेढ़े-मेढ़े पैराग्राफ! प्रोफेशनलिज्म की ये झलक स्वागत योग्य है.) इसकी शब्दावली में युवावस्था की ताजगी और आधुनिकता की सुगंध है.

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"सरकारी नियंत्रण, सब्सिडी, उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाना हक" जैसी पुरानी लफ्फाजियों को कट-पेस्ट करने की जगह इस दस्तावेज में आत्मविश्वास और दृढ़ता से भरी जिस शब्दावली का इस्तेमाल हुआ है, उसने मुझे जोश से भर दिया. (यहां दिए अंशों में इटैलिक्स का इस्तेमाल मैंने उन जगहों पर किया है जिनमें मुझे अहम नीतिगत बदलावों के उम्मीद भरे अंकुर दिखाई दे रहे हैं)

"भारत का निजी क्षेत्र व्यापार, मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन और एक्सपोर्ट के जरिए बड़ी संख्या में बेहतर, उत्पादक नौकरियां पैदा कर सकता है...भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत के उद्यमियों के लिए उनकी आर्थिक आजादी को फिर से हासिल करने का संकल्प लेती है...."

"लगातार आर्थिक विकास ही मिडिल-इनकम वाला विकसित देश बनने का सही रास्ता है. यही वो रास्ता है जिस पर चलकर गरीबों को उनकी गरीबी से छुटकारा दिलाया जा सकता है. एकविशाल, जीवंत और उत्पादक मिडिल क्लास तैयार करने की राह भी यही है. यही वो रास्ता है जिस पर चलकर समृद्धि पैदा की जा सकती है..."

निजी क्षेत्र की प्रधानता !

वाह, क्या बात है! नौकरियां पैदा करने के मामले में निजी क्षेत्र को प्रधानता देना और पब्लिक सेक्टर का जिक्र तक न होना, एक ताजगी देने वाली बात है. इसमें ये खामोश स्वीकृति भी छिपी है कि व्यावसायिक गतिविधियों में सरकारी निवेश की उत्पादकता कितनी खराब रही है. एक जीवंत मिडिल क्लास के जरिये समृद्धि पैदा करने पर जोर देने की बात एक मुखर और बुलंद महत्वाकांक्षा की ओर इशारा करती है. ये कोई बाद में सोचकर जोड़ी गई बात नहीं, जिसे "गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले करोड़ों लोगों के संघर्ष" की कहानी के नीचे एक गुमनाम फुटनोट की तरह डाल दिया गया हो. यहां हमें पुरानी लफ्फाजी को खारिज करने का एक शुरुआती लेकिन स्वागतयोग्य प्रयास साफ नजर आ रहा है.

लेकिन जरा ठहरिये, अभी हमें ये सोचकर कुछ ज्यादा ही जोश में नहीं आना चाहिए कि ये एक क्रांतिकारी दस्तावेज है, जो अतीत को पूरी तरह रद्द करके हमें निजीकरण और उद्यमिता की एक नई उड़ान पर ले जाएगा. ये दस्तावेज ऐसा नहीं कर सकता. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि अचानक ही ऐसे किसी अप्रत्याशित उलटफेर की वकालत करना ठीक भी नहीं होगा. ऐसा करना विनाशकारी हो सकता है.

इसकी पहली वजह ये कि भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से ऐसे भी हैं, खास तौर पर सामाजिक और कृषि क्षेत्र में, जिनमें घोषित लक्ष्यों को तेजी से हासिल करने के लिए सरकार को दखल देने की क्षमता और बढ़ानी होगी.

दूसरी बात, भारत जैसे विविधता और हंगामों से भरे लोकतंत्र में आप अचानक ऐसे यू-टर्न नहीं ले सकते. (इस शानदार समझदारी का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव को जाता है, जिन्होंने 1991 में आजाद भारत के सबसे अहम आर्थिक बदलावों का खाका तैयार किया. वो एक राजनेता के तौर पर मनमोहन सिंह के उन कड़े आर्थिक फैसलों के पीछे पूरी ताकत से खड़े रहे,जिनमें रुपये के दो बार 'क्रूर' अवमूल्यन से लेकर डी-लाइसेंसिंग और भारत की राष्ट्रीय सीमाओं तक सिमटी अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन जैसे कई साहसिक कदम शामिल थे.)

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यू-टर्न पर काबू में रहनी चाहिए रफ्तार

फॉर्मूला वन ड्राइवर ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि अगर यू-टर्न को पलटी खाए बिना पार करना है तो आपको स्टियरिंग व्हील को बहुत सावधानी से मोड़ना होगा और गाड़ी की रफ्तार बिलकुल सही समय पर और बड़ी सतर्कता के साथ घटानी-बढ़ानी होगी. और अगर आप लोकतंत्र के रेसिंग ट्रैक पर लेन बदलना चाहते हैं, तो ''यू'' टर्न की गोलाई बहुत ही चौड़ी और घुमावदार, करीब-करीब ''डब्ल्यू'' जैसी होनी चाहिए.

यहां मैं उम्मीदों से भरी ये शर्त लगाने को तैयार हूं कि राहुल गांधी और उनके युवा अर्थशास्त्रियों की जिस टीम ने ये प्रस्ताव तैयार किया है, वो भारत की अत्यधिक सरकारी नियंत्रण वाली (अगर आप ‘’प्रभुत्व वाली’’ न कहना चाहें) अर्थव्यवस्था को यू-टर्न देकर ज्यादा मुक्त और उद्यमशील रास्ते पर मोड़ने की कला सीख रहे हैं.

इस दस्तावेज में जहां एनडीए सरकार की आर्थिक नीतियों में छिपी दरारों की तीखी आलोचना की गई है, वहीं गरीबों की हित में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के गीत भी भरे हुए हैं. दोनों ही बातें उम्मीद से अलग नहीं हैं. लेकिन साथ ही, इसमें जगह-जगह कई ऐसे मुखर संकेत भी हैं, जिनसे ये उम्मीद बंधती है कि "राहुल की कांग्रेस" का झुकाव ज्यादा आधुनिक और प्रतिस्पर्धी आर्थिक ढांचे की तरफ होगा. (पहले की तरह ही यहां भी इटैलिक्स का इस्तेमाल मैंने जोड़ा है):

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पब्लिक सेक्टर के बारे में: रक्षा उत्पादन, जन परिवहन, प्राकृतिक संसाधन और वित्तीय सेवाओं जैसे कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बिजनेस पर सरकार का मालिकाना हक जरूरी और तर्कसंगत दोनों है.

मेरी राय: यहां इस दस्तावेज में सार्वजनिक क्षेत्र का महिमामंडन करने वाली अलंकारिक भाषा की जगह कामकाजी अंदाज में कम से कम और नपेतुले शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. ये बात भी काफी मायने रखती है कि यहां सिर्फ चार क्षेत्रों का जिक्र किया गया है. क्या इसे इन चार को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में पब्लिक सेक्टर के तेज रफ्तार निजीकरण के इरादों का संकेत माना जाए, जिसके लिए यहां फिलहाल हवा का रुख भांपने की कोशिश की जा रही है? मैं ईमानदारी से दुआ करूंगा कि हकीकत में ऐसा ही हो.

बैंकिंग सेक्टर के बारे में: रेगुलेटरी संस्थाओं की संस्थागत ईमानदारी को कमजोर किए जाने और निगरानी व्यवस्था की विफलता के कारण भारत का बैंकिंग सेक्टर गहरे संकट में है...

मेरी राय: शुरुआती दौर में बैंकिंग जैसे संवेदनशील क्षेत्र के स्वामित्व में किसी तरह का बदलाव करना भले ही कुछ ज्यादा मुश्किल लग रहा हो, लेकिन निगरानी व्यवस्था की नाकामी और गहरे संकट को स्वीकार करना क्या सरकारी बैंकों के ढांचे और मैनेजमेंट में आमूलचूल बदलाव के एक बोल्ड ब्लूप्रिंट की दिशा में पहला कदम है? शायद सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण की जगह पर संसद की सीधी निगरानी वाली स्वायत्त होल्डिंग कंपनी स्थापित करना इसका सही उपाय हो सकता है?

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जीएसटी के मुददे पर: यूपीए ने जीएसटी की कल्पना एक 'गुड एंड सिंपल टैक्स' के रूप में की थी, जिसमें टैक्स की सिर्फ एक ही दर (अधिकतम 18 फीसदी) होती और मेरिट गुड्स को इसमें छूट दी जाती...भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अभी के मुकाबले बेहद आसान जीएसटी फ्रेमवर्क के पक्ष में है, जिसमें टैक्स का स्टैंडर्ट रेट आसान और तर्कसंगत हो, जीएसटी के ढांचे के बाहर मौजूद सेस को हटाया जाए, राज्यों के साथ रेवेन्यू शेयरिंग के लिए एक पारदर्शी प्रणाली हो और रिफंड के लिए बेहद ठोस इंतजाम किए जाएं.

मेरी राय: यहां हमें एक विजयी भाव देखने को मिलता है, जिसमें इशारा ये है कि "देखा, हमने तुमसे पहले ही कहा था." यहां प्रधानमंत्री मोदी के "गुड एंड सिंपल टैक्स" के नारे को भी बड़े आत्मविश्वास के साथ समाहित कर लिया गया है - और शायद उन पर चुटकी भी ली गई है. यहां गड़बड़ियों को ठीक करने की प्रतिबद्धता साफ नजर आ रही है, जो मौजूदा सिस्टम की जटिलता के बोझ में पिस रहे लोगों के लिए एक खुशखबरी है.

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आधार के बारे में: मोदी सरकार ने आधार की अवधारणा और इस्तेमाल के साथ खिलवाड़ किया है. इसे सशक्तिकरण का जरिया बनाने की जगह नियंत्रण का ऐसा हथियार बना दिया गया है जो लोगों की जिंदगी में बेवजह हस्तक्षेप करता है और कई मामलों में सबसे गरीब लोगों को लाभ के दायरे से बाहर कर देता है.

मेरी राय: यहां भी, ये प्रस्ताव आम लोगों और सिविल सोसायटी के मौजूदा मूड के पूरी तरह अनुरूप है.

कृषि मूल्यों के बारे में: इंपोर्ट और एक्सपोर्ट - दोनों मामलों में मूल्य निर्धारण की गलत नीतियों ने कृषि उत्पादों के व्यापार को अस्थिर और सरकार की दया पर कुछ ज्यादा ही निर्भर बना दिया है.

मेरी राय: मुझे इटैलिक्स में दिए शब्द बहुत ही प्यारे लगे ! क्या हमें अब कृषि बाजारों में बड़े ढांचागत बदलाव की उम्मीद करनी चाहिए, जिसे अभी नियंत्रण की भारी-भरकम बेड़ियों ने बुरी तरह जकड़ रखा है?

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निष्कर्ष के तौर पर मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि कांग्रेस के आर्थिक प्रस्ताव में हमें उम्मीद जगाने वाले और दिलेरी से भरे नीतिगत बदलावों के अंकुर नजर आ रहे हैं.

शायद इनसे भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘अन-मिक्स’ करने की शुरुआत हो सकती है, जिसमें सरकार की ताकत सिर्फ इन पांच क्षेत्रों पर केंद्रित हो : स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, बुनियादी ढांचा और गवर्नेंस.

जैसा मैं पहले यहां लिख चुका हूं कि अर्थव्यवस्था के बाकी क्षेत्र बेहतर रेगुलेशन वाले बाजारों की कुशलता बढ़ाने वाली प्रतिस्पर्धा के हवाले किए जा सकते हैं.

लेकिन ये आर्थिक प्रस्ताव फिलहाल तो सिर्फ बातों का ढेर ही है. और बातें करना बेहद आसान होता है, खासकर तब, जब आप विपक्ष में हों. लेकिन सच ये भी है कि सभी योजनाबद्ध बदलावों की शुरुआत एक नया खाका पेश करने वाले शब्दों से ही होती है. कांग्रेस पार्टी चाहती तो बड़ी आसानी से अपने किसी पुराने बकवास प्रस्ताव पर पड़ी धूल झाड़कर उसे फिर से पेश कर सकती थी. लेकिन उसने ऐसा करने की जगह कुछ ''आधे आउट ऑफ बॉक्स'' विचार पेश करने का फैसला किया, जिनसे ''आधी उम्मीद'' जगी है. बाकी आधी उम्मीद तब जगेगी जब राहुल की कांग्रेस अपने ''संकल्प पर अमल'' शुरू कर देगी !

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