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हिंदी थोपी जा रही या सिर्फ रस्मी मामला, BJP ने क्रिमिनल लॉ के नाम क्यों बदले?

भारतीय वोट बैंक का आधार सांस्कृतिक है और BJP के लिए हिंदी थोपना सिर्फ एक बदलाव नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल है.

तारा कृष्णास्वामी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>राजनीति में कुछ भी बेमकसद नहीं होता और हर कदम के पीछे इरादे की पड़ताल करना जरूरी है.</p></div>
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राजनीति में कुछ भी बेमकसद नहीं होता और हर कदम के पीछे इरादे की पड़ताल करना जरूरी है.

(फोटो: कामरान अख्तर/द क्विंट)

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(पहले यह ओपिनियन पीस 18 अगस्त 2023 को पब्लिश किया गया था. 20 दिसंबर 2023 को लोकसभा में तीन क्रिमिनल लॉ बिल के पास होने के बाद इसे अपडेट कर फिर पब्लिश किया जा रहा है.)

भारत के फौजदारी कानूनों (Criminal Laws Reform) में सुधार लाने वाले बताए जा रहे तीन बिल, शीतकालीन सत्र के दौरान 20 दिसंबर को लोकसभा में पास कर दिए गए. इस बिल में पूरी तरह हिंदी शब्दों में पिरोए गए हैं. भले ही बिल का मसौदा अंग्रेजी में है लेकिन इससे हिंदी थोपे जाने के खिलाफ हलचल बढ़ गई. बिल में 80 प्रतिशत से ज्यादा तो ब्रिटिश कानून का दोहराव भर है. ये बिल हैं-

  • भारतीय न्याय संहिता विधेयक

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक

  • भारतीय साक्ष्य विधेयक

यह क्रमशः इंडियन पीनल कोड (I.P.C.), द कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (Cr.P.C) और इंडियन एविडेंस एक्ट की जगह लेंगे. क्या यह नाम रखने के पीछे उनकी कोई मंशा है या यह बिना गलत इरादे का प्रतीकवाद भर है?

राजनीति में कुछ भी बेमकसद नहीं होता और हर कदम के पीछे इरादे की पड़ताल करना जरूरी है. नौ साल सरकार चलाने के बाद, वह भी मानसून सत्र के अंतिम दिन, कई खामियों के साथ, बड़े पैमाने पर चर्चा के बिना और विपक्ष की गैरमौजूदगी में ये बिल क्यों पेश किए गए थे? क्या यह मणिपुर के मुद्दे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसद में गैरहाजिरी से ध्यान भटकाने के लिए था?

BJP का हिंदी पर लगातार जोर रहा है

यह पहली बार नहीं है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार ने अपनी गलतियों को लेकर घेरने वाले मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए हिंदी का मुद्दा उठाया है– और विपक्षी नेताओं ने पहले भी ऐसा आरोप लगाया है.

वैसे 2014 के बाद से BJP की तरफ से हिंदी थोपने की लगातार और पुरजोर कोशिशें की गई हैं. यह संविधान के अनुच्छेद 343-351 में हिंदी को दिए खास महत्व और इसके प्रचार के लिए खास बजटीय भत्ते के अलावा है, जो हमेशा से BJP के दिल में है.

मौजूदा सरकार के मंत्रालय लगातार तय उद्देश्य के साथ, सत्ता में अपने पूरे नौ सालों के दौरान हिंदी का राग अलापते रहे हैं: एक संसदीय पैनल ने सिफारिश की है कि हिंदी को सभी संस्थानों में जरूरी बनाया जाए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) में तीन भाषा फार्मूला तय किया गया है जिसमें हिंदी अनिवार्य है, हिंदी का तब तक विरोध किया गया जब तक कि इस विवादास्पद हिस्से को हटा नहीं दिया गया, घोषणाएं की जाती हैं आज नहीं तो कल हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करना होगा, CRPF परीक्षाओं में 25 नंबर का हिंदी का पेपर अनिवार्य है, और कई दूसरी परीक्षाओं के साथ रेलवे और बैंकों जैसी राष्ट्रीय सरकारी सेवाओं के फॉर्म और रसीदें सिर्फ हिंदी में होती हैं.

