advertisement
अपने पिता से बहस के बाद ये लड़का घर छोड़कर चला गया था, जिसके बाद उसे डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया है. इस घटना ने हममें से कई लोगों को गहरा झटका दिया है.
ये कहानी हमें बताती है कि National Register of Citizens (NRC) के पीड़ित इतने बेआवाज हैं कि उनकी तकलीफ, उनके साथ हुई क्रूरता, त्रासदी, दर्द और निर्वासन की गवाही सिर्फ अदालतों की चारदीवारी के भीतर ही रह जाती है. इस तरह के दर्द और पीड़ा के बारे में चुप्पी एनआरसी की एक महत्वपूर्ण हकीकत है. हम इस तस्वीर को कैसे समझ सकते हैं?
एनआरसी बिल्कुल अलग तरह से लोगों को अपने कब्जे में लेता है. एनआरसी के पीड़ितों के लिए ये अमानवीकरण और अपमान की प्रक्रिया है, एक ऐसी प्रक्रिया जो चिंताओं से भरी हुई है. वहीं डिटेंशन, एनआरसी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है.
डिटेंशन मूल रूप से नागरिकता को प्रभावित करता है. मैं ये बात इसके विस्तृत मायनों में कह रहा हूं.
सबसे पहले डिटेंशन लोगों को अलग-अलग दर्जे देता है. एनआरसी की प्रक्रिया के तहत किसी को डिटेन करने में सरकार असल में उसके कई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार छीन लेती है. इस प्रक्रिया में नागरिकों तक ये बात पहुंचाई जाती है कि वो अधीन हैं क्योंकि, उनके अधिकार अभी निलंबित रहेंगे और वो पराधीन होकर रहेंगे.
दूसरा ये कि डिटेंशन उस “ संदिग्ध” नागरिक के रोजमर्रा के जीवन को छीन लेता है. यहां जरूरी नहीं कि संदेह या किसी तरह का शक सरकार ही करती है. नागरिक यहां आम लोगों, बुद्धिजीवियों और सिविल सोसायटी समूहों के संदेह का शिकार भी होते हैं. एनआरसी की मशीन जो डिटेंशन से बंधी है उन संभावनाओं को मौका देती है कि किसी को भी संभावित तौर पर डिटेन और डिपोर्ट किया जा सकता है. निर्वासित होने के अधीन रहने की ये लगातार बनी रहने वाली सैद्धांतिक आशंका डिटेंशन का मूल स्वभाव है.
इतिहासकार Wendy Doniger लिखती हैं कि बुराई वो नहीं है जो हम करते हैं, ये वैसा कुछ है, जो हम अपने साथ होते हुए देखना नहीं चाहते. इसलिए डिटेंशन की भावना एक बुराई से भरी खराब भावना है. ये इस तरह से खराब है कि डिटेंशन ऐसी स्थितियां पैदा करता है जिसमें कोई भी व्यक्ति रहना नहीं चाहेगा. किसी लोकतांत्रिक देश का कोई भी व्यक्ति डिटेंशन की अनिश्चितता के बीच नहीं रहना चाहेगा.
एनआरसी की प्रक्रिया ने उन लोगों को अमानवीय बना दिया है, जो इसका समर्थन करते हैं. इससे उनके सोचने—समझने और सहानुभूति रखने की भावना खो गई है. एनआरसी की सामाजिक और नैतिक कीमत कहीं ज्यादा है.
वो ये कि लोग उस दर्द और पीड़ा को नहीं साझा कर रहे जिसका सामना असम में एनआरसी की प्रक्रिया के दौरान अल्पसंख्यक कर रहे हैं. हमें इससे परेशान होना चाहिए. लाशों पर खुश होने और नागरिकता न होने की बात पर जश्न मनाने से हमें चिंतित होना चाहिए. समाज का जिस तरह नाश हो रहा है, उससे हमें परेशान होना चाहिए.
एनआरसी ने आम लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है और बांग्लादेशियों के खिलाफ नफरत एक राष्ट्रीय घटना बन गई है. बांग्लादेशी जो पहले बस असम के राष्ट्रवादियों की नजर में दुश्मन थे, अब देश के दुश्मन बन गए हैं.
एनआरसी जो पहले एक सांस्कृतिक और सामाजिक शत्रुता का मुद्दा था, उस मुद्दे को देश और उसके लोगों के दुश्मन के रूप में बदल देने में सफलता पाई है.
इसके विस्तृत मायने देखें तो जहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों एक मौलिक बदलाव से गुजर रहे हैं तो हमें निश्चित रूप से ये सोचना चाहिए कि नागरिकता पर एनआरसी का क्या प्रभाव पड़ेगा?
इंतजार की प्रक्रिया कभी अच्छी नहीं लगती. किसी को भी इंतजार करना पसंद नहीं होता. अगर कोई दोस्त भी कुछ मिनटों के लिए इंतजार करवा दे तो लोग खीज जाते हैं. कल्पना कीजिए कि सालों तक नागरिकता के लिए इंतजार करना कैसा होता होगा? और इस डर के साथ जीना जिसमें एक व्यक्ति के मन में लगातार ये डर बना रहे कि उसे डिटेंशन सेंटर जाना पड़ सकता है.
एनआरसी की मशीन ने इंतजार के एक गंभीर मामले को पैदा किया है. बंगाली मुस्लिम किसान ब्रह्मपुत्र की बाढ़ प्रभावित जमीन पर अपनी फसल के साथ नागरिकता का भी इंतजार करते हैं. इस इंतजार ने ही एनआरसी की प्रक्रिया में हिंसा को बढ़ाया है.
एनआरसी के साथ समय गहरे समुद्र जैसा हो गया है जो सारी चीजों को अपने में समा ले रहा है.
एनआरसी ने मूल रूप से हमारे समय और क्षेत्र को बदल दिया है. हम इसमें इस्तेमाल होते हुए रह रहे हैं.
हम इंतजार करते हैं, डरे रहते हैं और नष्ट होते जाते हैं. हम इस रसातल में चिल्लाते रहते हैं. ये वो तस्वीर है जो मुझे दिखती है. ये एनआरसी की क्रूरता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 01 May 2022,06:02 PM IST