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एक जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) ने आधिकारिक तौर पर डिजिटल इंडिया (Digital India) को लॉन्च किया था. सरकार द्वारा भारत को सशक्त डिजिटल इकनॉमी बनाने के लिए शुरू किया गया यह महत्पूर्ण कार्यक्रम काफी महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ दुस्साहसी भी था. जब यह कार्यक्रम शुरु हुआ था तब देश की महज 19 फीसदी आबादी की पहुंच इंटरनेट तक थी, वहीं केवल 15 फीसदी लोगों के पास मोबाइल का एक्सेस था. लेकिन इस कार्यक्रम की वजह से दुनिया के लोगों में भारत की छवि को लेकर एक स्पष्ट बदलाव देखा गया. देश जिस दिशा में जा रहा था उसको लेकर काफी उम्मीदें थीं, क्योंकि इससे कुछ वर्षों पहले तक देश की आर्थिक अनिश्चितता गहरा रही थी.
भारत में डिजिटल इंडिया के अब तक के 6 वर्षों के सफर में रुकावटों का भी दौर देखा गया है. आधार की संवैधानिकता पर सवाल उठाने को लेकर कई याचिकाओं (जो अंतत: असफल रहीं) से लेकर सरकारी कार्यक्रमों तक पहुंच रखने वाली बायोमीट्रिक आईडी तक और कोविड रिस्पॉन्स के लिए सरकार की डिजिटल रीढ़ माने वाले कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग एप आरोग्य सेतु में डाटा सिक्योरिटी को लेकर स्पष्ट तौर पर खामी देखी गई. अब तक के सफर को देखने पर हम पाते हैं कि तमाम बाधाओं को दूर करने के लिए “डिजिटल” को जादू की छड़ी के तौर पर देखा जाता है. वो भी तब जब राज्य और इनकी खुद की धीमी गति से काम करने वाली ब्यूरोक्रेसी अक्सर इसकी खुद की सबसे बड़ी दुश्मन होती है.
डिजिटल इंडिया की संकल्पना इसलिए की गई ताकि कनेक्टिविटी, स्किलिंग और डिजिटल गवर्नेंस की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को समग्र रुप से मजबूती के साथ किया जा सके. डिजिटल इंडिया के लिए जरूरी कार्यक्रमों जैसे नेशनल ई-गवर्नेंस प्लान (2006), नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (2011) और यूआईडी (2009) को नया रूप दिया गया और उन्हें फिर से लेबल किया गया. डिजिटल इंडिया कार्यक्रम और इससे जुड़े प्रयासों के लिए वर्ष 2015-16 के बजट में प्रारंभिक तौर पर 2510 करोड़ रुपयों का आवंटन किया गया था.
इसने एक ब्रांड भी बनाया जो प्रधानमंत्री के “जन-जन मोदी, घर-घर मोदी” और उनकी आकांक्षा तथा समावेशी परिवर्तन को प्रतिबिंबित करता है. ये बात प्रधानमंत्री द्वारा 2014 में दिए गए स्वतंत्रता दिवस के भाषण में दिखती है. जो इस प्रकार है-
हम सबका एक सपना है “डिजिटल इंडिया”...यह गरीबों के लिए है न कि केवल उच्च या संभ्रांत लोगों के लिए. हम देश के दूरदराज के गांवों में भी प्रत्येक बच्चे तक बेहतर शिक्षा पहुंचाने की इच्छा रखते हैं. हमारा लक्ष्य है कि देश का प्रत्येक नागरिक अपने फोन से बैंक खाता चलाने, सरकार से जुड़ने, दिन-प्रतिदिन की जरुरतों को पूरा करने और चलते-फिरते व्यवसाय करने के मामले में सक्षम हो जाए. इसके लिए हमें डिजिटल इंडिया की ओर यात्रा शुरू करनी होगी.
यह कहना कि इस कार्यक्रम का दायरा चुनौतीभरा था, यह उसे कम आंकने जैसा होगा. इस कार्यक्रम की चुनौती भारत की आबादी से जुड़कर उनके जीवन को बेहतर बनाना, डिजिटल अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लिए जरूरी कौशल प्रदान करना, सरकार के साथ नागरिकों की होने वाली बातचीत के तरीके को बदलने के साथ-साथ सरकारी सेवाओं की पहुंच या उसकी उपलब्धता में सुधार करना था.
हां, डिजिटल इंडिया के तहत शुरू की गई पहल में अक्सर कार्यान्वयन के मामले में समस्या रही है. कभी कानूनी समर्थन तो कभी नीतियों में कमी के कारण इसमें कमी देखी गई. वहीं अक्सर इसमें खराब प्लानिंग और दूरदर्शिता की समस्या भी रही है.
पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल यानी व्यक्तिगत डाटा संरक्षण विधेयक विवादों से घिर गया. इसके अलावा हमारे पास न को राष्ट्रीय इंक्रिप्शन (national encryption policy) है और न ही कोई साइबर सुरक्षा के मजबूत उपाय हैं. आधार डेटाबेस में कई बार सेंध लगाई गई है. वहीं अगर भीम और इंडेन के मामलों पर नजर डालें तो यूजर्स का डेटा लीक हुआ. यहां भी यह देखने को मिला कि जनता का डाटा सिक्योर नहीं है. इससे लोगों के भरोसे को नुकसान पहुंचता है और डिजिटल इंडिया के प्रोजेक्ट्स की सुरक्षा और उसकी अखंडता पर सवाल उठते हैं.
भारत नेट, पहले इसे नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क के तौर पर जाना जाता था. इसकी स्थापना 2011 में 25 लाख ग्राम पंचायतों को जोड़ने के लक्ष्य के साथ की गई थी. लेकिन इस प्रोजक्ट की समयसीमा 2013 तक तय की गयी थी जो अव्यवहारिक थी, इस वजह से यह पूरा नहीं हो सका. इसके बाद 2014 में इसे नए ब्रांड “भारत नेट” के नाम से शुरु गया और तीन चरणों में इसको लागू करने की समयसीमा तय की गई.
भारत नेट भी लगातार देरी का सामना कर रहा है और इसके पहले चरण के बुनियादी ढांचे में भी गिरावट देखी जा रही है. आईटी पर बनायी गई स्थायी समिति की 2020 की एक रिपोर्ट में अंतिम उपयोगकर्ताओं तक वास्तव में इंटरनेट सेवाएं प्रदान करने के उपायों के अभावों को लेकर चिंता व्यक्त की गई है. इसके साथ ही रिपोर्ट में अंतिम व्यक्ति तक इंटरनेट पहुंचाने की समयसीमा, जो 2017 निर्धारित गई थी. उसकी रणनीति की स्पष्ट चूक को दर्शाया गया है.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि टेंडर जारी करने में नौकरशाही की तरफ से देरी की गई. इसमें काम करने वाली एजेंसी और सार्वजनिक निकायों जैसे नेशनल हाइवे अथॉरिटी जो कि सड़क और केबल की नालियों जैसे जरूरी ढांचे पर नियंत्रण रखती है, के बीच अनुमतियों के अधिकार को लेकर देरी हुई है.
राज्यों के बीच भी गंभीर असमानताएं हैं. पूर्वोत्तर के राज्यों में स्थितियां और ज्यादा खराब हैं. इसकी प्रमुख वजहें यहां की चुनौतीपूर्ण भौगोलिक स्थिति, बारिश और बाढ़ आदि हैं. इन्हें इस कार्यक्रम में आकस्मिक योजना का हिस्सा होना चाहिए था. वह भी तब जब यहां की भौगोलिक स्थिति और मौसम की वर्गीकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है.
डिजिटल इंडिया की अब तक की चुनौतीपूर्ण यात्रा से सबसे बड़ा सबक यही मिलता है कि हर चीज के आगे “ई-” (e-) लगा देने मात्र से समस्या का हल नहीं हो जाता है. यह प्रोग्राम और इसके तहत की गई पहल यह भी प्रदर्शित करती है कि कैसे टेक्नोलॉजी बहिष्कार और शक्ति का मुखौटा बन सकती है.
आधार को इसलिए बनाया गया था ताकि सरकारी सेवाओं तक लोगों की पहुंच को बेहतर बनाया जा सके, लेकिन हकीकत इसके विपरीत दिख रही है. ऐसा पहचान पत्र जोकि सब्सिडी प्राप्त करने के लिए, बैंक अकाउंट खोलने के लिए, कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने के लिए जरुरी है, वह नागरिकों को जिनमें से अधिकतर गरीब हैं, हाशिए पर खड़े हैं और उत्पीड़ित हैं उन्हें गोपनीयता और पहुंच के बीच चुनाव करने के लिए मजबूर कर रहा है.
इसके बावजूद भी डिजिटल इंडिया ब्रांड लोगों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है. क्योंकि यह देश के करोड़ों युवाओं, तकनीशियनों और उद्यमियों की आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है, जो वास्तव में डिजिटलाइजेशन के परिवर्तनकारी प्रभावों पर विश्वास रखते हैं. इसके साथ ही देश की 200 बिलियन डॉलर वाली डिजिटल इकनॉमी भी दुनिया के बड़े हिस्से में अपनी खास पहुंच बनाती है. नई क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी की अदला-बदली और जुगलबंदी अब इसका एक हिस्सा बन चुके हैं. अब जबकि एक बार फिर भारत एक घातक बीमारी की पकड़ से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है. वैसे में इसकी डिजिटल ग्रोथ तमाम खूबियों और खामियों साथ वैश्विक मंच पर अपनी भूमिका दर्शाती रहेगी.
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Published: 01 Jul 2021,11:34 AM IST