मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और क्षेत्रीय पार्टियों का सरहदों में सीमित टोटका

ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और क्षेत्रीय पार्टियों का सरहदों में सीमित टोटका

Mamata Banerjee बांग्ला भाषी क्षेत्रीय पार्टी का नेतृत्व करती हैं, जोकि जातिगत आधार पर एकजुट है

राघव बहल
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति</p></div>
i

ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति

(फोटो- क्विंट हिंदी)

advertisement

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) कई मायने में इतने एक जैसे हैं कि आप उन्हें एक दूसरे का जुडवां कह सकते हैं. राजनीति के जुड़वां. दोनों विपक्षी राजनीति के तूफानी पंछी हैं. मुख्यमंत्री के तौर पर दोनों का यह तीसरा कार्यकाल है. दोनों ने चुनावी अभियानों में बीजेपी को करारा झटका दिया है, जिसकी कमान मोदी-शाह की जोड़ी के हाथों में थी. इस लिहाज से दोनों ही 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़ी चुनौती दे सकते हैं. उनके मोदी के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरने की पूरी संभावना है. बेशक संख्या का गणित गड़बड़ा सकता है लेकिन अगर विपक्ष एक हो जाए तो ये दोनों उस गठबंधन के पहले नंबर के नेता बन सकते हैं. फिर भी ममता और केजरीवाल के बीच एक फर्क जरूर है.

ममता बनर्जी बांग्ला भाषी क्षेत्रीय पार्टी का नेतृत्व करती हैं, जोकि जातिगत आधार पर एकजुट है. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल हिंदी/अंग्रेजी भाषी राज्य स्तरीय पार्टी के सर्वोच्च नेता हैं जिसमें जातिगत विविधता है. यह क्षेत्रीय बनाम राज्य स्तरीय भिन्नता उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है. मैं इतिहास के पन्ने टटोलने के बाद इन दो शख्सीयतों पर बातचीत करूंगा जो एक दूसरे से एकदम अलग भी हैं.

नेहरू का दौर: कांग्रेस की छतरी के नीचे क्षेत्रीय राजनीति की शुरुआत

आजादी के बाद डेढ़ दशक तक नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एकछत्र राज था. नेहरू लोकतांत्रिक प्रकृति के थे और उनमें आत्मविश्वास भी लबालब था. इसीलिए उन्होंने अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय नेताओं को उभरने दिया. तमिलनाडु में के कामराज, पंजाब में प्रताप सिंह कैंरो, ओड़िशा में बीजू पटनायक, मुंबई में मोरारजी देसाई, उत्तर प्रदेश में गोविंद वल्लभ पंत और सुचेता कृपलानी और राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया- ऐसे कई नेता थे, जिनकी अगुवाई में कांग्रेस ने अजेय शासन किया.

वैसे कोई देखना चाहता तो उसे एहसास होता कि यह ‘क्षेत्रीय राजनीति की सुगबुगाहट’ थी जो आने वाले समय में राजनीति में कड़वाहट घोलने वाली थी. हर राज्य में एक राजनैतिक दैत्य सिर उठा रहा था जिसके पैर फिलहाल कांग्रेस में जमे हुए थे. इसी के साथ कांग्रेस के कई “क्षेत्रीय चेहरे” नजर आ रहे थे.

बेशक नेहरू क्षेत्रीयकरण को काबू में रखना जानते थे लेकिन उन्होंने 1956 में भाषा के आधार पर भारतीय राज्यों का पुनर्गठन किया. और इसी से उनकी मौत के कुछ दशकों बाद क्षेत्रवाद का बीज बड़ा होकर एक कंटीला पौधा बन गया. राज्यों का पुनर्गठन जरूरी था ताकि एक बड़ा संघीय ढांचा खड़ा किया जा सके लेकिन इससे जातीय-भाषाई अरमान भी मचलने लगे जिन्हें सिर्फ चुनावी उथल-पुथल पैदा करनी थी.

इंदिरा का दौर: इतिहास के हादसे के चलते क्षेत्रीय ताकत ओझल रहीं

1964 में नेहरू की मृत्यु हुई. इसके बाद 1967 के चुनावों में क्षेत्रीय राजनीति बेलगाम हो गई. आठ राज्यों में कांग्रेस हार गई और लोकसभा में बारीक बहुमत (54% सीटों) के साथ जीती. पार्टी की शिकस्त के बाद पुराने परंपरावादी सिपहसालारों और वामपंथी रुझाने वाले नए योद्धाओं के बीच खींचतान शुरू हो गई. आखिरकार पार्टी दो फाड़ हो गई. बिटिया इंदिरा गांधी, पिता की छाया के साथ लोकलुभावन वादे लेकर चुनावी मैदान में उतरीं. उनके गरीबी हटाओ के नारे ने आईएनसी को चुनावी जीत तो दिलाई लेकिन राजनीति बदहाल और कमजोर हुई.

इंदिरा गांधी नेहरू से बहुत अलग थीं. वह ध्रुवीकरण, केंद्रीयकरण की चाह रखती थीं. क्षेत्रीय नेता उन्हें बेचैन करते थे. वह सत्ता को अपनी मुट्ठी में कैद करना चाहती थीं और उनकी शख्सीयत में ऐसी दबंगई थी कि मतदाता और विपक्षी नेता सालों तक उन पर मोहित रहे. फिर उनकी राजनीति की क्रूर और कठोर शैली का अंत 1975 की इमरजेंसी से हुआ. अठारह महीने बाद 1977 के चुनावों में इंदिरा को फटकार पड़ी और जनता पार्टी को संसद में बहुमत मिला. यह गठबंधन कई विपक्षी पार्टियों का पिटारा था.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

एक बार फिर, इतिहास के एक हादसे ने राजनीतिक प्रक्रिया पर ठहराव का एक मुलम्मा चढ़ा दिया, जो भीतर ही भीतर तेजी से बिखर रही थी. इमरजेंसी के दौरान ऐसा महसूस हुआ था कि एक नए राष्ट्रीय दल की नींव पड़ी है, लेकिन जनता पार्टी में भी कई मुंह, कई दिमाग थे. विचारधारा के स्तर पर एक दूसरे के दुश्मन और एक दूसरे से एकदम अलग क्षेत्रीय सपने. इन्हें टूटना ही था, और इसी के साथ 1980 में इंदिरा गांधी को धुआंधार जीत मिली. कांग्रेस पार्टी को अपनी पुरानी ताकत वापस मिलने का भ्रम भी पैदा हुआ.

राजीव गांधी का दौर: कांग्रेस के प्रभुत्व का अंत

कांग्रेस कमजोर हो रही थी, इधर दक्षिण में एक नया सितारा उभरा. 1983 में आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव की तेलुगू देशम ने उसे बुरी तरह पटखनी दी. 1985 के मुश्किल चुनावों से ऐन पहले इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. फिर उनके बेटे राजीव गांधी अंतरिम प्रधानमंत्री बने और सहानुभूति की लहर में कांग्रेस को संसद में भारी बहुमत मिला. उसने हर पांच में से चार सीटों पर जीत हासिल की. राजनैतिक विश्लेषकों को महसूस हुआ कि कांग्रेस को नेहरू के दौर वाली ताकत वापस मिल गई है.

लेकिन यह बुझते दिए की फड़फड़ाती लौ थी. कांग्रेस बीमार और हताश थी, बस अपना रूप बदल रही थी. सिर्फ पांच साल, यानी 1989 में कांग्रेस को दूसरी बार सबसे कम सीटें मिलीं. वह वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों के गठबंधन जिसमें जाति आधारित पार्टियां भी शामिल थीं, से मात खा गई.

अब क्षेत्रीय सच्चाइयां उभरने लगी थीं. एक के बाद कई राज्यों में कांग्रेस के गढ़ ढहने लगे, और क्षेत्रीय पार्टियों के तंबू तनने लगे. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, हरियाणा, गुजरात, बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना- जहां भी देखिए, कांग्रेस की राजनीतिक जमीन में क्षेत्रीय पार्टियों ने सेंध लगाई. कांग्रेस का वोट शेयर गिरा और वह सैकड़े से दहाई और कहीं कहीं इकाई पर पहुंच गई. यह बदनामी का सबब बना.

क्षेत्रीय पार्टियों का टोना-टोटका: क्या ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल इसे तोड़ पाएंगे

यह क्षेत्रीयकरण का बेकाबू होता दौर है. इस दौरान एक खास बात और उभरकर आई है. हर क्षेत्रीय पार्टी का फैलाव उसी राज्य की सरहद तक सिमटा हुआ है, जहां उसके मुखिया की रिहाइश है. मैं कई उदाहरणों से इस राजनैतिक सूत्र को साबित कर सकता हूं. देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी, बादल परिवार के शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब के सिखों को अपने गिरफ्त में रखा हुआ है लेकिन पड़ोसी हरियाणा या दिल्ली में वह बेमायने है. लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल बिहार में प्रभावशाली है लेकिन झारखंड में वह नदारद है. इसी तरह मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड में अपने पैर नहीं जमा पाई. चंद्रबाबू नायडु की तेलुगू देशम की तूती आंध्र प्रदेश में जरूर बोलती थी लेकिन तेलंगाना के टूटने के बाद, वह वहां से गायब ही हो गई.

ऐसा क्यों होता है? ऐसा क्यों है कि कोई क्षेत्रीय पार्टी सिर्फ उसी राज्य की सीमा के भीतर सिमटी रहती है जहां उसका मुखिया बसा होता है? इसपर बहुत राजनैतिक विश्लेषण किया गया है और किया जा सकता है. लेकिन इस समय हमारा मकसद इसकी खोज करना नहीं है. हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल, जो इस टोने को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, क्या कामयाब होंगे? दोनों एक से लक्ष्य साधने की कोशिश में तमाम राजनैतिक पैंतरे अपना रहे हैं- राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की जगह को कब्जाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि 2024 में नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती बन सकें. क्या दोनों में से कोई भी सफल होगा? किसकी चाल किससे बेहतर होगी? जवाब के लिए आगे इसी जगह पर मिलें!!

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT