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आर्टिकल के निरस्त होने से जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के नागरिकों के दिमाग से उनकी स्थिति को लेकर अनिश्चितता का अंत हो गया. इसने पाकिस्तान को उस सोच के साथ अकेला कर दिया कि वह कश्मीर का निर्माण करने और कश्मीर के ही सहारे गजवा-ए-हिन्द करते हुए पूरे भारत में निजाम-ए-मुस्तफा का शासन स्थापित करेगा.
इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं है कि अधिग्रहण की पुष्टि जम्मू एवं कश्मीर की संविधान सभा ने की थी. आर्टिकल 370 को नेहरू के दबाव में संविधान में घुसाया गया, जो अपने मित्र शेख अब्दुल्ला से परेशान थे. हालांकि वे जो चाहते थे वही हुआ- कश्मीर पर नियंत्रण और जम्मू-कश्मीर के महाराजा की मनमानी पर नकेल.
जम्मू-कश्मीर के ‘विशेषज्ञों’ की यह लापरवाही ऐसी है कि यूपीए की ‘मध्यस्थता टीम’ तक को इस बारे में पता नहीं था और न ही उसने अपनी रिपोर्ट में इसका जिक्र किया. टीम ने हिन्दू, सिख, बौद्ध, शिया मुसलमान और अन्य धर्म के शायद ही किसी सदस्य से मुलाकात की. न ही रिपोर्ट में उनकी महत्वाकांक्षाएं दिखीं. उन्होंने तीन बैठकें कीं- दो कश्मीर में, एक जम्मू में. लद्दाख में एक भी बैठक नहीं हुई, जो सबसे बड़ा इलाका है और जहां अल्पसंख्यक बौद्ध आबादी है. उन्होंने 7000 लोगों से मिलने का दावा किया. उन संक्षिप्त यात्राओं में क्या यह संभव था?
नीचे कुछेक उदाहरण हैं कि किस तरह घाटी के नेताओं ने आर्टिकल 370 के पीछे छिपकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में शासन किया:
1947 से 2007 के दौरान एससी-एसटी के लिए कोई आरक्षण यहां नहीं था. आखिरकार 2007 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब तक अड़ी रही राज्य सरकार आरक्षण देने को तैयार हुई. लेकिन, अब भी यहां राजनीतिक आरक्षण नहीं है. आदिवासियों को अब भी उनकी आबादी 14-16 प्रतिशत के अनुरूप आरक्षण नहीं है. आर्टिकल 370 के तहत 135 संवैधानिक कानून इसमें बाधक थे. 2002 से पहले तक यहां परिसीमन नहीं हुआ था. उससे आगे जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके बाद अगली जनगणना 2020 तक ही संभव हो सकती थी.
इस तरह नयी जनगणना के आधार पर 2026 के चुनाव तक ही परिसीमन संभव हो सकता है! 2002 तक 30 लाख आबादी वाले जम्मू में 37 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटें थीं, 29 लाख आबादी वाले कश्मीर में 46 विधानसभा सीटें और 3 लोकसभा सीटें थीं. 59000 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले सबसे बड़े इलाके लद्दाख में 3 लाख की आबादी के बीच 4 विधानसभा सीटें और एक लोकसभा की सीट थी.
जम्मू-कश्मीर के हरेक नागरिक को 1137 रुपये की मदद मिलती है, जबकि दूसरे प्रदेशों में यह राशि 576 रुपये प्रति व्यक्ति है. अन्य प्रदेशों को 70 प्रतिशत लोन और 30 प्रतिशत मदद मिलता रहा, जबकि जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को 90 प्रतिशत मदद और 10 प्रतिशत लोन मिलता रहा. पैसे गये तो गए कहां? निश्चित रूप ये ये रकम घाटी के नेताओं के पास पहुंचे. जम्मू से सबसे ज्यादा राजस्व इन्होंने वसूल किया, लेकिन रकम हमेशा कश्मीर घाटी में भेजी जाती रही.
दिल्ली में अपने शुभचिंतकों की मदद से नेता जबकि मोटे होते रहे, प्रदेश के नागरिक गरीब बने रहे. सरकारी नौकरियों में जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी बहुत कम रही थी. 1997-98 के केएस की लिखित परीक्षा में 1 ईसाई, 3 मुसलमान और 23 बौद्ध पास हुए. उनमें से केवल 1 बौद्ध को नियुक्ति मिली. राज्य सचिवालय कैडर के 3500 लोगों में एक भी बौद्ध नहीं था. बीते 52 सालों में एक भी बौद्ध इस कैडर में नहीं चुना गया. संक्षेप में यही 370 का आपके लिए मतलब होता है.
