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ED-CBI जैसी एजेंसियों के राजनीतिक इस्तेमाल के खिलाफ क्यों एकजुट नहीं हो पा रहा विपक्ष?

विपक्षी नेता जब मौजूदा सरकार से मिल जाते हैं तो उनके खिलाफ चमत्कारिक रूप से भ्रष्टाचार के आरोप और जांच बंद हो जाती है.

सुतानु गुरु
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल.</p></div>
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हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल.

(फोटो: विभूषिता सिंह/द क्विंट)

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जब विपक्षी नेताओं के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ED) की हालिया कार्रवाइयों की बात आती है तो भ्रामक और मजेदार, दोनों तरह की राय सामने आती हैं.

पहली- मौजूदा सरकार के कट्टर समर्थकों का कहना है कि जब ED अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और हेमंत सोरेन (Hemant Soren) जैसे मुख्यमंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करती है, तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष होती है.

दूसरी- आम आदमी पार्टी के कट्टर समर्थकों का कहना है कि ED केजरीवाल के पीछे पड़ी है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी बढ़ती लोकप्रियता से डरते हैं. असल पहेली इन दो हास्यास्पद स्थितियों के बीच है.

विपक्षी दल और नेता ED (प्रवर्तन निदेशालय), CBI (केंद्रीय जांच ब्यूरो) और IT (आयकर) विभाग जैसी संस्थाओं की जाहिर तौर पर दिखने वाली ज्यादतियों के खिलाफ जनता को आंदोलित करने में नाकाम क्यों हो रहे हैं?

यह बात पूरी तरह साफ है, पूरे भारत में कई सर्वे, जिनमें CVoter द्वारा किए गए सर्वे भी शामिल हैं, दिखाते हैं कि भारतीयों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि मौजूदा सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए ED और दूसरी एजेंसियों का इस्तेमाल किया जा रहा है. फिर भी, लोग इन कार्रवाइयों के खिलाफ न तो बाहरी तौर पर और न ही अंदरूनी तौर पर आक्रोश दिखा रहे हैं.

कोई भी तटस्थ ऑब्जर्वर जांच एजेंसियों के राजनीतिक इस्तेमाल से इनकार नहीं कर सकता

हकीकत क्या है? हाल ही में, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक बार फिर ED के सामने पेश होने से इनकार कर दिया, जबकि एजेंसी ने उन्हें इसके लिए एक “आखिरी मौका” दिया था. अटकलें लगाई जा रही हैं कि ED उन्हें कथित भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में जल्द गिरफ्तार कर सकती है. इसी तरह, AAP सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने तथाकथित दिल्ली शराब घोटाले से जुड़े सवालों का जवाब देने के लिए तीसरे समन के बावजूद ED के सामने पेश होने से इनकार कर दिया है. इसी मामले में AAP के शीर्ष नेता मनीष सिसोदिया और संजय सिंह जेल में हैं. दिल्ली के सीएम ने समन को “गैरकानूनी” करार दिया है.

ये दोनों मामले हाल के दिनों में चर्चा में हैं, वहीं एक अन्य विपक्षी नेता, टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी के भतीजे और उत्तराधिकारी अभिजीत बनर्जी लंबे समय से ED के साथ उलझे हुए हैं. कई और विपक्षी नेता ED और दूसरी एजेंसियों के निशाने पर हैं. ज्यादातर पर भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप हैं.

इसके साथ ही एक और हकीकत है. जब विपक्षी नेता मौजूदा सरकार के साथ हाथ मिला लेते हैं तो वे चमत्कारिक रूप से भ्रष्टाचार के आरोपों और ED जांच से बच जाते हैं. तीन सबसे बड़े उदाहरण महाराष्ट्र से हैं: अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल. भुजबल ने तो भ्रष्टाचार के आरोप में काफी समय जेल में भी बिताया है. इन तीनों को एजेंसियों की जांच का सामना करना पड़ा, और सत्तारूढ़ सरकार के साथ गठबंधन करने के बाद जांच को लटका दिया गया.
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इसके अलावा BJD और YSR कांग्रेस जैसे “कभी दोस्त-कभी दुश्मन” दल भी हैं. राजनीतिक युद्ध के मैदान में वे BJP का जमकर विरोध करते हैं. फिर भी, जब राज्यसभा में कई विवादास्पद विधेयकों के पारित होने की बात आई, तो उन्होंने पक्ष में मतदान करके या गैरहाजिर रहकर सरकार को राहत दिलाई है. पता नहीं क्यों ED और दूसरी एजेंसियों को BJD या YSR कांग्रेस का कोई भी शीर्ष नेता जांच के लायक नहीं मिला.

लेखक एजेंसियों की कार्रवाइयों का समर्थन करने के लिए BJP समर्थकों को दोषी नहीं मानते हैं. कोई भी तटस्थ ऑब्जर्वर इस हकीकत से इनकार नहीं कर सकता कि जांच एजेंसियों को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है. सच्चाई यह है कि पिछली सरकारों ने भी अपने विरोधियों को निशाना बनाने के लिए एजेंसियों को हथियार बनाया है. इसलिए नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचक थोड़े एकतरफा लगते हैं जब वे दावा करते हैं कि उन्होंने ED, CBI और IT का राजनीतिक हथियार के तौर पर “आविष्कार” किया है.

तो, भारत के लोगों को गुस्सा क्यों नहीं आता है?

हैरान करने वाला सवाल यह है: जैसा कि पहले बताया गया है, जांच एजेंसियों द्वारा विपक्षी नेताओं को निशाना बनाए जाने से आम भारतीय फिक्रमंद और नाराज क्यों नहीं है? अगर सचमुच गुस्सा होता, तो यह CVoter और CSDS जैसे संगठनों की तरफ से किए जाने वाले नियमित सर्वे, सड़कों पर और जमीनी रिपोर्टों में नजर आता. वह गुस्सा नदारद है.

लेखक के विचार में इसकी दो वजहें हैं. पहला, नरेंद्र मोदी में भारतीयों को यह यकीन दिलाने की जबरदस्त काबिलियत है कि वह भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, खासकर “परिवारवादी” पार्टियों के नेताओं द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार को. लेखक नहीं जानते कि मोदी इस “मिशन” के लिए कितनी गहराई से प्रतिबद्ध हैं, लेकिन जनता के बीच परसेप्शन यह है कि वह सचमुच ऐसा कर रहे हैं. और राजनीति में परसेप्शन बाकी सभी चीजों पर हावी होती है.

एक दूसरी और भी खास वजह है. यह सोशल मीडिया का युग है. निश्चित रूप से, यह माध्यम गलत सूचनाओं और भ्रामक प्रचार से भरा है. लेकिन भारतीयों के पास अब जानकारी पहुंच रही है, जिसकी वे पुष्टि भी कर सकते हैं. वे जानते हैं कि लालू प्रसाद यादव एक सजायाफ्ता अपराधी हैं. वे जानते हैं कि ओम प्रकाश चौटाला एक सजायाफ्ता अपराधी हैं. भ्रष्टाचार के दोनों दोषी पूर्व मुख्यमंत्री हैं. झारखंड में मधु कोड़ा भ्रष्टाचार के दोषी एक और पूर्व मुख्यमंत्री हैं. दिवंगत जे. जयललिता को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया गया था. यह लिस्ट लंबी है और दिन-ब-दिन लंबी होती जा रही है.

साथ ही “विपक्षी” नेताओं के ठिकानों से टनों नकदी पाए जाने का नजारा भी है. हाल ही में, भारतीयों ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद धीरज साहू के परिसर से 350 करोड़ रुपये से अधिक की रकम मिलने और गिने जाने का तमाशा देखा. छापे में TMC के वरिष्ठ नेताओं के ठिकानों से करोड़ों की नकदी भी मिली है. एक बार फिर, यह सूची लंबी है और लाखों भारतीय वाट्सएप फॉरवर्ड मैसेजे में यह सभी देखते हैं.

इस सबसे बढ़कर, बड़ी संख्या में भारतीयों को यह एहसास है कि अदालतें अक्सर गिरफ्तार किए गए विपक्षी नेताओं को जमानत देने से इनकार कर रही हैं. इसका बड़ा उदाहरण दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री और शीर्ष AAP नेता मनीष सिसोदिया हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी जमानत देने से इनकार कर दिया है. एक वर्ग सोचता है कि यह सब इसलिए है क्योंकि सत्तारूढ़ दल ने न्यायपालिका को काबू में कर लिया है और उसे अधीन बना दिया है. हालांकि ज्यादातर भारतीय सोचते हैं कि ऐसा कहना बकवास है.

क्या इस असमंजस से निकलने का कोई रास्ता है? लेखक बहुत आशावादी नहीं हैं. राजनीति का इतना ध्रुवीकरण हो चुका है कि सुलह से बात कहना-सुनना और ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है. और भारत ऐसा एकमात्र लोकतंत्र नहीं है जो ऐसे हालात का सामना कर रहा है. बहुत से अमेरिकी अभी भी भारत को “कानून की उचित प्रक्रिया” के बारे में नसीहत देना पसंद करते हैं. बदसूरत सच्चाई यह है कि अब इस बात के काफी भरोसेमंद सबूत हैं कि राजनीतिक और सांस्कृतिक लड़ाइयां लड़ने के लिए प्रतिष्ठित FBI को भी राजनीतिक हथियार बना लिया गया है. हिंदी की वह कहावत याद आती है, हमाम में सभी...

(सुतानु गुरु CVoter फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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