इन सभी पर विरोध का सामना करना पड़ा है और जनता का एक बड़ा वर्ग इसके विरोध में है, तो फिर BJP भाषा का बखेड़ा क्यों छेड़ती रहती है?

दरअसल, भारत में भाषाई तौर पर रोजमर्रा का कामकाज कोई समस्या न थी और न है. नौकरशाही का गठन उप-राष्ट्रीय एकीकरण के लिए किया गया है. राज्यों में तैनात IAS अफसर आसानी से दूसरी भाषाएं सीख रहे हैं, जबकि राज्यों की प्रशासनिक सेवाएं स्वाभाविक रूप से भाषा से जुड़ी होती हैं. राज्यों के हिसाब से अंग्रेजी के साथ आधिकारिक भाषा में फॉर्मों की छपाई और परीक्षा आयोजित करना भी कोई बहुत जटिल काम नहीं है.

इसके साथ ही, मंत्री स्तर पर सिर्फ राजनीतिक नौकरशाही ही राज्यों में लोगों के साथ संवाद नहीं कर रही है. उनकी राज्य प्रशासनिक इकाइयों के साथ बातचीत आमतौर पर आधिकारिक भाषाओं में होती है. हमारी कार्यपालिका को परेशान करने वाली सभी अनगिनत जटिल समस्याओं में किसी ने भी प्रशासन में भाषा संबंधी समस्या के बारे में शिकायत नहीं की है.

तो यहां मोदी सरकार का मकसद क्या है? बुनियादी वजह पूरी तरह राजनीतिक है और यही हमेशा रही है.

हिंदी और इसका राजनीतिक इस्तेमाल

ब्रिटिश राज के शानदार दिनों और उसके बाद 1952 में आजाद भारत के पहले चुनाव तक, आज जितना बड़ा भारत किसी भी साम्राज्य के दायरे में नहीं था. मौर्य, गुप्त, मराठा राज– किसी की भी सुदूर दक्षिण और सुदूर पूर्व तक पहुंच नहीं थी, यहां तक कि अपने सबसे अच्छे समय में भी नहीं, जब वे उत्तर भारत और पाकिस्तान पर सांस्कृतिक एकरूपता के साथ शासन करते थे.

देश को आजादी मिलने और बॉलीवुड का असर फैलने तक लोग, खासतौर से सुदूर दक्षिण और सुदूर पूर्व के लोग हिंदी के आदी नहीं थे, जबकि 1600 के बाद से अंग्रेजी उनके लिए सहज बनने लगी थी. इन राज्यों में कई लोगों के लिए हिंदी अंग्रेजी की तुलना में ज्यादा विदेशी है. तुलनात्मक रूप से इसके अपेक्षाकृत कम फायदेमंद और आर्थिक ताकत की बात तो अलग है.

हिंदी का हालांकि असरदार राजनीतिक इस्तेमाल है. राष्ट्रीय राजनीतिक दल, जो बुनियादी रूप से हिंदी दल हैं, एक ऐसी भाषा में सीधे वोट मांगकर सत्ता हासिल कर रहे हैं, जहां हिंदी (जिसमें उर्दू और पंजाबी शामिल हैं) बोलने वाले 43 फीसद (आबादी के हिसाब से) हैं, जो कुछ लोगों के लिए सिर्फ परिचित भाषा है और बाकी 57 फीसद के लिए पूरी तरह अनजान है. इससे हमें राजनीतिक दलों की कैंपेन मशीनरी और उनकी भाषाई दिक्कतों का पता चलता है.

