मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Iran-India Ties: क्या चीन के शामिल होने से SCO वार्ता समान स्तर पर होगी?

Iran-India Ties: क्या चीन के शामिल होने से SCO वार्ता समान स्तर पर होगी?

चीन भले ही पश्चिम एशिया में मजबूती से आगे बढ़ा है, लेकिन संभावना है कि राष्ट्र सकारात्मक राजनयिक संबंध बहाल करेंगे.

विवेक काटजू
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>ईरान औपचारिक रूप से शंघाई सहयोग परिषद का सदस्य बनने के लिए तैयार है.</p></div>
i

ईरान औपचारिक रूप से शंघाई सहयोग परिषद का सदस्य बनने के लिए तैयार है.

फोटो : नमिता चौहान/द क्विंट

advertisement

इस साल जुलाई में भारत (दिल्ली) शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है. इस दौरान ईरान औपचारिक रूप से इस संगठन का सदस्य बनने के लिए तैयार है. ऐसी संभावनाएं जताई जा रही है कि ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी इस शिखर सम्मेलन में शिरकत करेंगे. इस बीच, शिखर सम्मेलन से पहले भारत में मंत्रीस्त्रीय बैठकें आयोजित की जा रही हैं, जहां कुछ मामलों में भारत द्वारा SCO के वर्तमान अध्यक्ष के तौर पर ईरानी प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया जा रहा है.

इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में 27-28 अप्रैल को भारत में SCO रक्षा मंत्रियों की बैठक आयोजित की गई थी. ईरान के रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर जनरल मोहम्मद रजा घरेई अश्तियानी ने इस बैठक में तकनीकी रूप से बतौर ऑब्जर्वर हिस्सा लिया था. इस दौरान अश्तियानी ने भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की थी. बैठक के बारे में एक आधिकारिक भारतीय मीडिया विज्ञप्ति के अनुसार, भारत और ईरान के "पुराने सांस्कृतिक, भाषाई और सभ्यतागत संबंधों" पर जोर दिया, जिसमें "लोगों से लोगों" (People to People) के संपर्क शामिल थे.

जब भी दोनों देशों के नेता मिलते हैं तो करीब इसी सूत्र वाक्य को लेकर टिप्पणी की जाती है. यह बात सच है कि इन क्षेत्रों में भारत और ईरान के बीच 13वीं और 19वीं शताब्दी के शुरुआती दौर के बीच काफी व्यापक संपर्क था, जिसके कारण एक इंडो-फारसी ( Indo-Persianate) संस्कृति का विकास हुआ, जिसने भारत के बड़े हिस्से को कई तरह से प्रभावित किया था.

लेकिन, सच कहा जाए तो ये सब बातें पुरानी हो चुकी हैं. दोनों देश और वहां लोग काफी आगे बढ़ चुके हैं. 1979 में शाह को अपदस्थ करने के बाद अयातुल्ला खुमैनी द्वारा स्थापित क्लेरिकल प्रणाली (ईरान में इस्लामिक मौलवियों द्वारा बनाए गए नियम) के तहत ईरानी संस्कृति या राष्ट्र भारत में प्रतिध्वनित नहीं होते हैं, हालांकि भारतीय मुसलमान जो इस्लाम की शिया शाखा को फॉलो करते हैं वे अभी भी ईरान द्वारा लगातार शिक्षित होते हैं और कौम शिया इस्लाम का एक महत्वपूर्ण केंद्र है.

भारत और ईरान के बीच संबंधों की स्थिति

हितों की पहचान करने के लिए जो दोनों देशों को एकजुट कर सकते हैं, उसमें आज के दौर में जो महत्वपूर्ण फैक्टर्स हैं वे समकालीन भू-राजनीति (geopolitics) और भू-आर्थिक (Geo-Economic) मुद्दे हैं. 1990 के दशक में एक दौर ऐसा भी था, जब अफगानिस्तान में रूस के साथ-साथ भारत और ईरान दोनों देशों के हितों में समानता थी. हालांकि, जब राजनाथ सिंह और अश्तियानी ने तालिबान-प्रभुत्व वाले अफगानिस्तान में स्थिति और क्षेत्र की स्थिरता पर इसके प्रभाव पर चर्चा की तब इस पर संदेहभरी स्थिति थी कि दोनों में से किसी भी देश की वहां की घटनाओं को प्रभावित करने के लिए साथ मिलकर काम करने में रुचि है या नहीं.

भारत की रुचि चाबहार बंदरगाह को विकसित करने और इसके जरिए अफगानिस्तान और उससे आगे मध्य एशिया तक कनेक्टिविटी विकसित करने में है, लेकिन करीब तीन दशकों से ईरान इस परियोजना पर डगमगा रहा है. कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट में कई बाधाएं हैं, लेकिन ये सभी ईरान द्वारा निर्मित नहीं की गई हैं. ईरान पर जो अमेरिकी प्रतिबंध लगाए गए हैं उन प्रतिबंधों का साया भी चाबहार पड़ा है.

जहां एक ओर भारत और ईरान के संबंध उम्मीदों के अनुरूप आगे नहीं बढ़े हैं, वहीं दूसरी ओर चीन एक ऐसा देश है जिसने बड़े पैमाने पर सबसे पहले ईरान में अपने कदम बढ़ाए हैं. जहां 2016 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ईरान यात्रा ने ऊर्जा और रक्षा में भी व्यापक संबंधों के लिए आधार तैयार किया, वहीं बाद के सालों में ईरान में एक बढ़ती हुई समानता के साथ-साथ चीन का बढ़ता आर्थिक और वाणिज्यिक हित भी देखा गया है.

