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मेक इन इंडिया : क्या स्वदेशी 2.0 से चीन को पीछे छोड़ पाएगा भारत?

कोविड-19 के संक्रमण में चीन की आपराधिक सहभागिता ने भारत में ‘चीन के बहिष्कार’ की भावना पैदा की है.

राधा रॉय विश्वास & मनोज मोहनका
नजरिया
Updated:
कोविड-19 के संक्रमण में चीन की आपराधिक सहभागिता ने भारत में ‘चीन के बहिष्कार’ की भावना पैदा की है.
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कोविड-19 के संक्रमण में चीन की आपराधिक सहभागिता ने भारत में ‘चीन के बहिष्कार’ की भावना पैदा की है.
(फोटोः iStock / Altered by The Quint)

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स्वदेशी - आत्मनिर्भरता के लिए आह्वान- पहली बार 1905 में सुना गया था जब भारतीयों से ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार करने और देश में बनी वस्तुओं को अपनाने की अपील की गयी थी. ऐसा लगता है कि कोविड 19 महामारी को देखते हुए उस आह्वान की वापसी हो रही है. फर्क यह है कि इस समय विरोध चीन का है. व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम को आज खोलें तो कोई न कोई वीडियो या मीम दिख जाता है जिसमें कहा गया होता है कि ‘चीनी वस्तुओं को ना कहें’ या ‘भारतीय खरीदें, भारतीय बनें’.

कोविड-19 के संक्रमण में चीन की भूमिका मानकर भारत में ‘चीन के बहिष्कार’ की भावना पैदा हुई है. ऐसे ही गुस्से की गूंज दूसरे देशों में भी समान रूप से सुनाई पड़ रही है. अमेरिका की ओर से चीन के विरुद्ध ट्रेड वार की शुरूआत दो साल पहले की गयी थी. महामारी को देखते हुए अब यह विश्वव्यापी होने लगा है जबकि कई देशों ने चीन के साथ दोबारा कारोबार शुरू करने को लेकर चीन विरोधी आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया है.

जापान का चीन के साथ कारोबार से पीछे हटना, बैंक ऑफ चाइना का एचडीएफसी में हिस्सेदारी बढ़ाने के बाद भारत सरकार की ओर से एफडीआई पॉलिसी की समीक्षा, अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंज की सूची से चीनी कंपनियों को बाहर करने के लिए अमेरिकी सीनेट में बिल लाया जाना, इसके उदाहरण हैं. बेशक चीन बदला लेने की रणनीति के साथ प्रतिक्रिया दे रहा है और उससे ऐसी ही उम्मीद थी.

कोविड है ग्लोबलाइजेशन का नतीजा

चूंकि भय और अविश्वास सिर्फ चीन ही नहीं, बल्कि ग्लोबलाइजेशन को लेकर भी पनपा है इसलिए कई देश खुद को बंद कर रहे हैं. जैसे-जैसे बाधाएं बढ़ रही हैं, सवाल भी खड़े हो रहे हैं : भारत को अपना रास्ता किस तरह तैयार करना चाहिए कि वह मौजूदा कठिनाइयों से भी जूझे और अवसरों का भी लाभ उठाए? और बड़ा सवाल ये है कि कोविड-19 के बाद भारत सरकार ने जो ‘स्वदेशी’ और ‘आत्मनिर्भरता’ की रणनीति अपनाई है उससे कितना फादा होगा?

ज्यादातर मामलों में ग्लोबलाइजेशन पहले से ही पीछे चल रहा है, खासकर 2008 के वित्तीय संकट के बाद जब बड़े कारोबारियों को बेलआउट देने के विरोध में ग्लोबलाइजेशन का विरोध कर रहे लोगों की आवाज़ ‘ऑकुपाय वॉल स्ट्रीट’ बुलंद हुई.

ग्लोबलाइजेशन का विरोध हमेशा से शिकायतों का लुंज-पुंज पुलिंदा रहा है. पूंजीवाद, खुला बाजार, बड़े उद्योग और जलवायु परिवर्तन के विरोध का व्यापक एजेंडा ही इन्हें एकजुट करने वाली मुख्य ताकत है.