कांग्रेस की पहचान एक केंद्रीय आलाकमान वाली पार्टी की है, जिसका तरीका सुप्रीम लीडर के नाम पर क्षेत्रीय क्षत्रपों द्वारा वोट बटोरना है. आज के सिद्धारमैया, गहलोत, बघेल वगैरह ने अपना खुद का जनाधार बना लिया है, जिसका इस्तेमाल वे अपनी भाषाओं में वोट जुटाने के लिए करते हैं, जैसा कि पुराने दिनो में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर वाईएस राजशेखर रेड्डी ने तेलुगु में और ओमन चांडी ने मलयालम में किया था,

हकीकत में कांग्रेस आलाकमान हिंदी में चलाए जाने वाले अभियानों तक ही सीमित है, जिसमें लाइव अनुवाद से काम चलाना होता है. BJP का हाल इतना बुरा नहीं है, सिवा इसके कि उसके क्षेत्रीय नेता, खासतौर से गैर-हिंदी राज्यों में, पार्टी हाईकमान द्वारा की गई नियुक्तियों से कमजोर हो गए हैं, जिसका नतीजा है कि उनके पास कोई जनाधार नहीं है. कांग्रेस राज्यों में नीचे से ऊपर का ढांचा है; BJP में ऊपर से नीचे का पदानुक्रम है.

वोट जुटाने के चुनावी अभियान सिर्फ मोदी के नाम पर नहीं होते, वे मोदी द्वारा होते हैं, सिर्फ गुजराती और हिंदी में.

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यह लाइव अनुवाद की तकलीफों से भी ज्यादा बुरा है. अनुवादकों की संभावित नुकसान पहुंचाने वाली गलतियों को छोड़ दें जो कि सांस्कृतिक अर्थ को बदल देती हैं– जैसे कि जब अमित शाह के ड्रिप सिंचाई (Amit Shah's drip irrigation) का अनुवाद तमिलनाडु BJP के नेता एच. राजा ने “मूत्र सिंचाई” (urine irrigation) कर दिया था.

ज्यादातर भाषाओं में मां-बेटी या बोलचाल की भाषा में कोई लक्ष्मण रेखा का मुहावरा नहीं है, जिनका इस्तेमाल मोदी अक्सर करते हैं. इसके बजाय अक्का/थंगई-अक्का/थंगी/अक्का-चेल्ली (बड़ी और छोटी बहन) या “सीमा-रेखा पार न करें” के वैसे ही सांस्कृतिक संदर्भ के साथ कोई शब्द नहीं हैं.

“चेड्डम-चूड्डम” (Cheddam-Chooddam) उसी तरह सिर्फ तेलुगु में है, जैसे “एडुथोम-कवुथोम” (Eduthom-Kavuthom) तमिल के लिए है. वे राज्यों की सीमाओं के बाहर तक नहीं जाते हैं!

पाकिस्तान दक्षिण भारत में जाना-पहचाना दुश्मन नहीं है, क्योंकि वहां उसकी कोई पहुंच नहीं है. और अंग्रेजी शासन से पहले का इतिहास, उत्तर और पूर्व या उत्तर और दक्षिण के बीच बहुत अलग है. जैसे हालात हैं मोदी के गृह राज्य गुजरात के अलावा, हिंदी पट्टी से दूर के राज्यों में BJP की ताकत कमजोर पड़ रही है. जहां हिंदी बोली जा सकती है, उससे इतर राज्यों में उन्हें पूर्ण बहुमत जुटाना मुश्किल होता है. कई मामलों में उन्होंने दलबदलुओं को अपने पाले में लाकर जनादेश के खिलाफ सरकार बनाई है.

इसका मतलब यह है कि गुजराती और हिंदी को छोड़कर दूसरी भाषाओं में अनुवाद में मोदी की अपील की ताकत घट जाती है; और इससे भी बुरी बात यह कि उन्हें भाषण कला में माहिर स्थानीय वक्ता के साथ मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, और इस कोशिश में उनकी विश्वगुरु अपील की धज्जियां उड़ जाती हैं.

