बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के लिए ये लोकसभा चुनाव काफी अहम है. क्योंकि बारह साल बाद मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को दरकिनार करते हुए बहुजन की राह पकड़ी है, जो बीएसपी में टिकटों के बंटवारे में भी साफ देखने को मिलता है.
गठबंधन का हिस्सा बनने के बाद बीएसपी को 38 सीटें मिली हैं. इनमें से अपने हिस्से में आने वाली 17 संसदीय सीटों पर पार्टी ने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं.
मजेदार बात ये है कि बीएसपी ने अभी अपनी जो लिस्ट जारी की है उसमें से महज एक सीट पर ब्राह्मण और एक सीट पर ठाकुर प्रत्याशी उतारा है. जबकि आंकड़े बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में इन 38 सीटों में से पार्टी ने छह पर ब्राह्मण और चार पर क्षत्रिय प्रत्याशी उतारे थे. फिलहाल इन ब्राह्मण और क्षत्रिय प्रत्याशियों में से किसी को भी जीत हासिल नहीं हुई थी.
सहयोगियों को दे दी ब्राह्मण प्रत्याशियों की सीट
बीएसपी के एक पूर्व सांसद कहते हैं कि मायावती को पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नजीते देखकर इस बात का आभास हो गया था कि ब्राह्मण और क्षत्रिय प्रत्याशियों को तवज्जो देने के चलते ही बेस वोट बैंक बीजेपी में चला गया है. जिन सवर्ण प्रत्याशियों पर बीएसपी ने दांव लगाया वो भी कोई चमत्कार नहीं कर सके. क्योंकि सवर्ण वोटरों ने भी बीएसपी के सवर्ण नेताओं को नकार दिया था. ऐसे में मायावती के सामने अपने कैडर वोट को संभालना एक बड़ी समस्या है. अपने कैडर वोट की नाराजगी से बचने के लिए मायावती इस चुनाव में हर संभव प्रयास कर रहीं हैं.
ब्राह्मण प्रत्याशियों वाली तीन सीटें कन्नौज, झांसी और गाजियाबाद इस बार बीएसपी ने एसपी को सौंप दी है. जबकि मथुरा सीट जिस पर पिछला चुनाव योगेश द्विवेदी लड़े थे, उसे बीएसपी ने आरएलडी को दे दिया है. इस चुनाव में सिर्फ फतेहपुर सीकरी सीट पर ही बीएसपी ने ब्राह्मण प्रत्याशी उतारा है.
इस सीट पर भी पहले मायावती ने राजवीर सिंह को उतारा था. लेकिन स्थानीय स्तर पर विरोध को देखते हुए नामांकन के अंतिम दिन गुड्डू पंडित को बीएसपी ने अपना प्रत्याशी बनाया. पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने झांसी, गाजियाबाद, अकबरपुर, कन्नौज, मथुरा और फतेहपुर सीकरी सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी उतारा था. जबकि सहारनपुर, फिरोजाबाद, अलीगढ़ और फर्रूखाबाद सीट पर क्षत्रिय प्रत्याशियों को मौका दिया था. इस बार पार्टी ने सिर्फ हमीरपुर सीट पर ही क्षत्रिय प्रत्याशी उतारा है.
बीएसपी ‘D-M’ फॉर्मूले पर कर रही है काम
पार्टी के जानकार बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल न कर पाने के कारण मायावाती ने इस बार दलित-मुस्लिम फॉर्मूले पर काम शुरू किया है. एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि सवा दो साल पहले हुए यूपी के विधानसभा चुनाव के दौरान ही मायावती ने D-M फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया था.
चुनाव के बाद जो नतीजे आए उससे मायावती मुतमईन नहीं थी. क्योंकि समाजवादी पार्टी ने मायावती के दलित-मुस्लिम गठबंधन को नुकसान पहुंचाने का काम किया था. विधानसभा चुनाव के नतीजों ने ही इस लोकसभा चुनाव में मायावती को अखिलेश यादव के करीब लाने का काम किया है.
मयावाती को इसका अंदाजा है कि जिस तरह दलित बीएसपी का कैडर वोट हैं, उसी तरह यूपी में मुस्लिम वोटरों का रूझान भी समाजवादी पार्टी की तरफ है. इसीलिए मायावती ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर मुस्लिम वोटरों के बिखराव को रोकने का प्रयास किया है.
पार्टी नेताओं का मानना है कि दलितों के साथ-साथ मुस्लिम वोटरों का एक तबका ऐसा है जो बीएसपी को वोट करता है. एसपी से गठबंधन के बाद मुस्लिम वोटों का बिखराव कांग्रेस के पक्ष में न हो इस बात का भी ध्यान मायावती बखूबी रख रही हैं. यही कारण है कि बीएसपी प्रमुख मायावती समय-समय पर कांग्रेस पर भी निशाना साधती रहती हैं, जबकि एसपी प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस को लेकर लचीला रवैया अपनाते हैं.
दलितों की नाराजगी दूर करने का भी प्रयास
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही मायावती को इस बात का आभास हो गया था कि अपर कास्ट वोट जो कि अपनी बिरादरी का प्रत्याशी देख कर बीएसपी को वोट करता था वो भी बीजेपी में शिफ्ट हो गया है. दूसरा, दलित जो कि पिछले दो दशक से बीएसपी को वोट कर रहा था वो भी बीजेपी के साथ खड़ा दिखा.
गठबंधन में बीएसपी को जो सीटें मिली हैं उनमें से दस रिजर्व सीटे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी अकेले 80 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लिहाजा उसके पास सवर्ण प्रत्याशियों को उतारने के लिए प्रर्याप्त सीटें थी. इस चुनाव में जो सीटें बीएसपी के पास हैं उन्हीं पर सवर्ण प्रत्याशियों को उतारा गया है.राम अचल राजभर, राष्ट्रीय महासचिव बीएसपी
लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर एसके द्विवेदी कहते हैं कि बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग में दो पार्ट थे. पहला सवर्ण और दूसरा दलित. पहला पार्टनर सवर्ण जो बीएसपी से नाराजगी के चलते दूसरी जगहों पर चला गया. ऐसे में अपने दलित वोट बैंक को वरीयता देने के अलावा मायावती के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा. अपने वोट बैंक का विश्वास जीतने के लिए ही मायावती सवर्णों को इस बार टिकट देने में पीछे हटीं.
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