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2017-18 में वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली (Arun Jaitley) इलेक्टोरल बॉन्ड योजना (Electoral Bonds Scheme) को लेकर काफी उत्साहित थे. असल में उनका मानना था कि भारत में राजनीतिक फंडिंग के पैमाने को बढ़ाने के लिए चुनावी बॉन्ड सबसे व्यावहारिक समाधान है.
वह इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि सत्तारूढ़ दल सहित कोई भी, बान्ड खरीदारों को उन राजनीतिक दलों से जोड़ने में सक्षम नहीं होना चाहिए जिन्हें उन्होंने दान दिया था. अपने फैसले में वो बिल्कुल आलोचनात्मक थे कि कंपनियों और व्यक्तियों को राजनीतिक फंडिंग के लिए अपनी पॉकेट से पैसे देने के लिए प्रोत्साहित करना है.
21 मार्च को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) द्वारा जारी आंकड़ों ने सुरक्षा उद्देश्यों के लिए बॉन्ड में अदृश्य और व्यवस्थित रूप से गैर-मौजूद अल्फान्यूमेरिक कोड का खुलासा करके बॉन्ड की महत्वपूर्ण गैर-लिंकिंग डिजाइन सुविधा को खत्म कर दिया.
सरकार, जो चुनावी बॉन्ड लेकर आई थी, दिलचस्प बात यह है कि वह चुनावी बॉन्ड का बचाव करने में काफी निष्क्रिय रही है, हालांकि गृह मंत्री अमित शाह ने इस बात पर अफसोस जताया कि चुनावी फंडिंग के क्षेत्र में काला धन वापस आ सकता है.
सरकार ने चुनावी बॉन्ड स्कीम की सुरक्षा क्यों नहीं की? सरकार ने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि इसकी महत्वपूर्ण डिजाइन विशेषता असंवैधानिक घोषित होने से पहले, कम से कम इस योजना के तहत खरीदे और दान किए गए बांडों के लिए बरकरार रहे? क्या सरकार ने योजना पर भरोसा करने वाले दानदाताओं को निराश किया?
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की घोषणा 1 फरवरी 2017 को 2017-18 के बजट में की गई थी. इस योजना को बनाने के लिए फाइनेंस बिल, 2017 ने कंपनी एक्ट, इनकम टैक्स एक्ट, आरबीआई (भारतीय रिजर्व बैंक) एक्ट और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में विस्तृत बदलाव किए. संसद ने काफी चर्चा के बाद चुनावी बॉन्ड के लिए कानूनी आधार तैयार करने के लिए वित्त विधेयक पारित किया.
काफी कोशिशों और समझाने-बुझाने के बाद, आरबीआई और चुनाव आयोग को बोर्ड में लाया गया. तब जनवरी 2018 में चुनावी बॉन्ड हकीकत बन पाया. पहला बॉन्ड मार्च 2018 में बेचा गया. इस योजना को शुरू करने में एक साल से ज्यादा का समय लगा. आप चुनावी बॉन्ड के बनने की पीड़ा की पूरी कहानी मेरी पुस्तक वी आल्सो मेक पॉलिसी (We Also Make Policy) में पढ़ सकते हैं.
निस्संदेह, अरुण जेटली ने चुनावी बॉन्ड योजना की कल्पना, डिजाइन और नेतृत्व किया. सरकार ने भी इस योजना में काफी राजनीतिक और प्रशासनिक पूंजी निवेश की.
भारत में कई सालों से कंपनी एक्ट में पॉलिटिकल कॉन्ट्रीब्यूशन स्कीम पूरी तरह से पारदर्शी रही है. दुर्भाग्य से, इसका उपयोग शायद ही कभी किया गया हो. चुनावी बॉन्ड से पहले ज्यादातर राजनीतिक चंदा बेहिसाब और मुख्य रूप से गैर-पारदर्शी नकद मोड में दिए गए थे.
दुखद स्थिति इसलिए थी क्योंकि कॉर्पोरेशन और अमीर व्यक्तियों को यह बताने में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि उन्होंने किन राजनीतिक दलों को ऐसे कारणों से दान दिया, जो उचित भी हो सकते हैं और नहीं भी. इसलिए, सरकार ने इसे पूरा करने और चुनावी बॉन्ड को सफल बनाने के लिए राजनीतिक फंडिंग की मूल संरचना में तीन बड़े बदलाव लाए.
सबसे पहले, सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि चुनावी बॉन्ड में संभावित डोनर कि कोई पहचान संख्या (identification number) या पहचान बाहर आने का कोई और तरीका सामने नहीं आएगा, जिससे डोनर और राजनीतिक दल के बीच संबंध का कोई निशान बाकी रहे.
सरकार ने यह शर्त रखी कि चुनावी बॉन्ड में योगदान सिर्फ पूरी तरह से केवाईसी-सक्षम बैंक खातों से किया जाएगा, और बिना यह बताए कि उन्होंने किस पार्टी को दान दिया है कंपनी के खातों में पर्याप्त जानकारी दी जाएगी.
