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अगर आप ‘नवउदारवादी पूंजीवाद’ को कोरोनावायरस महामारी के लिए जिम्मेदार ठहराएं तो बहुत से लोग इसे रीट्विट करेंगे. जैसा कि एलिसा बतिस्टोनी ने बॉस्टन रिव्यू के अपने एक बेहतरीन आर्टिकल में लिखा है, इस महामारी को पूंजीवाद से अलग करके नहीं देखा जा सकता: इस वायरस के पैदा होने के बहुत से कारण हैं- शहरों के इर्द-गिर्द निर्धन बस्तियों का पनपना और उसके साथ होने वाला विकास, प्रकृति प्रदत्त खाद्य पदार्थों का जिंसीकरण, औद्योगिक खाद्य उत्पादन के बाद मनुष्य जाति का मनुष्येतर जातियों से संपर्क और मनुष्यों एवं वस्तुओं का विश्वव्यापी आवागमन.
लेकिन अपने पूर्वाग्रहों को पुष्ट करने के लिए सिर्फ प्रगतिशील वामपंथी ही इस संकट का इस्तेमाल नहीं कर रहे. अधिकतर लोगों के लिए- भले ही उनकी विचारधारा या राजनीतिक दल कोई भी हो- सबसे बड़ा लक्ष्य है, इस संकट की मूल वजह को ढूंढना. इसके लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं. मध्ययुग में ब्लैक डेथ महामारी के लिए यहूदियों, जादूगरों, चुड़ैलों को दोषी ठहराया गया और उन्हें मौत के घाट उतारा गया. शुक्र है कि आधुनिक युग के कथित शैतानों को इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं.
मैंने देखा है कि नव उदारवादी पूंजीवाद को बहुत से घटनाक्रमों के लिए दोषी ठहराया गया- भूमंडलीकरण, डॉट कॉम बुलबुला, नाइन इलेवन हमला, इराक में अमेरिका की अगुवाई में संघर्ष, सार्स, विश्वव्यापी वित्तीय संकट और अब कोविड-19. लेकिन विवादास्पद तर्क और शिकायतों के अलावा अधिकतर आलोचकों के पास इसका कोई ठोस सबूत नहीं है. आप मान सकते हैं कि भूमंडलीकरण, स्टॉक मार्केट बुलबुले, वित्तीय संकट और आय वितरण के पैटर्न्स के चलते 1990 के दशक में पश्चिमी देशों में नौकरियां गईं और इसका एक कारण विशिष्ट आर्थिक नीतियों भी थीं लेकिन इसे किसी वाद से जोड़ना एक ऐसा राजनैतिक सैद्धांतिक तर्क है जिसे नैतिक आवरण में लपेट के पेश किया जाता है.
हां, यह जरूर हो सकता है कि यह महामारी चीन से शुरू हुई, पश्चिम से नहीं, क्योंकि कानून नाम की भी कोई चीज़ होती है. क्योंकि पश्चिम में आप पर नालिश की जा सकती है. बिल्कुल... चीन के मुकाबले पश्चिम में यह सुनिश्चित किया जाता है कि पशुपालन करने वाले अमेरिकी किसान खाद्य सुरक्षा कानूनों का कड़ाई से पालन करें. क्या इसके पीछे कोई सैद्धांतिक तर्क नहीं, हठधर्मिता से पैदा हुई अक्षमता थी, जिसके कारण अमेरिकी सरकार ने इतनी शिथिल प्रतिक्रिया दी?
दरअसल पूंजीवाद और कोरोनावायरस के अंतर्संबंधों पर कोई तर्क इसलिए नहीं दिया जा सकता, क्योंकि ऐसा कोई संबंध है ही नहीं. रोज़ेनबर्ग और बर्डज़ेल ने 1985 की अपनी किताब हाउ द वेस्ट ग्र्यू रिच में लिखा है- सामंतवाद के पतन के बाद यूरोप में आर्थिक संस्थानों के उभरने का कारण यह था कि उनका चरित्र पूरी तरह से व्यावहारिक था और यह भी कि वे किसी आर्थिक सिद्धांत के प्रति वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नहीं थे. जिस व्यवस्था ने पश्चिमी आर्थिक विकास को उत्पन्न किया है, विचारधारा तथा व्यवस्था के रूप में उसकी पहचान बाद के वर्षों में हुई. सच्चाई तो यह है कि मार्क्स के अनुयायियों ने पूंजीवाद शब्द को विकसित किया, जोकि उस आर्थिक व्यवस्था का तिरस्कार करता था, जिसे वे उखाड़ फेंकना चाहते थे... लेकिन पश्चिमी अर्थव्यवस्था के रहनुमाओं ने पाया कि यह एक शब्द उस आलंकारिक सिद्धांत पर भारी पड़ गया जिसका इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ कभी नहीं किया जाना चाहिए.
