मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Animal से गदर 2 तक, क्या फिल्मी स्क्रीन पर खून-खराबा हमारे वक्त का आईना है?

Animal से गदर 2 तक, क्या फिल्मी स्क्रीन पर खून-खराबा हमारे वक्त का आईना है?

गदर 2, एनिमल और जवान जैसी फिल्मों की अपार सफलता आज के दौर के बारे में क्या बताती है जिसमें हम रह रहे हैं?

सायंतन घोष
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>क्या फिल्मी स्क्रीन पर खून-खराबा हमारे वक्त का आईना है?</p></div>
i

क्या फिल्मी स्क्रीन पर खून-खराबा हमारे वक्त का आईना है?

(फोटो- Altered By Quint Hindi)

advertisement

इंटरनेट पर आप एक सिंपल सर्च कीजिए और पता चलेगा कि जवान (Jawaan), गदर 2, पठान, बाहुबली 2 और एनिमल, जनवरी 2024 तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्में हैं. पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड के बाहर रिलीज होने वाली कुछ सफल फिल्मों में पुष्पा, केजीएफ: चैप्टर 2, विक्रम और कंतारा शामिल हैं. ये बड़े सितारों और यहां तक ​​कि बड़े बजट के साथ सीधे-सीधे मेन्स्ट्रीम की फिल्में हैं. लेकिन अगर कोई बारीकी से देखे तो एक परेशान करने वाला पैटर्न सामने आता है- इन फिल्मों में यह पैटर्न अनियंत्रित गुस्सा, नाराजगी, आक्रामक रुख और बर्बरता का है.

एक बात तो तय है कि भारत में एक्शन फिल्मों ने ऐतिहासिक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है. यहां जो अलग ट्रेंड दिख रहा है वह है दर्शकों को लुभाने के लिए व्यापक रक्तपात का सहारा लेने की इन नायकों की अंतर्निहित इच्छा.

यह एक इंसान के तौर पर हमारे बारे में कुछ कहता है. सिनेमा तब सफल होता है जब वह किसी राष्ट्र के विचारों को दिखाता है. हम वही देखते हैं जो हम बोते हैं.

अमिताब बच्चन का "एंग्री यंग मैन" रोल 1970 के दशक में पूरे देश पर कब्जा करने में कामयाब था. इसकी वजह थी कि उन फिल्मों ने युवाओं के मुद्दे, जैसे बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को दिखाया था.

1970 के दशक में अमिताभ बच्चन का 'एंग्री यंग मैन' अवतार

एक बार जब 90 के दशक की शुरुआत में अर्थव्यवस्था वैश्विक होने लगी और हम सभी कोका-कोला के नशे में धुत्त होकर अच्छे जीवन की आशा करने लगे, तब राज, प्रेम और राहुल हमारे जीवन में आए.

तब सब कुछ अपने परिवार से प्यार करने, अपने स्विट्ज़रलैंड की छुट्टियों से प्यार करने, अपने फ्लोरोसेंट हुडीज को प्यार करने, क्रॉसओवर फिल्मों और एनआरआई रिश्तेदारों से प्यार करने के बारे में हो गया.

अब हम ‘नए भारत’ में है. हम चाहते हैं कि पूरी दुनिया हमे नोटिस करे. हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया हमें हमारे इकोनॉमिक एम्बिशन के लिए नोटिस करे या तेजी से खाई बढ़ती राजनीतिक विचारधाराओं के लिए, पूरी तरह हिंदुत्व का चोला पहनने के लिए या किसी भी चीज को काले और सफेद के खांचे में देखने के लिए. चाहें हम दुनिया के नजर में अन्य देशों को सिर्फ दोस्त या दुश्मन के रूप में देख रहे हों.

अभी देश में कुछ लोग लक्षद्वीप में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पूरे मालदीव का बहिष्कार करने में व्यस्त हैं. मेरी मानिए तो पोस्ट-ट्रुथ एरा चला गया है और, हम अब पोस्ट-पंचलाइन दुनिया में रह रहे हैं. जबतक आप अपने मन में ऑनलाइन पोस्ट करने के लिए कोई भी जोक बनाते है, तो वह दरअसल सच में हो चुका होता है.

हम सभी ने नेशनल टेलीविजन पर उस समय खुले तौर पर खुशी और "जश्न" मनाते हुए देखा है जब अल्पसंख्यकों के घरों को सरकारी बुलडोजरों से ढहाया जाता है. अगर कल को पाकिस्तान देश ही न रहे तो अपने फैंसी न्यूज स्टूडियो में बैठे मुट्ठी भर एंकर बिना कुछ बोले हवा में घुल जाएंगे, क्योंकि उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा. हालांकि, जरूरी नहीं कि यह उनकी पर्सनल पॉलिटिक हो. वे केवल वही दिखाते हैं जिससे उन्हें दर्शक बैठे-बिठाए मिलेंगे.

