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जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में दिखता है चार सदी पुराना गुस्सा

अमेरिकी जीवन पद्धति का ढिंढोरा पीटने वाले देश में ब्लैक लाइव्स कभी मायने नहीं रखती थीं

माशा
नजरिया
Published:
अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद देशभर में प्रदर्शन
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अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद देशभर में प्रदर्शन
(फोटो: PTI)

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1994 के अप्रैल महीने में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक चिट्ठी गई. इसे लिखने वाला था, नौ साल का नन्हा अफ्रीकी अमेरिकी लड़का जेम्स डार्बी. जेम्स न्यू ऑर्लिन्स में रहता था जहां अश्वेत लोगों के साथ नस्लीय हिंसा की बहुत वारदातें होती हैं. चिट्ठी कहती थी, मिस्टर क्लिंटन, मैं चाहता हूं कि आप शहर में हत्याओं को रोकें. लोग मर रहे हैं और मुझे लगता है कि एक दिन मुझे भी मार दिया जाएगा. मैं आपसे ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है आप ऐसा कर सकते हैं. यह इत्तेफाक ही था कि इसके अगले महीने शहर के एक पार्क में पिकनिक मनाने गए जेम्स की हत्या एक गोलीबारी के दौरान हो गई. पार्क में आपसी रंजिश में कुछ ब्लैग लोगों का जेम्स के परिवार वालों से झगड़ा हुआ, गोलियां चलीं और एक निशाने ने जेम्स को भी मौत की नींद सुला दिया.

तो, जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से पहले भी अमेरिका में ऐसे किस्सों की कमी नहीं, जहां ब्लैक लोगों को नस्लकुशी का शिकार बनाया जाता हो. इसीलिए 2020 में फ्लॉयड की छटपटाहट में कई दबी-घुटी आवाजें सुनाई देती हैं. ये आवाजें छह साल पहले के एरिक गार्नर की हो सकती है, जिसे न्यूयॉर्क सिटी में पुलिस वालों ने गला दबाकर मार डाला था. या फिर 1960 की कोई घटना, 1860 की या फिर 1619 की, जब अमेरिका में गुलामों ने आना शुरू किया था.

एटलांटिक पार से गुलामों की खरीद-फरोख्त का लंबा इतिहास

जिसे रैफेल लेमकिन जैसे मशहूर यहूदी वकील ने एथनोसाइड कहा था, उसका अमेरिका ने हमेशा इस्तेमाल किया है. एथनोसाइड का अर्थ है, किसी संस्कृति को नष्ट करना, पर उसके लोगों को बरकरार रखना. अमेरिका ने शुरुआत से ही यह किया. उसकी स्थापना के मूल में एटलांटिक पार से गुलामों की खरीद-फरोख्त का लंबा इतिहास है. प्रारंभ से यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने अफ्रीकी लोगों की संस्कृति को नष्ट किया लेकिन अपनी दास व्यवस्था को कायम रखने के लिए उनकी देह को बचाए रखा.

यही दास व्यवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका की सामाजिक और आर्थिक नींव बनी. ये गुलाम न अपनी भाषा बोल सकते थे, न अपने धर्म का पालन कर सकते थे. उनकी जातिगत पहचान खत्म कर दी गई और उन्हें निगर, नीग्रो, कलर्ड और ब्लैक कहा गया. वन ड्राप रूल जैसे नियम बनाए गए ताकि ब्लैक्स को व्हाइट यूरोपीय लोगों से अलग किया जा सके. इसके मायने ये थे कि अगर परिवार में कोई एक पूर्वज भी ब्लैक है तो परिवार का कोई सदस्य व्हाइट नहीं माना जा सकता.

कनफेडरेट्स स्टेट्स की स्याह स्मृतियां

जनतंत्र और समानता के उपदेशक अमेरिका का इतिहास कनफेडरेड स्टेट्स की स्याह स्मृतियों से भी भरा पड़ा है. यह 1861 से 1865 के दौर की बात है. कनफेडरेड स्टेट्स अमेरिका के सात दक्षिणी राज्यों का समूह था जहां गुलामी की प्रथा कायम थी.उनकी आर्थिक और कृषि संरचना का आधार गुलाम ही थे.अब्राहीम लिंकन की उम्मीदवारी से घबराकर इस कनफेडरेंसी ने खुद को संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग कर दिया था. चूंकि लिंकन गुलाम व्यवस्था के विरोधी थे. इसके बाद अमेरिका में गृह युद्ध छिड़ गया.

बाद में युद्ध में मात खाने के बाद इन राज्यों को संयुक्त राज्य अमेरिका का हिस्सा बनना पड़ा. तब तक लिंकन की हत्या हो चुकी थी और एंड्रयू जॉनसन राष्ट्रपति बन गए थे. इसके बाद जॉनसन ने कई कनफेडरेट सैनिकों को माफी दी, कई कनफेडरेट राजनीतिज्ञ चुनाव जीतकर कांग्रेस के सदस्य बने. इसके बाद अफ्रीकी अमेरिकियों के अधिकारों का दमन शुरू हुआ, चूंकि कनफेडरेट्स का असर अमेरिका की राजनीति में बढ़ता गया.

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आए दिन होती थी ब्लैक लोगों की लिंचिंग

इसके बाद अमेरिकी समाज में व्हाइट सुप्रीमेसी बढ़ती गई. ब्लैक लोगों के हकों को छीनने के लिए रिडीमर मूवमेंट चलाया गया जिसका नेतृत्व कनफेडरेट्स के हाथों में था. मेक अमेरिका ग्रेट अगेन जैसे अभियानों के जरिए अमेरिकी जीवन पद्धति की शान बघारी जाने लगी.

इस जीवन पद्धति का मतलब यह था कि एक ब्लैक की गर्दन कोई व्हाइट अधिकारी अपने घुटनों तले दबा सकता था. रिडीमर्स का साथ देने के लिए कू क्लक्स क्लैन या केकेके जैसे ग्रुप मौजूद थे. केकेके ब्लैक्स के खिलाफ नफरत से भरे समूह थे. वे ब्लैक्स को डराते-धमकाते थे- उनकी लिंचिंग करते थे. इक्वल जस्टिस इनीशिएटिव की 2017 की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1877 से 1950 तक 4,400 ब्लैक लोगों की लिचिंग की गई.

इस प्रकार ब्लैक लोगों के प्रति घृणा और हिंसा संरचनात्मक बनाई गई, कई कानूनों के जरिए. जिम क्रो कानून भी ऐसे ही कानून थे. ये 19वीं शताब्दी के अंत में अस्तित्व में आए और फिर 20वीं शताब्दी में इनका असर बढ़ता गया. इन कानूनों के अंतर्गत ब्लैक लोगों के सेग्रेगेशन यानी अलग थलग करने वाले नियमों का पालन करना पड़ता था. उनके लिए पब्लिक स्पेस में अलग जगह होती थीं. बस, रेस्त्रां, स्कूल, लाइब्रेरी में अलग जगह. यह तय किया जाता था कि वे कौन से काम करेंगे और उन्हें काम का कितना मेहनताना मिलेगा. 1896 में खुद सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि नस्ल के आधार पर सेग्रेगेशन वैध है, और सेपरेट बट इक्वल के सिद्धांत पर आधारित भी. इस तरह अमेरिका वैध रंगभेदी देश बन गया था.

कानूनी बदलाव का दौर

फ्लॉयड की हत्या का जो क्रोध आज सड़को पर फूट रहा है, वह बीसवीं शताब्दी में भी उबला था. 1919 में जब लिचिंग बढ़ती गई तो नस्लीय दंगे भी हुए. जिसे रेड समर के नाम से भी जाना जाता है.जब व्हाइट लोगों ने ब्लैक लोगों की हत्या की तो बदले में ब्लैक लोग भी उठ खड़े हुए. शिकागो, वॉशिंगटन में दंगे हुए- संपत्ति को भारी नुकसान भी हुआ. 1920 में ग्रेट माइग्रेशन हुआ, जब लगभग 60 लाख ब्लैक लोग दक्षिणी अमेरिका से उत्तरी अमेरिकी की ओर चल पड़े. चूंकि उत्तरी अमेरिका में उनका उत्पीड़न कुछ कम था.

जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद अमेरिका में प्रदर्शन(फोटो: ट्विटर)

दूसरे विश्व युद्ध ने रंगभेद की पकड़ कुछ कम की. इसके बाद अमेरिका में सिविल राइट्स मूवमेंट ने तेजी पकड़ी थी. मार्टिन लूथर किंग, रोज़ा पार्क्स जैसे एक्टिविस्ट सामने आ चुके थे, जो लगातार रंगभेद के खिलाफ काम कर रहे थे. 1948 में राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने सेना में ब्लैक लोगों को शामिल करने का आदेश दिया और 1954 में सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षा में भेदभाव को असंवैधानिक घोषित किया. 1964 में राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने सिविल राइट्स एक्ट पर हस्ताक्षऱ किए और जिम क्रो कानून रद्द हुए. 1965 में वोटिंग राइट्स एक्ट के जरिए ब्लैक्स को वोटिंग का अधिकार मिला और 1967 में अंतर नस्लीय शादियों की इजाजत मिली. 1968 में फेयर हाउसिंग एक्ट से रेटिंग और मकान बेचने के मामलों में होने वाले भेदभाव को खत्म किया गया.

ओबामा से ट्रंप तक का दौर

2008 में बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी ब्लैक लोगों के मन में एक उम्मीद जगी थी. लेकिन 2012 में 17 साल के ट्रेवोन मार्टिन की हत्या बताती है कि ब्लैक लोगों के लिए समाज बदला नहीं था, न ही न्याय व्यवस्था.

मार्टिन के हत्यारे को सेल्फ डिफेंस के नाम पर अदालत ने रिहा कर दिया था. इसके बाद अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर जैसा अभियान शुरू हुआ था.लोग ओबामा की तरफ आशा भरी नजरों से देखते थे क्योंकि ओबामा ने कहा था कि मार्टिन उन्हें उनके बेटे सरीखा दिखता है. पर आज डोनाल्ड ट्रंप कह रहे हैं- विरोधियों पर पुलिसिया कार्रवाई करनी ही होगी.

जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद ट्रंप ने एक चर्च के बाहर बाइबल पकड़ कर खिंचवाई फोटो(फोटो: ट्विटर)

फिर भी सुखद है कि अमेरिका में विरोध वे भी कर रहे हैं जिनकी नस्ल ने पीड़ा, अपमान और हिंसा नहीं देखी. क्योंकि वहां आबादी का सिर्फ एक हिस्सा बेचैन नहीं. सभी मिलकर नस्लवाद के खिलाफ खड़े हैं. इसे हम भारतीयों को भी समझने की जरूरत है- क्योंकि न सिर्फ ब्लैक लाइव्स, बल्कि दलित लाइव्स, मुसलिम लाइव्स, आदिवासी लाइव्स भी मैटर करती हैं. इन सब की जिंदगियां भी मायने रखती हैं.

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