सांस्कृतिक प्रसार की बुनियादी शर्त

सभी राज्यों में हिंदी की पहुंच सिर्फ चुनावी भाषण की भाषा का मसला नहीं है. यह सांस्कृतिक प्रसार के लिए एक बुनियादी शर्त है, जिसके बिना रूपकों के मायने खो जाते हैं, अपील हास्यास्पद अनुवाद के रूप में सामने आती हैं, और भावनात्मक अपीलें भ्रमित करती हैं.

राजनीतिक भाषण से जुबानी कहानियों को जुदा नहीं किया सकता है, मोदी खुद भी अपने हिंदी भाषणों में दूसरी भाषाओं के छोटे-छोटे सांस्कृतिक संदर्भ डालने की कोशिश करते हैं.

लेकिन इसकी एक सीमा है

स्थानीय बोली (यानी राज्य के दलों) की बाधा को ऐसी संस्कृति से जीता नहीं जा सकता है, जो स्थानीय लोगों के लिए बाहरी है, और इसलिए उप-राष्ट्रीय आत्मनिर्भर संस्कृतियों को हिंदी के सामने समर्पण करना होगा, और सहज बातचीत को अनिवार्य रूप से आगे बढ़ाने के लिए दीवार को गिराना होगा.

यह बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा वगैरह में अनगिनत भाषाओं के साथ पहले हो चुका है, जिससे मगही, अवधी, बघेली, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कनौजी जैसी दूसरी भाषाई संस्कृतियों को समाहित करते और मिटाते हुए हिंदी की संस्कृति सबसे ताकतवर हो गई है.

हिंदी वह माध्यम बन गई है जो उत्तर भारत के सांस्कृतिक मूल्यों– लक्ष्मण रेखाओं और लाल आंखों– को उप-राष्ट्रीय संस्कृतियों के ऊपर बिठाती है. यह कायापलट एकरूपता की लंबी कवायद के लिए BJP/RSS के विचार के साथ अच्छी तरह फिट बैठता है, जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति, पाठ्यक्रम में बदलाव, विश्वविद्यालयों की बौद्धिक संपदा में बदलाव, फौजदारी कानूनों का नाम बदलने जैसे नीतिगत बदलावों के उपायों से मदद मिलती है.

भारतीय वोट बैंक का आधार सांस्कृतिक है और BJP के लिए हिंदी थोपना सिर्फ एक बदलाव नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल है. हिंदी वह ताकत है जो शक्ति संतुलन को बदल देती है, जिसके बिना BJP ऊपर से नीचे तक वरिष्ठता क्रम के साथ अपनी राजनीतिक उप-इकाइयों वाली एक क्षेत्रीय इकाई भर है.

हिंदी के भाषाई साम्राज्यवाद के खिलाफ और भारत में तमाम भाषाओं और संस्कृतियों की विविधता के सभी भावनात्मक उबाल भरे तर्क रखते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि हिंदी हिंदुत्व के लिए कितना भावनात्मक मुद्दा है. इतना कि उन्होंने “हिंदी के आकर्षण और शुद्धता” के खिलाफ मोहनदास करमचंद गांधी के “कुतर्क” और “भारत की राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर विकृत रवैये” के लिए उनकी गोली मारकर हत्या करने की वजह बताया.

तो, जहां तक तीन बिलों का सवाल है, यहां ‘गुलाब को किसी और नाम से पुकारें तो भी वह गुलाब ही रहेगा’ जैसा मामला नहीं है. यह समाहित कर लेने वाला और उपनिवेशवादी सुपर स्ट्रक्चर है.

(तारा कृष्णास्वामी पॉलिटिकल शक्ति (Political Shakti) की सह-संस्थापक हैं, जो नागरिकों का एक गैर-राजनीतिक समूह है जो विधानसभाओं और संसद में महिलाओं की ज्यादा भागीदारी लिए अभियान चला रहा है. उनका ट्विटर हैंडल @taruk है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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