पूंजीवाद में दरअसल कई विचारों का घालमेल होता है जो मिलकर काम करते हैं. जैसे व्यक्तिगत आजादी, आर्थिक स्वतंत्रता, मुक्त बाजार, मुक्त व्यापार, प्रतिस्पर्धा, कानून एवं नियम और लाभ के उद्देश्य से संचालित व्यापार. तो, पूंजीवाद को हम कई विचारों का सुविधाजनक शॉर्टहैंड कह सकते हैं. सभी देश इन विचारों को पूरी हद तक, और हर वक्त में लागू नहीं कर पाते. इसीलिए तथाकथित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं दरअसल मिश्रित अर्थव्यवस्थाएं हैं.
मार्क्स ने कम्यूनिज्म की खोज की. एडम स्मिथ ने सिर्फ यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद कैसे काम करता है. वह अब भी विकसित हो रहा है, और अपनी गलतियां से सीख रहा है. लोग और सरकारें अपने संदर्भों के साथ कुछ विचारों को अपना रही हैं और कुछ को नामंजूर कर रही हैं. अमेरिका ने 1930 में सामाजिक सुरक्षा को शुरू किया. ब्रिटेन ने चालीस के दशक के अंत में स्वास्थ्य को नेशनलाइज किया. कई देशों की नेशनल एयरलाइनें हैं. 1992 में भारत में बाजार अर्थवयवस्था की भूमिका का विस्तार किया गया, लेकिन सरकार अब भी नहाने के साबुन बना रही है. हमारे देश में मूखर्तापूर्ण रेगुलेशंस और इंस्पेक्टर्स हैं, रिश्वत चलती है, और प्रकृति के नियम की तरह इनका पालन होता हैं. हम उन्हें खत्म करने के बारे में नहीं सोचते.
विश्व की आर्थिक नीतियों के बुरे प्रभाव सामने हैं- सबसे गंभीर है, पर्यावरणीय विघटन. इन्हें बदले जाने की जरूरत है. लेकिन इसका यह मायने नहीं कि एक व्यवस्था को दूसरी व्यवस्था से बदला जाए. यह ज्यादा अच्छा होगा कि खास समस्याओं को हल किया जाए और जैसा कि चीन के संदर्भ में कहा जाता है- क्रॉस द रिवर बाय फीलिंग द स्टोन्स. यानी चरणबद्ध तरीके से आर्थिक सुधारों को लागू किया जाए.
कम्युनिज्म और पूर्ण समाजवाद दूर की कौड़ी है और पहुंच से बाहर. इसके अपने खतरे हैं. हमारी चिंता यह भी है कि महामारी के कारण अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण बढ़ रहा है.
बेशक आत्मनिर्भरता, समृद्धि और नियंत्रण दो तरफा नहीं, तीन तरफा कशमकश है. आपको इनमें से तीन नहीं, दो को चुनना है. अगर हमें आत्मनिर्भर और समृद्ध होना है तो अर्थव्यवस्था को नियंत्रित नहीं किया जा सकता. इसलिए मूल्य पर नियंत्रण, कोटा और आपातकालीन उपायों के रूप में प्रतिबंधों को जल्द से जल्द हटाया जाना चाहिए. आर्थिक वृद्धि से संपन्नता आएगी, जैसा कि पिछले तीन दशकों में हुआ है.
यह याद रखना भी जरूरी है कि आत्मनिर्भरता एक नतीजा होता है, वह विचारधारा नहीं बननी चाहिए. अगर ऐसा होता है कि वह होगा जो उत्तर कोरिया में हुआ. ‘ज़ूशे’ उत्तर कोरिया की राष्ट्रीय विचारधारा है जिसे राष्ट्रीय विचारधारा में किम इल सुंग के मूल, उत्कृष्ट और क्रांतिकारी योगदान के रूप में व्याख्यायित किया जाता है. इसका अनुवाद आत्मनिर्भरता ही है.
(नितिन पई तक्षशिला इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं. तक्षशिला इंस्टीट्यूट पब्लिक पॉलिसी के क्षेत्र में शोध एवं शिक्षा का एक स्वतंत्र केंद्र हैं. ट्विटर पर वह @acorn के साथ मौजूद हैं. ये उनके निजी विचार हैं. क्विंट उनके विचारों का समर्थन नहीं करता, न वह उनके लिए जिम्मेदार है)
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Published: 30 May 2020,05:49 PM IST