इस समूह में शामिल हैं जलवायु की चिंता करने वाले योद्धा, आर्थिक न्याय और श्रमिकों के पैरोकार. साथ ही, संस्कृति के झंडाबरदार एवं प्रवासी विरोधी समूह. सबका मकसद ग्लोबलाइजेशन की खामियों को सामने लाना है, जो व्यापार के जरिए सबके लिए अपार धन और फायदा दिलाने का वादा करता है

ब्रेक्जिट और ब्राजील से लेकर तुर्की तक प्रवासी विरोध /ग्लोबलाइजेशन विरोधी ताकतों को भी इसी आईने में देखा जा सकता है. यहां तक कि जिस गति से कोविड-19 वायरस दुनिया भर में फैल रहा है उसका श्रेय ट्रैवल और ट्रेड को दिया जाता है- जो ग्लोबलाइजेशन के दो नतीजे हैं.

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महामारी के बाद की प्रतिक्रियाएं ग्लोबलाइजेशन की राह में बाधा

आज की सबसे बड़ी विडंबना है कि ग्लोबलाइजेशन और इसके परिणामों- इमिग्रेशन और ऑफशोरिंग- के विरुद्ध शिकायतों का साथ देने वाले वही हैं जो इसके मुख्य वास्तुकार और संरक्षक रहे हैं- अमेरिका. इसलिए ऐसा लगता है कि महामारी के बाद की प्रतिक्रियाएं बस उस ग्लोबलाइजेशन को नुकसान पहुंचाने के लिए हैं जो अपनी गति से फैल रहा है.

इसी परिप्रेक्ष्य में क्या स्वदेशी के आह्वान को नहीं देखा जाना चाहिए? ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध में स्वदेशी का मतलब अनिवार्य रूप से भारतीयों के लिए ‘मेक इन इंडिया’ ही था. इसने घरेलू उत्पादन और खपत का नारा दिया. लेकिन, तब ऐसी दुनिया थी जो आज की तरह एक-दूसरे से जुड़ी नहीं थी. तब यह देश दूसरे देशों की तरह वित्त, क्रेडिट रेटिंग और उत्पादन श्रृंखला की वैश्विक व्यवस्था से नहीं जुड़ा था, जहां एशिया में एक भूकंप आने से दुनिया के दूसरे छोर पर कारोबारी संकट पैदा हो जाता हो या फिर जहां विभिन्न देशों की वित्तीय मजबूती अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां तय करती हों.

आज अर्थव्यवस्थाएं इतनी उलझी हुई हैं कि शायद कृषि को छोड़कर जहां मूल स्रोत एक है, किसी एक तैयार उत्पाद के साथ सामने आना मुश्किल है.

यहां तक कि आज उपभोक्ताओं के नेतृत्व वाला स्वदेशी आंदोलन भी शासन की मंजूरी के बगैर अपनी सीमाओं में ही चल सकता है. बड़ी संख्या में भारतीयों ने पिछले कुछ दशकों में जो अपने जीवन स्तर में आए सुधारों को महसूस किया है वह मुख्य रूप से चीन से आए आसानी से उपलब्ध सस्ते उपभोक्ता वस्तुओं के कारण है. इन वस्तुओं - फोन से लेकर चप्पल तक- उनकी पहुंच के कारण ही समृद्धि या बेहतर जीवन का रास्ता खुला है.

क्या अब वे भूल जाएंगे कि चीनी महारथी उनके लिए क्या लेकर आए थे?

क्यों जटिल है चीन के बहिष्कार का प्रस्ताव

उच्च वर्गीय भारतीयों के लिए भी घरेलू उत्पादन के स्तर को ग्लोबल स्टैंडर्ड और वेरायटी के अनुरूप लाना होगा जिसके वे आदी हो चुके हैं. क्या वे पसंद अब दबा दिए जाएंगे? क्या अंधराष्ट्रवाद और ‘भारतीय खरीदो’ का नारा काफी होगा? ये कुछ दिन तो काम कर सकता है, लेकिन, लंबे समय में ये तब तक संभव नहीं लगता जब तक कि कीमत, गुणवत्ता और ब्रांडिंग में घरेलू उत्पादन विकल्प न बन जाए.