तीसरा, सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि राजनीतिक दलों को उनके केवाईसी-सक्षम बैंक खातों में बॉन्ड से मिले चंदे पहुंचे और सभी दान उनके पासबुक में दर्ज हों. बेशक, राजनीतिक दलों को यह खुलासा करने की आवश्यकता नहीं थी कि उन्हें बॉन्ड किससे मिले हैं.
इन प्रमुख विशेषताओं ने देश में राजनीतिक फंडिंग के लिए चुनावी बॉन्ड को एक गंभीर योगदानकर्ता बना दिया. राजनीतिक दलों को छह वर्षों में चुनावी बॉन्ड के जरिए 16,200 करोड़ रुपये से ज्यादा की फंडिंग मिली. फंडिंग का यह पैमाना राजनीतिक दलों को दूसरे सभी रास्तों से मिले कुल राशि से कई गुना अधिक था.
सरकार से उम्मीद की जा रही थी कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले और बाद में उसी जोश के साथ चुनावी बॉन्ड योजना का बचाव करेगी जैसा अरुण जेटली ने किया था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार उन कंपनियों और व्यक्तियों की सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं कर सकी, जो योजना द्वारा दी गई वैधानिक गारंटी पर भरोसा करते थे, यानी, उनके चंदे और राजनीतिक दलों के बीच के रिश्ते को कभी भी स्थापित नहीं किया जाएगा.
सरकार से इसे लागू करने में कई चूक हुई.
पहली बात, चुनावी बॉन्ड योजना में एक खामी थी, प्रत्येक बॉन्ड के मुख्य भाग के अंदर एक अदृश्य अल्फा-न्यूमेरिक कोड था. यह एसबीआई सहित किसी के लिए भी नहीं था, सिवाय इसके कि किसी भी संदिग्ध नकली बॉन्ड का पता लगाया जा सके. हालांकि, अब यह सबको पता चल गया है कि हर बॉन्ड में एक अल्फा-न्यूमेरिक कोड दर्ज था, और एसबीआई के पास खरीद और इन्कैश की सभी जानकारी थी.
दूसरा, सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को खरीदे और जमा किए गए हर चुनावी बॉन्ड के मूल्यवर्ग, तारीख और राशि से संबंधित डेटा का खुलासा करने का निर्देश दिया. अल्फा-न्यूमेरिक नंबर या कोई मैचिंग लिंक देने के लिए कोई खास निर्देश नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने जो डेटा मांगा था वह एसबीआई के पास आसानी से उपलब्ध है. इसका खुलासा एक दिन में हो सकता था.
इसके बजाय, एसबीआई ने 6 मार्च की समय सीमा से दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और 30 जून 2024 तक का समय मांगा. सरकार ने एसबीआई को यह याचिका दायर करने की अनुमति क्यों दी?
इसके अलावा, सरकार ने एसबीआई को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगे गए डाटा का खुलासा करने का निर्देश क्यों नहीं दिया? अगर उसे आपत्ति थी, तो उसने सुप्रीम कोर्ट से यह अनुरोध करने के लिए अपनी याचिका क्यों नहीं दायर की कि वह दी गई कानूनी गारंटी के तहत काम करने वाले डोनर के डाटा को बाहर लाने के निर्देश पर दबाव न डाले?
तीसरा, आर्टिकल में ऊपर बताई गई चुनावी बॉन्ड की तीनों खासियतें वह स्तंभ थे जिस पर यह योजना खड़ी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों को गैरकानूनी घोषित कर दिया.
अरुण जेटली जो इस योजना की खूबियों के प्रति आश्वस्त थे, वो योजना में लाए गए सुधारों को स्वीकार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को मनाने के लिए अपने सभी स्किल्स और समझ का इस्तेमाल करते, लेकिन वर्तमान सरकार ने इस योजना का बचाव करने की कोशिश भी नहीं की.
मौजूदा सरकार कम से कम इतना कर सकती थी कि चुनावी बॉन्ड के खरीदारों को पूर्वप्रभावी खुलासे से बचाती. सरकार अदालत में समीक्षा याचिका दायर कर सकती थी, राष्ट्रपति का संदर्भ दे सकती थी, या पिछले दान की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर अध्यादेश भी ला सकती थी.
अब क्या?
ऐसा नहीं लगता कि सरकार अब कुछ करेगी. ट्रेन पहले ही स्टेशन से निकल चुकी है.
चुनावी बॉन्ड गाथा पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है, अभी भी एक छोटा अध्याय बचा हुआ है. मार्च 2018 और 11 अप्रैल 2019 के बीच खरीदे और जमा किए गए बॉन्डों की अल्फा-न्यूमेरिक संख्या का एसबीआई द्वारा अभी भी खुलासा नहीं किया गया है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में 12 अप्रैल 2019 से शुरू होने वाली अवधि शामिल है.
सरकार एसबीआई को इस डाटा का खुलासा करने का भी निर्देश दे सकती है ताकि छह साल के कार्यकाल में जारी और जमा किए गए लगभग 16,200 करोड़ के सभी चुनावी बॉन्ड का डाटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जा सके.
(लेखक भारत के पूर्व आर्थिक मामलों के सचिव और वित्त सचिव हैं. यह एक ओपीनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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