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पैंगॉन्ग सो के करीब मोल्डो-चुशूल सीमा पर भारत और चीन (China) के कॉर्प्स कमांडर स्तर की 7वीं बैठक पूरी तरह से खबरों से गायब हो गई, ये भी दोनों देशों के बीच चल रहे गतिरोध का एक पैमाना है. आपको बता दें कि ये मीटिंग 13 अक्टूबर को हुई, दोपहर को शुरू हुई ये बैठक देर शाम तक चली. अंतिम दौर की बातचीत के बाद एक संयुक्त प्रेस रिलीज़ में दोनों पक्षों ने एक महत्वपूर्ण बात, “मोर्चे पर और सैनिकों को नहीं भेजने को लेकर प्रतिबद्धता” जताई.
जिस तरह से चीजें चल रही हैं उसका एक महत्वपूर्ण संकेत बीजिंग से मिला. यहां एलएसी से कनेक्टिवटी बढ़ाने के लिए भारत के नए पुलों के उद्घाटन के बारे में पूछे गए एक सवाल पर चीनी प्रवक्ता झाओ लिजियान भड़क गए.
झाओ, जो कि वोल्फ वॉरियर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, ने एलान किया कि “चीन तथाकथित ‘लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश’ को मान्यता नहीं देता है जिसे भारत नेगैर कानूनी तरीके से बनाया है.” उन्होंने सीमावर्ती इलाकों में भारत के बुनियादी ढांचे के निर्माण और सेना तैनात किए जाने की भी आलोचना की. उन्होंने कहा कि “यही तनाव का मूल कारण है.”
ये अंतिम बैठक थी जिसमें पंद्रहवें कॉर्प्स के भारतीय कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह शामिल हुए थे, अब उनका ट्रांसफर महू के कॉलेज ऑफ कॉम्बैट में कमांडेंट के तौर पर कर दिया गया है.
उनकी जगह लेने वाले लेफ्टिनेंट जनरल पी जी के मेनन भी विदेश मंत्रालय में चीन का मामला देखने वाले प्रमुख अधिकारी नवीन श्रीवास्तव (संयुक्त सचिव, पूर्वी एशिया) के साथ प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे. चीनी प्रतिनिधमंडल का नेतृत्व साउथ शिनजियांग मिलिट्री डिस्ट्रिक्ट के कमांडर मेजर जनरल लियु लिन कर रहे थे और पहली बार चीनी विदेश मंत्रालय का एक प्रतिनिधि, शायद भारत के मामलों को देखने वाला डेस्क अफसर भी मौजूद था. रिपोर्ट के मुताबिक संबंधित सेना मुख्यालय के दोनों देशों के दो प्रतिनिधि भी इस दौरान मौजूद थे.
सभी संकेत इस बात के हैं कि चीन के रुख में मामूली या कोई बदलाव नहीं है. चीन जून की स्थिति तक अपनी सेना को पीछे करने और हालात को शांत करने के लिए तैयार हो गया है लेकिन पैंगॉन्ग सो इलाक़े में चीनी सेना वैसे ही जमी है. हालांकि गलवान नदी घाटी में दोनों सेनाएं पीछे हटी हैं और गोगरा इलाक़े से भी चीनी सेना पीछे चली गई है. देपसांग के हालात के बारे में जानकारी नहीं है.
हालांकि पैगॉन्ग में चीन इस बात पर जोर दे रहा है कि भारतीय सेना ने अगस्त के अंत में जिन इलाकों पर कब्जा किया था वहां से वो पीछे हटे. ये सभी इलाके एलएसी पर भारत की सीमा में हैं लेकिन हेलमेट टॉप से गुरुंग हिल, मगर हिल, मुकापरी हिल, रेजांग ला और रेकिन ला पर नजर रखना संभव होने के कारण चीन की चिंता बढ़ गई है जिसने स्पंगुर सो में भारी संख्या में सेना तैनात कर रखी है. इसके बाद ही चीन पैगॉन्ग सो के उत्तरी किनारे पर स्थित फिंगर 4 इलाके से पीछे हटने सहित दूसरे मुद्दों पर बात करेगा.
दोनों देशों के बीच किसी तरह की आधिकारिक बातचीत आगे नहीं बढ़ने के कारण हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर, क्या हम ये मान रहे थे कि दोनों देश वास्तव में पूर्वी लद्दाख में अप्रैल 2020 के पहले की यथास्थिति को मानने के लिए तैयार हो जाएंगे, तब क्या?
चीन के साथ हमारे जो बुरे अनुभव हैं उसे देखते हुए भारत अब शायद ही पूरे रिश्ते के पहले की स्थिति में वापस जाने का जोखिम उठा सकता है. 1993 के बाद एलएसी पर शांति आपसी भरोसे पर आधारित थी. पिछले कई सालों में चीनी सेना ने देपसांग, पैंगॉन्ग सो और चुमार जैसी जगहों पर कई बार आकर मौजूदा एलएसी का उल्लंघन किया है. अगर दोनों देशों के बीच विश्वास नहीं होगा तो दोनों मोर्चे पर सैनिकों को तैनात रखेंगे. दूसरा विकल्प है दोनों पक्ष सहमति से स्थानीय स्तर पर और तय जगह से सेना को पीछे हटाएं.
चीनी वास्तव में जो चाहते हैं वो ये है
अगले महीने सिर्फ एक चिट्ठी में चीनी प्रीमियर ने साफ किया कि “पश्चिमी क्षेत्र में 1956 में छपा चीन का मानचित्र दोनों देशों के बीच पारंपरिक सीमा को सही तौर पर दर्शाता है.”
झाऊ की ओर से न तो कोई मानचित्र और न ही दूसरा संदर्भ दिया गया. लेकिन अगर आप उस दौरान के चीनी मानचित्र को देखेंगे तो उसमें पैंगॉन्ग सो में सीमा साफ तौर पर वैसी ही दिखाई देती है जैसा भारत दिखाता है. इसके अलावा इस मानचित्र में गलवान और चिप चाप नदी घाटी को भी भारत का हिस्सा दिखाया गया है.
लेकिन चूंकि उनमें से कई इलाकों में कोई भारतीय सेना बची नहीं है, चीनी उम्मीद करते हैं कि भारत उनकी बातों को मान लेगा और उन्हें वो इलाके सौंप देगा जो उन्होंने जीती थी. भारत के मुताबिक चीन ने सितंबर 1962 (युद्ध की पूर्व संध्या पर) से आज तक लद्दाख की 3000 वर्ग किलोमीटर की जमीन पर कब्जा किया हुआ है.
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