आयात रोक देंगे कहना आसान है, करना मुश्किल. चीन के बहिष्कार का प्रस्ताव और भी जटिल है.

चीन के साथ भारत का व्यापार- अन्य चीजों के अलावा ऑटो पार्ट्स, फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स, जरूरी केमिकल्स- वर्तमान में रुका हुआ है. यह सच्चाई असुविधाजनक है. चीनी फंडिंग बंद होने के बाद भारतीय स्टार्टअप्स की ओर से हाल में जो निराशा जतायी गयी है उससे भी इस निर्भरता का खुलासा होता है. यहां तक कि पूंजी प्रवाह में मामूली प्रतिबंध-जिसकी कोशिश भारत ने पिछले महीने एचडीएफसी में चीनी हिस्सेदारी बढ़ाने के बाद की थी- के भी दूरगामी असर होंगे.

चीनी सरकार जवाबी हमले में संकोच नहीं करती

सरकार के अनुमोदन से कोई भी बहिष्कार या बाधा तत्काल प्रतिक्रिया को आमंत्रित करेगी जिसका अनुभव ऑस्ट्रेलिया कर रहा है.

फिर सवाल है भारतीय महत्वाकांक्षा का.

चीन से वैश्विक मोहभंग और आपूर्ति में बाधा ने भारत के लिए अवसर बनाया है कि वह तेजी से ग्लोबल वैल्यू चेन में खुद को विकल्प के तौर पर स्थापित करे.

और, यहीं पर स्वदेशी के लिए वास्तविक आह्वान मौलिक रूप से आज के स्वदेशी आह्वान से अलग हो जाता है. आजादी से पहले का स्वदेशी भारतीयों के लिए आत्मनिर्भरता और ‘मेक इन इंडिया’ के बारे में था. स्वदेशी 2.0 ‘मेक इन इंडिया’ तो है लेकिन भारत और दुनिया दोनों के लिए है. बहरहाल स्वदेशी 2.0 को संभव बनाने के लिए श्रम, पूंजी, कानून और बिजनेस रेगुलेशन में सुधार की आवश्यकता है.

‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत : स्वदेशी 2.0 के साथ हाथों-हाथ जरूरी होगी आत्मनिर्भरता

जब हाल में यह खबर आयी कि चीन के विकल्प के तौर पर भारत नहीं वियतनाम और इंडोनेशिया को माना जा रहा है तो बहुत आश्चर्य नहीं हुआ. यथार्थवादी पर्यवेक्षक को हमेशा से यह मालूम है कि इस जगह के लिए गंभीर स्पर्धी होने में भारत को लम्बा समय लगेगा. इन सबके जवाब में भारत ने -आत्मनिर्भरता या आत्मनिर्भर- के रूप में जो प्रतिक्रिया व्यक्त की उससे लगता है कि इन सारे फैक्टर्स का ध्यान रखा गया है. अधिकारी इस बात की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि अलग-थलग पड़ना मकसद नहीं है.

‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत के तौर पर ‘स्वदेशी’ 2.0 के साथ चाहिए हाथों-हाथ हो ‘आत्मनिर्भरता’ और यह ग्लोबल हो.

आत्मनिर्भरता को कोविड-19 से रिकवरी की तुलना में अधिक महत्व दिया गया है. इसमें कई लंबित सुधार, खासतौर से कृषि सेक्टर में सुधार शामिल हैं. बहरहाल ये काफी नहीं हैं. देश के सॉफ्ट और हार्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रमिकों के लिए रक्षा-संरक्षा का जाल बिछाने के साथ-साथ बिजनेस पॉलिसी में अब भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां सुधार की जरूरत है. इसके अलावा किसी विचार को आगे बढ़ाने में अक्सर सरकार के इरादे और इसकी क्षमता में बड़ा फर्क होता है. एक साल पहले इंडियन सॉवरिन फंड की घोषणा हुई लेकिन फिर वह भुला दिया गया. अगर यह हो गया होता तो इसका इस्तेमाल भारत के फायदे के लिए हो सकता था. योजना और लागू करने के बीच इस फर्क पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत तभी भारत आत्मनिर्भर और ग्लोबल प्लेयर बन पाएगा.

भारत और चीन व्यापार संबंध में तुरंत क्यों नहीं चाहेंगे बाधा

मई में खुद वित्त मंत्री ने अहम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण के साथ कई घोषणाएं की हैं जिसमें अब तक कई बंद रहे क्षेत्र भी निजी सेक्टर के लिए खुल जाएंगे. हालांकि यह कार्य क्षमता और निजी सेक्टर की भूमिका बढ़ाने के हिसाब से स्वागत योग्य कदम हो सकता है लेकिन भारत को यह भी देखने की जरूरत है कि निजी घरेलू उत्पाद को प्रोत्साहित करने की इसकी योजना संभ्रांत लोगों के लिए फायदेमंद नहीं है. यह रूस जैसी स्थिति पैदा करता है क्योंकि चंद गिने-चुने निगम और टायकून ही मालदार होंगे, जिनके पास महामारी के बाद ऐसे निजीकरण के अवसर पर हमेशा की तरह निवेश के लिए पर्याप्त फंड होगा.

आखिर में, जमीन पर और सरकार में समूचे रुख और नतीजे को तय करने वाला सबसे बड़ा फैक्टर होगा : चीन की तुलना में भारत की जियोपॉलिटिकल वास्तविकता, जिसमें हाल में सीमा पर बढ़ती झड़पें शामिल हैं. ऐसी आशा की जाती है कि हमेशा की तरह ये झड़पें युद्ध में तब्दील न हों. दोनों पक्ष बुरे अंजाम को जानते हैं.

लेकिन विडंबना है कि व्यापार और निवेश पर निर्भरता से ही श्रेष्ठ सुरक्षा मिलती है.

दोनों में से कोई भी पक्ष, खासतौर से इस वक्त, व्यापार में बाधा नहीं चाहता.

हवा का रुख बदलने की कुंजी है चीन के साथ तनाव बढ़ने से रोकना

पाकिस्तान से अलग जहां नियंत्रण रेखा पर लगातार जवानों की मौत होती रहती हैं, पैंगांग लेक या गालवन घाटी में झड़प के दौरान एक मौत भी पूरी तस्वीर बदल दे सकती है- यह नाराज़गी आसानी से आवेश में बदल जा सकती है. इसलिए तनाव को रोकने के लिए चीन के साथ बातचीत के जरिए रणनीतिपूर्ण सोच हो, जिसमें दुनिया की व्यापक भागीदारी हो, हम अपने घर को दुरुस्त करें. यह हवा का रुख मोड़ने में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

‘काफका ऑन द शोर’ हारुकी मुराकामी का कहना था : “...जब तूफान खत्म हो जाता है तो आपको याद नहीं रहता कि आपने कैसे इस पर जीत हासिल की...लेकिन एक बात तय है. जब आप इससे बाहर आ जाते हैं, आप तूफान में फंसे हुए व्यक्ति नहीं रह जाते.” इस तूफान के बारे में भी यही सच है. क्या भारत उभरती हुई अर्थव्यवस्था रहेगा या क्या यह कोविड-19 के तूफान से सिर उठाकर निकल पाएगा और आत्मनिर्भर बनकर उभरेगा या इससे भी कुछ अधिक?

( लेखक राधा रॉय विश्वास एडोवोकेट हैं. वह अमेरिका से 15 साल बाद भारत लौटी है. वह अपने क्षेत्र में काम करने के साथ-साथ लेखन और अध्यापन का काम करती हैं.

लेखक मनोज मोहनका एक व्यवसायी हैं लेकिन वह राज्य के मामलों में अधिक रुचि रखते हैं. वह राजनीति और धर्म के नजदीक हैं और मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के लिए एक ट्रस्ट चलाते हैं.

ये लेखक के अपने विचार हैं, इससे द क्विंट का कोई सरोकार नहीं है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है)

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Published: 31 May 2020,09:20 PM IST

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