अमेरिका-ईरान परमाणु समझौते से हटने का जो फैसला डोनाल्ड ट्रंप ने किया था उसके परिणामस्वरूप ईरान की विदेश नीति में चीन अब पहले से अधिक मजबूत स्थान में शुमार हो गया है. हालांकि वाकई में जो असाधारण था वह यह था कि सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन उन दरारों को भरने के लिए मध्यस्थता कर रहा था, जो 2016 में तब और ज्यादा बढ़ गई थीं, जब दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध टूट गए थे.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

पश्चिम एशिया की ओर चीन के कदम बढ़ाने का मतलब

सऊदी अरब और ईरान के विदेश मंत्रियों ने बीजिंग में इस महीने की शुरुआत में मुलाकात की थी, जहां संबंधों को बहाल करने और दूतावासों को फिर से स्थापित करने का फैसला किया गया. पश्चिम एशिया में यह चीन का एक बड़ा कदम था. धर्मशास्त्र और इतिहास के आधार पर सऊदी और ईरानी मतभेद है, जोकि आसानी से हल नहीं होंगे. लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने कुछ हद तक कूटनीतिक सामान्य स्थिति को फिर से बहाल करने के लिए चीन की ओर रुख किया है.

पश्चिम एशिया में भारत के स्थायी आर्थिक और सुरक्षा सरोकार हैं, और इस क्षेत्र की दो प्रमुख शक्तियों के बीच मध्यस्थता करने में चीन की सफलता, दर्शाती है कि हवा उस समय चल रही है जब भारत ने अमेरिका, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के साथ हाथ मिलाते हुए एक तरह का वेस्ट एशियन क्वाड (पश्चिमी एशियाई क्वाड) का गठन किया है.

एससीओ में शामिल होने के बाद ईरान अब चीन के और करीब जाएगा. इसका असर भारत पर भी पड़ेगा, यानी भारत के लिए भी इसके बड़े निहितार्थ होंगे. इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन SCO का प्रमुख देश है, और पश्चिम एशिया में उसके प्रवेश ने अमेरिका और भारत दोनों को यह संकेत दिया है कि वह इस क्षेत्र में एक सतत और अधिक मजबूत भूमिका निभाने के लिए इच्छुक होने के साथ-साथ तैयार भी है.

भारत को सभी क्षेत्रीय सरकारों के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर ध्यान केंद्रित करने की अपनी पारंपरिक नीति पर निर्भरता के जरिए इसका मुकाबला करना होगा. भारतीय नीति निर्माताओं को इस बात पर चिंतन करने की आवश्यकता है कि क्या वे चाहते हैं कि भारत को इस क्षेत्र में अमेरिका के एक सहयोगी के रूप में देखा जाए या एक अलग खिलाड़ी के तौर पर माना जाए. भारत ने पहले यह सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि उसे कभी भी किसी अन्य शक्ति से बंधा हुआ नहीं माना जाए बल्कि एक ऐसे देश के रूप में देखा जाए जिसने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखी हो. इस तरह के दृष्टिकोण में बड़ी योग्यता थी.

ईरान की SCO सदस्यता शासन विरोधी प्रतिक्रियों के साथ मेल खाती है

ईरान भी ऐसे समय में एससीओ में शामिल होने जा रहा है, जब महिलाओं पर हिजाब कोड लागू करने के कारण क्लेरिकल शासन (ईरान में इस्लामिक मौलवियों द्वारा प्रत्यक्ष शासन) के खिलाफ एक बड़ा सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ था. यह आंदोलन पिछले साल सितंबर में महसा अमिनी की मौत के साथ शुरू हुई थी, जिसे अनुचित तरीके से हिजाब पहनने के आरोप में धार्मिक पुलिस ने हिरासत में ले लिया था.

अन्य शहरों में इससे जुड़े प्रदर्शनों को फैलते हुए देखने के बाद, कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि वहां की सत्ता महिलाओं को अधिक स्वतंत्रता प्रदान करेगी, लेकिन यह स्पष्ट है कि कट्टरपंथियों की जीत हुई है, क्योंकि हिजाब कोड अब बेरहमी से लागू किए जा रहे हैं और प्रदर्शनकारियों से खास कठोरता के साथ व्यवहार किया गया है. विलायत-ए-फकीह व्यवस्था के समर्थक मजबूत और अटल बने हुए हैं. इसलिए, कम से कम निकट भविष्य के लिए, पश्चिम में जो लोग लगातार विरोध और प्रदर्शनों के कारण शासन के गिरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे एक सपने का पीछा कर रहे हैं.

भले ही ईरान और पश्चिम एशिया में चीन ने मजबूती से अपने कदम आगे बढ़ाए हैं, लेकिन एससीओ शिखर सम्मेलन के लिए रायसी की भारत यात्रा दोनों देशों को उन क्षेत्रों का पता लगाने के लिए प्रदान करेगी जहां सहयोग संभव है. ऐसा करने में यथार्थवाद को मार्गदर्शक होना चाहिए न कि ऐतिहासिक अतीत केआह्वान का जिसका वर्तमान से कोई संबंध या प्रासंगिकता नहीं है.

एक और बात. भारत में रहते हुए अश्तियानी ने सामान्य ईरानी की तरह अमेरिका विरोधी और पश्चिमी विरोधी बयानबाजी की है. रूस-यूक्रेन मामले में ईरान की सहानुभूति रूस के साथ है और चीन के साथ इसके अलाइनमेंट की वजह से ईरानी नेताओं द्वारा इस तरह की बयानबाजी न केवल तेहरान में बल्कि विदेशी धरती पर भी जारी रहेगी. इसको लेकर जहां तक भारत का संबंध है, इसे नजरअंदाज किया जाना चाहिए.

(लेखक, विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव [वेस्ट] हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT