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मैडम प्रेसिडेंट और जेलों में ठूसे आदिवासियों को अधिकार दिलाने की कठिन राह

राष्ट्रपति Droupadi Murmu के सामने अदिवासियों के अधिकारों की रक्षा और न्याय सुनिश्चित करने की एक मुश्किल चुनौती होगी

सुधा भारद्वाज
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>मैडम प्रेसिडेंट Droupadi Murmu और जेलों में ठूसे आदिवासियों को अधिकार दिलाने की कठिन राह</p></div>
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मैडम प्रेसिडेंट Droupadi Murmu और जेलों में ठूसे आदिवासियों को अधिकार दिलाने की कठिन राह

(फोटो- Quint)

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आजादी के 75 साल गुजरने के बाद भी आदिवासियों को अपराधी बनाने की प्रक्रिया जारी है. पिछले कुछ हफ्तों में कई घटनाएं हुई हैं जो आने वाले समय में हमारे देश की आदिवासी जनता के ऊपर गहरा प्रभाव डालेंगी. सबसे पहले, आज अपने देश के सर्वोच्चच पद यानी भारत के राष्ट्रपति पद पर ओडिशा के मयूरभंज जिले की एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) बैठ गयीं हैं. झारखंड की राज्यपाल के तौर पर साल 2017 में, द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी से जुड़े सवालों पर अपनी सहानुभूति दिखाई थी.

उन्होंने रघुबर दास की बीजेपी सरकार द्वारा पारित छोटा नागपुर किरायेदारी अधिनियम और संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम में संशोधन से आदिवासियों पर पड़ने वाले असर की बात कहकर इसे राज्य विधानमंडल में पुनर्विचार करने के लिए भेज दिया था. इससे राज्य में आदिवासियों के मसले पर पर आंदोलन और चिंता के बारे में पता चलता है.

  • पिछले कुछ हफ्तों में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं, जिनका हमारे देश के आदिवासी लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा.

  • भारत के राष्ट्रपति पद पर अब ओडिशा के मयूरभंज जिले की एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू रहेंगी.

  • सुर्खियों में आने वाली दूसरी कहानी विशेष अदालत से 121 आदिवासियों को बरी किए जाने की थी.

  • मुर्मू की पहली चुनौती तब हो सकती है जब संशोधित वन मंजूरी नियम, 2022 को मानसून सत्र में रखा जाएगा.

  • द्रौपदी मुर्मू के सामने आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने और आदिवासी लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित कराने की एक कठिन चुनौती होगी.

एक भारतीय राष्ट्रपति की बात दूसरे के लिए सन्देश

एक राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू को और भी बड़ी चुनौतियों और ज्यादा अपेक्षाओं का सामना करना पड़ेगा. शायद वो एक और शानदार और देश के पहले दलित राष्ट्रपति केआर. नारायणन की कही बातों को गौर कर सकती हैं जो उन्होंने दो दशक पहले साल 2001 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कही थी:

“वन क्षेत्रों में हो रहे खनन से कई जनजातियों की आजीविका और अस्तित्व को खतरा है. प्रबुद्ध विकास नीतियों के माध्यम से ही हम विकास की ऐसी दुविधाओं का समाधान कर सकते हैं. हमारे व्यापक आदिवासी क्षेत्रों में विकासात्मक परियोजनाओं की सफलता के लिए एक पूर्व शर्त यह है कि हमें आदिवासियों और उनके प्रतिनिधियों को विश्वास में लेना चाहिए, उन्हें परियोजनाओं के लाभों के बारे में समझाना चाहिए. उनकी आजीविका और उनकी आजीविका की सुरक्षा के संबंध में उनसे सलाह लेनी चाहिए. जब उन्हें विस्थापित करना हो तो उनके साथ पुनर्वास योजनाओं पर चर्चा की जानी चाहिए और उन्हें गंभीरता से लागू किया जाना चाहिए. इससे कई गंभीर परिस्थितियों से बचा जा सकता है और हम आदिवासियों को अपने साथ जोड़ पाएंगे."

"हमारे पास ऐसे कानून हैं जो आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों, निजी निकायों और निगमों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों के जरिए इन प्रावधानों को बरकरार रखा है. हम अपने संविधान में निहित सामाजिक प्रतिबद्धताओं की अनदेखी नहीं कर सकते. पूर्वी भारत में, बॉक्साइट और लौह अयस्क जैसे खनिजों के दोहन से जंगलों और पानी के स्रोतों का विनाश हो रहा है. जबकि राष्ट्र को इन खनिज संसाधनों से फायदा होना चाहिए, हमें पर्यावरण संरक्षण और आदिवासियों के अधिकारों के सवालों पर भी विचार करना होगा."
केआर. नारायणन, राष्ट्रपति (2001)

"चलिए कुछ ऐसा करें कि आने वाली पीढि़यां यह न कहे कि भारतीय गणतंत्र हरी-भरी धरती और सदियों से वहां रहने वाले निर्दोष आदिवासियों के विनाश पर बना है."

द्रौपदी मुर्मू की पहली चुनौती- खनन परियोजना के खिलाफ खड़े  जनजातीय ग्रामवासी

वास्तव में द्रौपदी मुर्मू के सामने उनकी पहली चुनौती बहुत जल्द आ सकती है. संशोधित वन मंजूरी नियम, 2022 संसद के मानसून सत्र में रखा जाता है तो यह उनका पहली परीक्षा होगी. बिल ने न केवल वन मंजूरी देने से पहले आदिवासियों के वन अधिकारों को मान्यता देने के प्रावधानों को कमजोर किया है, बल्कि ग्राम सभा की सहमति की अनिवार्यता को भी हटा दिया है.

इन संशोधनों का हालांकि पहले की घटनाओं पर असर नहीं होगा लेकिन ये ऐसे समय में हो रहे हैं जब छत्तीसगढ़ में हंसदेव अरंड वन के "नो-गो एरिया" में, राजस्थान राज्य विद्युत निगम के लिए अडानी के खनन के खिलाफ आदिवासी ग्रामीणों का एक दशक से पुराना और लंबा विरोध अपने चरम पर पहुंच रहा है.

आंदोलन ने पूरे छत्तीसगढ़ में और वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक एकजुटता हासिल की है. इसने छत्तीसगढ़ सरकार को मई 2022 में परसा पूर्वी केटे बसन कोयला खदान में खनन के दूसरे चरण के लिए पेड़ों की कटाई को रोकने के आदेश जारी करने के लिए मजबूर किया .

इससे पहले अक्टूबर 2021 में, छत्तीसगढ़ की आदिवासी राज्यपाल अनुसूया उइके ने छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग के ग्राम फतेहपुर से राजधानी रायपुर तक 300 किलोमीटर लंबी पदयात्रा करने वाले सैकड़ों आदिवासी ग्रामीणों को भरोसा दिया था कि वो राज्य के मुख्यमंत्री, केंद्रीय कोयला और खनन मंत्री और प्रधानमंत्री के साथ, बिना ग्राम सभा की मंजूरी, और खनन के लिए नकली ग्राम सभा से प्रस्ताव पास कराने के मुद्दे पर चर्चा करेंगी.

5 साल जेल के बाद 121 आदिवासियों की रिहाई

सुर्खियों में आने वाली दूसरी खबर 15 जुलाई 2022 को विशेष न्यायालय (NIA/ अनुसूचित अपराध), राजस्व जिला सुकमा और बीजापुर, दक्षिण दंतेवाड़ा, बस्तर से 121 आदिवासियों की रिहाई से जुड़ी है. उन्हें लगभग 5 साल की कैद के बाद रिहा किया गया. उन्हें सुकमा जिले के चिंतागुफा पुलिस थाना के बुर्कापाल में सुरक्षा बलों पर हमला करने और 25 जवानों की हत्या करने के आरोप में पकड़ा गया था. दरअसल, जजों के पास कोई सबूत नहीं रहने से रिहाई के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था.

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हालांकि यह सुनकर कई लोगों को आश्चर्य हो सकता है लेकिन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आदिवासी लोगों की जिंदगी के बारे में जानने वालों को मालूम है कि ये अपवाद नहीं बहुत सामान्य बात है.

जब भी माओवादी हिंसा की कोई घटना होती है तो कई सौ अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जाती है. और अगली बार जब सैकड़ों सुरक्षा बलों संबंधित क्षेत्र में 'सर्च एंड कॉर्डन ऑपरेशन' करते हैं, तो आमतौर पर लोगों को बिना फर्क किए घेर लिया जाता है और FIR के तहत गिरफ्तारी कर ली जाती है.

हमारी अपनी समझ हमें बताती है कि इस तरह से गिरफ्तार किए गए लोगों के माओवादी होने की आशंका नहीं है, बल्कि अक्सर गिरफ्तार वो कमजोर और असहाय लोग होते हैं जो ऐसी तलाशी अभियान की खबर पर जंगल भाग नहीं पाते हैं.

चूंकि प्राथमिकी आमतौर पर बहुत गंभीर अपराधों के तहत दर्ज की जाती है - जैसा कि इस मामले में, गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA), छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, शस्त्र अधिनियम, विस्फोटक अधिनियम, और भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप लगाए जाते हैं , इसलिए जमानत का सवाल ही नहीं उठता.

आदिवासी छूटते हैं लेकिन किस कीमत पर ?

इस मामले में आदिवासी भाग्यशाली थे कि उनके पास एडवोकेट बीचम पोंडी, पी भीमा और बेला भाटिया जैसे वकील थे. अन्यथा उन्हें आम तौर पर हमारी त्रुटिपूर्ण और गैर-जवाबदेह कानूनी सहायता प्रणाली की दया पर छोड़ दिया जाता है. सभी गवाह आमतौर पर पुलिसकर्मी, सुरक्षा बल के जवान या विशेष पुलिस अधिकारी (आदिवासी युवा जो अक्सर आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों के रैंक से आते हैं) होते हैं. वे शायद ही कभी समन का तुरंत जवाब देते हैं, ‘ट्रायल में असामान्य रूप से देरी करते हैं.

आखिर वो किसी तरह से बरी तो होते हैं, लेकिन किस कीमत पर ? सुकमा में स्थानीय मीडियाकर्मियों से बात करते हुए, हाल ही में रिहा हुए आदिवासियों ने जेल में रहने के दौरान अपनों के खोने का दर्द बयां किया. आरोपियों में से एक मुरिया आदिवासी- डोडी मंगलु पुत्र स्वर्गीय बक्का, उम्र 42 वर्ष निवासी पटेलपारा, पीएस जगरगुंडा, जिला सुकमा-को रिहा नहीं किया जा सका, उनकी 02 अक्टूबर 2021 को न्यायिक हिरासत में मृत्यु हो गई थी.

जगदलपुर लीगल एड ग्रुप, वकीलों के एक समूह, जिन्होंने 2013 से लगभग पांच साल तक बस्तर में काम किया और शोध किया. उन्होंने 2005 से 2012 तक दंतेवाड़ा सत्र न्यायालय में अदालती रिकॉर्ड का विश्लेषण किया. उन्होंने पाया कि बरी होने की दर औसतन 91.5% से 98.7% के बीच है. वहीं बस्तर में तो औसतन दर 95.7% है.

अगर एक केस में आरोपियों की औसत संख्या निकाले तो यह लगभग प्रति मामले में सात (6.97) थी. हालांकि एक मामले में आरोपियों की संख्या वर्षों से लगातार बढ़ रही है . एक या दो आरोपियों वाले केसों की संख्या साल 2005 में 50 फीसदी थी जबकि वो 2012 में घटकर 30 फीसदी हो गई. वहीं वो केस जहां 10 या उससे ज्यादा आरोपी थे उनकी संख्या बढ़ती गई. भैरामगढ पुलिस थाने में दो मामले थे और जब ये सर्वे किया गया तो इनमें 96 और 97 आरोपी बनाए गए थे.

बस्तर की जेल "नक्सलियों" से भरी हुई है

बस्तर में बरी होने की दर

(ग्राफ सौजन्य: स्वदेशी पीपुल्स राइट्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित  “Criminalisation of Adivasis and the Indian Legal System”)

JagLAG ने पाया कि साल 2013 में बस्तर की जेलों में छत्तीसगढ़ या भारत के औसत से ज्यादा कैदी भरे हुए थे. जहां जगदलपुर सेंट्रल जेल में देश के राष्ट्रीय औसत 118.5% की तुलना में 227% ज्यादा कैदी थे वहीं कांकेर जेल में यह 428% था. जबकि जगदलपुर सेंट्रल जेल में 62% विचाराधीन कैदी थे, कांकेर जिला जेल में 97.5% और दंतेवाड़ा जिला जेल में 99.5% विचाराधीन कैदी थे. JagLAG ने यह भी पाया कि पूरे भारत में, विचाराधीन कैदियों का सबसे बड़ा हिस्सा औसतन एक वर्ष से कम जेल में बिताता है जबकि दंतेवाड़ा और जगदलपुर जेलों में आधे से अधिक विचाराधीन कैदियों ने सुनवाई पूरी होने के इंतजार में 1-5 साल जेल में खपाए.

इसका कारण यह था कि अदालतें इन कैदियों को जमानत नहीं दे रही थीं (जो आमतौर पर "नक्सल मामलों" में "गंभीर आरोपों" के साथ होंगे) या मामलों को निपटाने में अधिक समय ले रही थीं. दुर्भाग्य से, जगदलपुर कानूनी सहायता समूह को चारों तरफ से परेशान किया गया और उन्हें बस्तर से बाहर धकेल दिया गया और आखिर में ग्रुप ही खत्म हो गया.

आदिवासियों के अधिकार के लिए मुर्मू के सामने कठिन डगर

लेकिन अब तक की सबसे डरावनी घटना हिमांशु कुमार & अन्य बनाम छतीसगढ़ केस में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है. 14.07.2022 को आए इस फैसले में न केवल याचिकाकर्ता नंबर 1 पर जुर्माना लगाया गया है, बल्कि छत्तीसगढ़ राज्य / सीबीआई को स्पष्ट रूप से उन पर झूठी गवाही और आपराधिक साजिश का मामला चलाने की इजाजत दे दी गई.

ऐसा लगता है कि अदालत ये मानती है कि हिमांशु कुमार और अन्य राज्य के खिलाफ अपना आरोप साबित नहीं कर पाए हैं. इस याचिका में, हिमांशु कुमार और 7 मृत आदिवासियों के परिवार के सदस्यों ने 1 अक्टूबर 2009 की घटनाओं की जांच के लिए एक विशेष जांच दल गठित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. घटना दंतेवाड़ा जिले के ग्राम गोम्पाड में हुई थी. इस दौरान इन आदिवासियों को मार दिया गया था.

अभी हाल में, 2019 में वीके अग्रवाल न्यायिक जांच आयोग ने साल 2012 में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सरकेगुडा गांव में 7 नाबालिगों सहित 17 ग्रामीणों की हत्या के लिए सुरक्षा बलों को दोषी ठहराया . बेशक, अब तक कोई कार्रवाई संबंधित अधिकारियों के खिलाफ नहीं की गई है.

ऐसी स्थिति में जहां आम आदिवासियों को बहुत आसानी से कैद किया जा सकता है या यहां तक कि माओवादी बताकर मार गिराया जा सकता है , वहां पर न्याय के लिए कठिन लड़ाई में सर्वोच्च अदालत जाने के लिए भी बहुत सावधान रहने की बात करना ही बहुत कुछ बता देता है. द्रौपदी मुर्मू के सामने बहुत कठिन चुनौती होगी अगर वो आदिवासी अधिकारों और न्याय को बचाना चाहती हैं.

(लेखिका एक वकील और अधिकार कार्यकर्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)

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Published: 24 Jul 2022,07:15 PM IST

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