सोशल मीडिया का आभार कि हम आज जानते हैं कि राधिका गिल के साथ क्या हुआ. वह अकेली नहीं है. हजारों वाल्मीकि या एससी जो बुलाए जाने पर जम्मू-कश्मीर आए थे, वे पीएचडी करने के बावजूद सफाई कर्मचारी ही रह गए. बराबरी की बात करते हैं! सियालकोट से आए लाखों शरणार्थी जो पंजाब नहीं पहुंच सके और जम्मू कश्मीर में ही रह गए उन्हें राज्य की नागरिकता, शिक्षा, नौकरी, जमीन और घर से 70 सालों तक वंचित रखा गया. नया कानून अब तक जम्मू-कश्मीर के 3.5 लाख नागरिकों को डोमिसाइल दे चुका है. बंटवारे के इन दुर्भाग्यशाली अनाथों के साथ कभी कोई मानवाधिकार चैंपियन खड़ा नहीं हुआ. मानवाधिकार संगठन या किसी भी सेकुलर नेता ने कभी इस बारे में बात नहीं की. और, न ही 4 लाख कश्मीरी हिंदुओं की बात की, जो अपनी ही धरती पर शरणार्थी बने रहे. लेकिन 5 अगस्त 2019 के बाद से मानवाधिकार फैक्ट्रियों से कहानियां नए सिरे से फूटने लगी हैं.
1965 के वक्त (जब पाकिस्तान अपने ऑपरेशन जिब्राल्टर में विफल रहा था क्योंकि उसे स्थानीय समर्थन नहीं मिला) से लेकर 1984 तक जब मंदिरों को तोड़ना और उन्हें बदला जाना शुरू हुआ, तो कश्मीरी हिंदुओं ने मुझे बताया कि घाटी में 1975 में सऊदी पेट्रो डॉलर के बहाव के साथ वहाबी कट्टरपंथ का फैलाव हुआ. और, जमीनी स्तर पर नफरत की खेती शुरू हो गई. गृहमंत्रालय का आधिकारिक रिकॉर्ड कहता है कि 1984 से 1992 के बीच सैकड़ों मंदिर नष्ट कर दिए गए और उन्हें बदल दिए गए. यह सब 6 दिसंबर 1992 से पहले हुआ जब बाबरी ढांचा ध्वस्त किया गया. जो लोग घाटी में शट-डाउन और कर्फ्यू की बात करते हैं, वे कृपया इतिहास में जाएं और पता लगाएं कि कांग्रेस और कांग्रेस समर्थित सरकारों के शासनकाल में 1990 के दशक में 6 साल 8 महीने तक वहां राष्ट्रपति शासन रहा.
तथाकथित स्वायत्तता के लिए संघर्ष था, लेकिन उससे ज्यादा यह केंद्र को दबाव में रखने की तरकीब थी ताकि अधिक से अधिक फायदे लिए जा सकें. पाकिस्तान की दिलचस्पी इन मनचाहे फायदों के मकसद में कतई नहीं थी. कश्मीर को इस्लामिक बनाने का प्रोजेक्ट 1931 में शुरू हुआ जब शेख अब्दुल्ला ने पहली बार हिंदुओं के खिलाफ हिंसा छेड़ी जिसके परिणामस्वरूप कश्मीरी हिंदू निर्वासित हुए. इस्लामिक विजय से पहले कश्मीर का अस्तित्व था. 4000 सालों से यह भारत में ज्ञान का केंद्र था. प्राचीन सभ्यता का यह मुकुट है. सेकुलरों के लिए भी कश्मीर भ्रमित करने वाले दो देशों के सिद्धांत का प्रमाण है.
आर्टिकल 370 ने अनिवार्य रूप से चुपचाप इस दो देशों के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया. इस ‘अस्थायी’ अनुच्छेद को जाना था. आर्टिकल 370 को प्रभावहीन करना बड़ा बदलाव है. 70 सालों से जो एक ही काम होता रहा और जिससे दूसरे नतीजों की उम्मीद की जाती रही, उससे बाहर निकलने में वक्त लगेगा. हां, बहुत कुछ करने की जरूरत है लेकिन जो 7 दशकों से हो रहा था उसे वैध नहीं बनाया जा सकता.
(रतन शारदा सीक्रेट्स ऑफ आरएसएस नामक किताब के लेखक हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 05 Aug 2020,07:42 AM IST