advertisement
मेट्रो में जोर-जोर से हंसती-खिलखिलाती लड़कियों को देखकर किसी ने ताना मारा- इतनी हंसने की क्या बात है. आजकल की लड़कियां भी, ना.... इस टिप्पणी पर उत्तर देने से पहले जब अपना स्टेशन आ गया तो उतरने पर देखा- एक अकेली लड़की ट्रेन के इंतजार में बेंच पर अधलेटी थी. सभी उसे घूर रहे थे- एक ने हल्की आवाज में कहा, ये क्या सोने की जगह है? खयाल आया, लड़कियों के लिए शहरों में पब्लिक स्पेस कहीं है ही नहीं. वो जबरन शहरों में अपना स्पेस छीनने की कोशिश करती हैं.
अमेरिकी लेखिका रेबेका सोलनित जिसे मैनस्पेलिंग कहती हैं, शहरी योजना यानी अर्बन प्लानिंग का आधार वही है. मैनस्पेलिंग का अर्थ है, पुरुषों का बेहतर ज्ञान का दावा और वस्तुओं के अर्थों को नियंत्रित करना. बेशक, वह अपने नजरिए से ही बातें और चीजें स्पष्ट करता है.
पुरुषों के नजरिए से हमारी शहरी चेतना का विकास हुआ है. उसके दृष्टिकोण से भव्य और आलीशान शहरी संसार. वही तय करते हैं कि दुनिया कैसी होगी और वही बताता है कि दुनिया ऐसी होगी.
शहरों की रचना आदमी, आदमियों के लिए ही करते हैं. शहरों में महिला सुरक्षा पर शिल्पा फड़के, समीरा खान और शी रानाडे ने एक किताब लिखी है ‘वाय लॉयटर’. इसमें शहरी संरचना और जेंडर पर शोधपरक जानकारियां हैं. किताब बताती है कि शहरों का विकास दो तरह से होता है- वर्टिकल और हॉरिजोंटल. वर्टिकल में विकास ऊपर की तरफ किया जाता है, मतलब हाई राइज बिल्डिंग्स. हॉरिजोंटल में शहरों का विस्तार किया जाता है. औरतों के लिए हॉरिजोंटल विकास ज्यादा अहम और मित्रवत होता है. वर्टिकल विकास में गगनचुंबी इमारतों के साथ सड़कें ज्यादा सुनसान होती हैं और सेग्रेगेशन बढ़ता है.
भारतीय महानगर अब नए भूगोल के साथ लोगों के बीच हैं. यहां सार्वजनिक स्पेस, निजी स्पेस तक पहुंचने का जरिया भर रह गए है. आप दफ्तर से निकलकर सड़क पर तब चलते हैं, जब घर पहुंचना होता है. सड़कें भी फर्राटा दौड़ती गाड़ियों के लिए बनी हैं. लंबे-लंबे फ्लाईओवर्स, तब बहुत अच्छे लगते हैं, जब आपके पास बड़ी सी गाड़ी हो.
शहरों की प्लानिंग में यूजर सबसे अहम होता है. लेकिन शहरों की डिजाइनिंग में यूजर का कोई लिंग तय नहीं होता. जब तक यूजर की पहचान निर्धारित नहीं की जाएगी, शहर कैसे बनेंगे. इस सिलसिले में वियना का उदाहरण लिया जा सकता है. उस शहर को सिटी विद अ फीमेल फेस कहा जाता है.
1985 में वियना के आस-पास के इलाकों को महिला योजनाकारों को सौंपा गया. इसके बाद शहर की कायापलट हो गई. सड़कों के किनारे फुटपाथ चौड़े किए गए. फुटपाथ पर अच्छे बड़े बेंच बनाए गए. पब्लिक स्पेस ज्यादा हुए.
महिलाओं के लिए रात को पैदल चलाना आसान हो, इसलिए सड़कों पर अतिरिक्त लाइटें लगवाईं. उन्होंने विकलांगों, बुजुर्गों वगैरह को भी शहर की प्लानिंग में हिस्सेदार बनाया.
जब शहरी योजना की कमान औरतों के हाथों में आएगी, तो शहरों पर उनका दावा मजबूत होगा.
मुद्दा यह था कि पब्लिक स्पेस में लड़कियों की मौजूदगी होनी चाहिए. यह सुरक्षा से भी आगे की बात है. चूंकि औरतों को शहरों से सिर्फ सुरक्षा नहीं चाहिए- यह शहरों में अपने अस्तित्व का भी सवाल है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 25 Jun 2019,10:44 PM IST