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कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी नहीं है जिसे वजूद बचाए रखने में मुश्किल आ रही है

सत्ता विरोधी लहर से तो ऐसा महसूस होता है, आज नहीं तो कल, कांग्रेस फिर से लौटेगी, पर ऐसा हो नहीं रहा.

एंड्रयू व्हाइटहेड
नजरिया
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कांग्रेस

(फोटो : एरम गौर/द क्विन्ट)

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जब लगता है, कि इससे खराब कुछ नहीं हो सकता, तो उससे भी बदतर हो जाता है. कांग्रेस(Congress) को चुनावों में सफाये की आदत हो गई है. लेकिन हाल के चुनावों का हाल देखिए- उत्तर प्रदेश विधानसभा में सिर्फ दो सीटें, और पंजाब में मानो सत्ता से जोरदार तरीके से बेदखली. यहां तक कि राज्य के कांग्रेस प्रमुख ने हार के बाद जो टिप्पणी की, उससे लगता था, जैसे कह रहे हों, हम इसी के लायक हैं. पांचों राज्यों के चुनावों में करारी हार. यह गर्त में गिरना ही तो है.

सत्ता विरोधी लहर से तो ऐसा महसूस होता है, आज नहीं तो कल, कांग्रेस फिर से लौटेगी. पर ऐसा हो नहीं रहा. देश में आम आदमी पार्टी (आप) के उतने ही मुख्यमंत्री होंगे, जितने कांग्रेस के. दस में से सिर्फ एक व्यक्ति की नुमाइंदगी एक कांग्रेसी सांसद लोकसभा में कर रहा है.

दक्षिणपंथ की लोकप्रियता की बयार बह रही है

यूं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक लोकतंत्र का संकट मौजूद है. लेकिन अगर हम फ्रांस को अपवाद मानें, तो सामाजिक लोकतांत्रिक परंपरा वाले दूसरे बड़े देशों के मुकाबले भारत में इसका संकट बहुत गंभीर है. हालांकि नजर हर तरफ धुंधली नहीं.आखिर, व्हाइट हाउस में डेमोक्रेट शख्स मौजूद है और जर्मनी का चांसलर भी एक सोशल डेमोक्रेट है- यह बात अलग है कि इन दोनों ने अब तक अपना राजनैतिक प्रभुत्व कायम नहीं किया है. लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, भारत और ब्राजील में दक्षिणपंथ की लोकप्रियता की हवा तेजी से बहती महसूस हो रही है.

कांग्रेस पहले कोई सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन नहीं था.1880 के दशक में इसका मायने होता कट्टर मार्क्सवादी वामपंथ. इसकी बजाय कांग्रेस एक उदारवादी, राष्ट्रवादी शक्तियों का गठबंधन थी. उसने आजादी के आंदोलन की अगुवाई की और आजादी के बाद, उसका दायरा इतना बड़ा था कि कई सालों तक इसकी बाईं छोर पर कम्युनिस्ट हुआ करते थे और दाईं छोर पर स्वतंत्रता पार्टी और जनसंघ. इसी तरह ये इसकी छाया से अछूते रह सकते थे, और चुनावी कामयाबी हासिल कर सकते थे.

लेकिन 'गरीबी हटाओ' वाली पार्टी साफ तौर से राजनैतिक रूप से प्रगतिशील थी, और जब दक्षिणपंथी-मध्यममार्गी बीजेपी का उभार हुआ, तब कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर मध्यममार्गी वामपंथी छोर पर खिसक गई. धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, कल्याणकारी योजनाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वकालत करने लगी.

यूं कांग्रेस वह अकेला राष्ट्रवादी आंदोलन नहीं है, जिसे राष्ट्रीयता के शुरुआती मकसद को हासिल करने के बाद अपने वजूद को बरकरार रखने में मुश्किलें आई हैं. हम दक्षिण अफ्रीका की अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की मिसाल ले सकते हैं: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुकाबले इसका झुकाव वामपंथ की तरफ ज्यादा है (एएनसी के नेतृत्व वाली दक्षिण अफ्रीकी सरकार में कई कम्युनिस्ट मंत्री हैं) और पूर्ण गैर नस्लीय लोकतंत्र के रूप में उसकी उपलब्धि भी काफी नई है. लेकिन भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कई आरोपों ने इसकी छवि को दागदार किया है. इसकी सैद्धांतिक जमीन को कमजोर किया है. एएनसी को सबसे बड़ी चुनौती लेफ्ट से ही मिली है, खासकर जुलियस मलेमा के इकोनॉमिक फ्रीडम फाइटर्स की तरफ से, जिसकी वोट बैंक अब तक 10% से ज्यादा नहीं हो पाया है.

राहुल का नेतृत्व नाकाम रहा है

वैसे ब्रिटेन की लेबर पार्टी से ज्यादा सबक लिए जा सकते हैं.कांग्रेस के वफादार- अब भी मौजूद हैं- यह दावा कर सकते हैं कि लेबर पार्टी 12 साल से सत्ता से बाहर है, और लगातार चार आम चुनाव हार चुकी है. जबकि कांग्रेस को विपक्ष की कुर्सी संभाले आठ ही साल हुए हैं और उसने सिर्फ दो बार चुनावों में शिकस्त खाई है. लेकिन लेबर पार्टी खुद को सत्ता की दावेदार बता रही है.ओपिनियन पोल्स में वह आगे चल रही है और उसके पास ऐसा नेता है- जैसे कि ओपिनियन पोल्स ही कहते हैं- जो प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के बेहतर विकल्प के रूप में देखा जा रहा है.यानी ब्रिटेन में लेफ्ट की तरफ वक्त मेहरबान दिख रहा है, लेकिन भारत में ऐसे दृश्य की फिलहाल कल्पना नहीं की जा सकती.

नेतृत्व इसका एक बड़ा हिस्सा है. कीर स्टार्मर को पार्टी की कमान संभाले सिर्फ दो साल हुए हैं और उन्होंने लेबर पार्टी पर अपनी मुहर लगा दी है. वह कट्टर सोशलिस्ट से मध्यममार्गी हुए हैं और उन्होंने मतदाताओं को भरोसा दिलाया है कि वह ईमानदार और काबिल नेता हैं.

राहुल गांधी में शालीनता है और सच्चापन भी लेकिन उनका नेतृत्व नाकाम रहा है. सिर्फ एक बार नहीं, बार-बार. वह एक अनमने से, उदासीन राजनेता के तौर पर नजर आते हैं जोकि बेदिली से मैदान में उतरा है. यह तबाही को न्यौता देने जैसा है. शायद ही कोई चाहेगा कि किसी ऐसे शख्स को किसी राजनैतिक दल और देश की बागडोर सौंपी जाए जिसे देखकर महसूस होता है कि उसे राजनीति नहीं, कुछ और करना चाहिए.

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कांग्रेस की अंदरूनी कमियां

उत्तर प्रदेश के नतीजे कुछ और भी स्पष्ट करते हैं. यह बताते हैं कि प्रियंका गांधी कांग्रेस की वह खोई हुई ताकत नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि वह एक टेर लगाएंगी और राज्य में पार्टी कार्यकर्ता आ जुटेंगे.राजनीति में उनकी चमक भी फीकी ही है.

सामाजिक लोकतंत्र क्या होता है- क्या यह बताने की जरूरत है? लोकतंत्र के मायने सिर्फ लोक का तंत्र, व्यवस्था नहीं- यह शासन चलाने की प्रणाली ही नहीं है. एक तरह की कार्यशैली है जो पार्टी के भीतर भी कायम होनी चाहिए. कांग्रेस इस शैली को अपनाने में नाकाम रही है. पार्टी के भीतर लोकतंत्र की बजाय वंशवाद को वरीयता देने का एक ही तर्क दिया जाता है (इसे कुतर्क भी कहा जा सकता है) कि यह परिवार चुनाव जीतता है. लेकिन अब वह चुनाव जीतता या जिताता नहीं है.

राजनैतिक नजरिये से कांग्रेस ने कई काबिल दावेदारों की जगह कब्जाई हुई है जो शायद उस जगह का ज्यादा बेहतर उपयोग करते.

गांधी परिवार कह सकता है कि जब परिवार पार्टी से अपनी पकड़ ढीली करता है तो कांग्रेस अपनी दिशा भटक जाती है (सीताराम केसरी बहुतों को याद होंगे), और परिवार के बिना कांग्रेस मुंह के बल गिर सकती है. शायद ऐसा हो सकता है. लेकिन पुरानी कांग्रेस की राख में ही वंशवाद मुक्त कांग्रेस के अंगारे छिपे हैं जिससे एक नए राजनैतिक दल का उभार हो सकता है-ऐसा दल जो मध्यममार्गी-वामपंथी होगा. लेकिन यह सिर्फ खुली आंखों का सपना है. क्योंकि आखिरी सांसे गिनने के बावजूद कांग्रेस किसी देशव्यापी सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन को उभरने का मौका नहीं देगी.

(एंड्रूयू व्हाइटहेड बीबीसी इंडिया के पूर्व संवाददाता हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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