यह वही लोग हैं जो टिकट खरीदेंगे और लाहौर में खड़ी पाकिस्तानी भीड़ के सामने सनी देओल को दहाड़ते हुए देखेगें - सनी देओल का किरदार भीड़ को बता रहा है कि अगर पाकिस्तान के लोगों को भारत में रहने का विकल्प मिले तो, पाकिस्तान की आधी से ज्यादा आबादी तुरंत चली जाएगी.

गदर-2 का एक दृश्य

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

यह सनी देओल की 90 के दशक की एक और बेहद लोकप्रिय फिल्म - बॉर्डर (1997) से बहुत अलग है. बॉर्डर में सनी देओल के साथ जैकी श्रॉफ, तब्बू, सुनील शेट्टी, पूजा भट्ट और अक्षय खन्ना सहित कई अन्य कलाकार थे. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बारे में एक फिल्म होने के बावजूद, 'बॉर्डर' इस लाइन के साथ खत्म होती है- "मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाए."

अगर आज भारत-पाक युद्ध के बारे में बड़े सितारों के साथ फिल्म बनाई गई तो शायद अब ऐसी स्वतंत्रता नहीं दी जाएगी. क्योंकि आज सड़कों पर नारा बदल गया है- यहां का उद्घोष है "देश के गद्दारों को, गोली मारो *** को". ऐसे में हमारा सिनेमा कैसे पीछे रह सकता है.

बहुत पुरानी बात नहीं है जब एक ऐसा समय था, जब हम भारतीय रचनात्मक आलोचना का स्वागत करते थे और बौद्धिक राय/ इंटेलेक्चुअल ओपिनियन को महत्व देते थे.

आज हम ट्रोल्स के बीच रहते हैं. इसलिए, जब एनिमल फिल्म (2023) की सफलता को जावेद अख्तर जैसे एक प्रसिद्ध कवि और स्कॉलर ने खतरनाक बताया तब न केवल फिल्म के फैंस और इससे जुड़े सितारों द्वारा इंटरनेट पर उन पर क्रूर हमला किया गया, बल्कि फिल्म के आधिकारिक एक्स हैंडल द्वारा भी उनका बेशर्मी से मजाक उड़ाया गया. एनिमल फिल्म की आलोचना महिला विरोधी होने, कथित अल्फा मेल के टूटे कॉन्सेप्ट पेश करने और हद से ज्यादा हिंसा का आरोप लगाकर हुई है.

बेशक, भारत जैसा लोकतंत्र हर किसी को किसी की राय या उनके काम से असहमत होने का अधिकार देता है, लेकिन बात करने का सही तरीका क्या है और क्या नहीं, इसके बीच की रेखा अब लगभग खत्म हो गई है.

शायद इस बात से हमें कुछ राहत मिल सकती है कि जिस साल बॉलीवुड ने हमें "द केरल स्टोरी" जैसी हिट फिल्म दी (द गार्जियन ने इसे इस्लामोफोबिक फैन्टसी" भी कहा है), उसी साल 12वीं फेल और थ्री ऑफ अस जैसी अच्छी फिल्में भी आईं. उन्हें प्रशंसा भी मिली. इसके अलावा 12वीं फेल तो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब फिल्म भी साबित हुई.

चाहे कोई भी कला हो, जैसे कि सिनेमा, म्यूजिक, या साहित्य- उन्हें दुनिया को बदलने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. फिर भी, कला का लगभग हर टुकड़ा उस समय का आईना है जब उसे गढ़ा गया था.

और हमारे आईने पर यह धूल पहले से कहीं अधिक दिखाई दे रही है. फ्रांसिस्को गोया ने "द थर्ड ऑफ मई 1808" नाम की पेंटिंग बनाई थी, जो युद्ध की भयावहता को दिखाती है. वे ऐसा इसलिए कर पाएं क्योंकि वे उस वक्त मौजूद थे जब फ्रांसीसी सेनाओं ने स्पेन पर कब्जा किया था.

हमारे देश में समाज पर गलत असर डालने के लिए अक्सर सिनेमा को दोषी ठहराया जाता रहा है. मगर अब समय आ गया है कि हम अपनी गलतियों पर गौर करें, विचार करें और उनसे सीखें. हमें अक्सर वह दुनिया नहीं मिलती जो हम चाहते हैं, लेकिन हमें वह फिल्में मिलती हैं जिनके हम हकदार हैं.

(सयंतन घोष नई दिल्ली में रहते हैं और लिखते हैं. वह एक पब्लिकेशन हाउस के लिए संपादक के रूप में काम करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT