मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019हिंदी दिवस विशेष: हिंदी को मैली-कुचैली, गंदी हो जाने दीजिए

हिंदी दिवस विशेष: हिंदी को मैली-कुचैली, गंदी हो जाने दीजिए

हिंदी को उसके खोल से बाहर निकलकर आजाद हवा में सांस लेने दो

प्रबुद्ध जैन
नजरिया
Updated:
हर भाषा से शब्द अपना कर ही हिंदी बनेगी और ताकतवर
i
हर भाषा से शब्द अपना कर ही हिंदी बनेगी और ताकतवर
(फोटो: Altered by The Quint)

advertisement

[ये आर्टिकल क्‍विंट हिंदी पर पहली बार 14 सितंबर, 2018 को पब्‍ल‍िश किया गया था. हिंदी दिवस के मौके पर हम फिर से इसे पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं ]

कुछ वक्त पहले किसी मैगजीन में एक साहब ने हिंदी में भाषाई शुद्धता बरतने की वकालत करते हुए लिखा--- “सवाल ये है कि ऐसे में जब दुनिया की तमाम भाषाएं अपने अस्तित्त्व के लिए जूझ रहीं हैं तो क्या हिंदी का वजूद सुरक्षित रह पाएगा? हिंदी में मिलावट का दौर यूं तो आजादी के बाद से ही थोड़ा बहुत शुरू हो गया था. संसद में इसको लेकर बहस-मुबाहिसे चलते रहे हैं.“

हां, ये बात अलग है कि भाषाई शुद्धता की बात करते हुए वो अनजाने में ही वजूद, आजादी, बहस-मुबाहिसे जैसे उर्दू शब्दों का जमकर इस्तेमाल कर गए. गलती उनकी नहीं है. दरअसल, कोई भी शख्स ऐसे ही लिखेगा और भई ये मजबूरी थोड़े ही है और न ही किसी किस्म का दबाव बल्कि ये तो सीधा-सादा, बिना मिलावट का बहाव है...जैसे दरिया बहता है न, ठीक वैसे ही.

भाषा कोई हो, उसमें रवानी तभी आ पाती है जब उसे पढ़ते समय आपको अटकना न पड़े. लगे कि शब्द कागज से बाहर निकलकर खनक रहे हैं और पूरी कहानी लिखने वाला पढ़ कर सुना रहा है. और ऐसा तभी हो पाता है जब भाषा किसी खास सांचे में न ढली हो, किसी खांचे से न निकली हो और सींखचों में कैद न हो.

हम बात हिंदी की कर रहे हों तो भाषा के तौर पर हिंदी गरीब तो बिल्कुल नहीं, ऐसी चीजों या भावनाओं की संख्या बेहद कम होगी जो हिंदी में बयां न की जा सकें.

और यहीं पहुंचकर शुद्धतावादी ये दलील देने लगते हैं कि जब हम इतनी समृद्ध भाषा वाले हैं तो फिर जरूरत क्या है अंग्रेजी, उर्दू या अलानी-फलानी भाषा से शब्द उधार लेने की. ये मिलावट क्यों, ये उधारी क्यों?

अब जरा कड़वी बात का वक्त. तो भैया बात दरअसल ये है कि किसी शुद्धतावादी, महान लेखक या हिंदी के पैरोकार को ये मुगालता क्यों होने लगा कि भाषा वही जो उसके मन भाए. कभी-कभी ये मुगालता एक कदम आगे जाकर भी रुकता है. इस पर, कि वो भाषा को बचाए रखने या उसके निर्माण में योगदान दे रहा है.

देखें वीडियो - डिजिटल होते देश में कैसे छा सकती हैं हमारी भाषाएं?

कड़वा सच ये है कि भाषा कोई भाषाविद् नहीं बनाता. वो तो आम आदमी बनाता है और जिस देश में कोस-कोस पे नई भाषा, नए अल्फाज नुमाया होते हों वहां हम सोच भी कैसे सकते हैं कि दूसरी भाषा के शब्दों का शामिल होना हिंदी के लिए दिक्कत पैदा करेगा.

अब आप आपने बच्चे से ये तो कतई नहीं कहते कि, तुम उत्तीर्ण हुए या अनुत्तीर्ण. आप यही कहते हैं न कि पास या फेल. न ही आप कहते हैं कि यार, बरेली की बर्फी तो बड़ा ही शानदार चलचित्र था.

अब एक दिलचस्प किस्सा सुनिए. आगरा शहर में एक जगह है –दरेसी, जो तीन हिस्सों में बंटी है...दरेसी नंबर 1, दरेसी नंबर 2 और दरेसी नंबर 3. यहां कभी तीन टीले हुआ करते थे. अंग्रेजों ने टीलों को समतल किया यानी ड्रेसिंग की और नाम रख दिया ड्रेसिंग नंबर 1, ड्रेसिंग नंबर 2, ड्रेसिंग नंबर 3. ड्रेसिंग कब दरेसी बन गया पता नहीं.

अब कोई भला बताए ढूंढ़कर कि दरेसी कौन सी भाषा का शब्द है. यूं आप कह सकते हैं कि जगहों के नाम तो ऐसे ही बनते हैं. इसमें नया क्या है. नया कुछ नहीं है. बस इतना समझिए कि जैसे जगहों के नाम बदलते हैं, वैसे ही चीजों के, क्रियायों के, हर चीज के शब्द बदलते हैं. गड्डमड्ड होते हैं. आकर चुपचाप हिंदी के साथ मिल जाते हैं. दूसरी भाषाओं के शब्दों को खुरच-खुरच कर अलग करना और सिर्फ हिंदी के शब्दों की वकालत करना पागलपन है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

हिंदी में पहले से ही अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, अंग्रेजी के खूब शब्द हैं लेकिन हम उन्हें हिंदी का मान बैठे हैं. जमकर इस्तेमाल भी करते हैं. अब ऐसा तो नहीं करेंगे न कि जानकारी मिलते ही इन शब्दों को अपनी भाषा से निकाल फेकेंगे.

उदाहरण के लिए, कुर्सी, शादी, सुबह, जिला अरबी शब्द हैं. तनख्वाह, गुब्बारा, जेब फारसी के शब्द हैं. तौलिया, तंबाकू पुर्तगाली भाषा से आए. कैंची, चम्मच, चाकू तुर्की जुबान से दाखिल हुए हैं. इसी तरह काजू, रेस्तरां, सूप फ्रेंच से आए. तो क्या करें अब? एक-एक कर खुरचने लगें इन्हें?

दूसरी भाषा के शब्दों के साथ भी अमूमन यही होता है. जब वो दशकों तक किसी भाषा में सामान्य तौर पर इस्तेमाल होते रहते हैं तो आप पहचान भी नहीं सकते कि वो मूल भाषा का हिस्सा नहीं हैं.

अंग्रेजी क्या शुरू से ऐसी ही थी? इतनी इंटरनेशनल, ग्लोबल, तरक्की की भाषा और न जाने क्या-क्या. लेकिन अंग्रेजी ने कभी किसी भाषा के शब्द उठाने में संकोच नहीं किया. लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच और हिंदी भी.

अब वो हमारे गुरु और मंत्र को इतनी ठसक से इस्तेमाल करती है कि इटेलिक्स भी नहीं करना पड़ता. दो दशक और बीतने दीजिए, अंग्रेजी दुनिया को लगेगा जैसे गुरु और मंत्र, दोनों न जाने कितनी शताब्दियों से उस भाषा का हिस्सा रहे होंगे.

देखें वीडियो - क्विंट हिंदी और गूगल के साथ मनाइए इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं का जश्न

हिंदी को दूसरी भाषा के शब्दों से बचाने के ‘मिशन’ में जुटे लोग बॉलीवुड और कुछेक हिंदी अखबारों को भी जमकर गरियाते हैं. इस बात से पूरी तरह बेखबर कि हिंदी को बचाए रखने में और इस मुल्क के कोने-कोने में पहुंचाने में जितनी भूमिका बॉलीवुड ने निभाई है, उतनी किसी बड़े लेखक ने भी नहीं.

वैसे भी, हमने जुबानी जमाखर्च के अलावा हिंदी के लिए ज़्यादा कुछ किया भी नहीं है और अब जब वो दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने के लिए तैयार है तो हम उसमें भी रोड़ा अटका कर साबित करना चाहते हैं कि ये तो हिंदी के लिए अभिशाप होगा.

ठीक वैसे ही कि मैं अपने बच्चे को न तो घर में पढ़ाऊं और न कुछ अच्छे सबक सीखने के लिए स्कूल ही भेजूं.

हिंदी क्यों और किससे डरे. हिंदी के पास देवनागरी जैसी खूबसूरत और साइंटिफिक लिपि है, जिसमें, आपकी जुबान जो बोलने की काबिलियत रखती है, वो उसे कागज पर उतारने की ताकत रखती है.

तो बात वहीं आकर ठहरती है कि भाषा आम आदमी बनाता है ये सच जितनी जल्दी हम मान लें, उतनी जल्दी हम ये भी समझ जाएंगे कि जितना हम हिंदी को उसके खोल से बाहर निकालकर आजाद हवा में सांस लेने देंगे वो उतनी ही ताजा दम होगी----नए मुहावरों से रंगी, अठखेलियां करती, कभी अंग्रेजी के मैदान में कुलाचें भरती, कभी उर्दू के ‘शेरों’ पर सवारी करती तो कभी फ्रेंच की मदहोशी में डूबती. और यकीन मानिए कि इस सबके बीच भी वो हिंदी ही रहेगी...अंग्रेजी, उर्दू या फ्रेंच नहीं हो जाएगी.

तो साहब, हिंदी को मैली-कुचैली, गंदी, गड्डमड्ड होने दीजिए. ये वो ‘दाग’ हैं जो हिंदी की उजली कमीज पर अच्छे लगते हैं.

और हां आखिर में...अगर आपको इस लेख में उर्दू शब्द ज्यादा लगे तो मैं कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मुझे तो मिलावटी भाषा में ही लुत्फ आता है. यानी ये कुछ साबित करने की कोशिश नहीं थी.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 14 Sep 2017,07:47 AM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT