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कर्नाटक: उलटा पड़ा मोदी-शाह का दांव,विपक्षी एकता के लिए बड़ा संदेश

कर्नाटक में गुलाम नबी और अशोक गहलोत की जोड़ी ने गिनती के दिन से जो दांव चले उसकी भनक बीजेपी को नहीं थी

आशुतोष
नजरिया
Updated:
विधानसभा में येदियुरप्पा और अन्य नेता
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विधानसभा में येदियुरप्पा और अन्य नेता
(फोटो: PTI)

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“बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले”

आज की रात मोदी जी को ये शेर याद आ रहा होगा. क्या जरूरत थी वहां सरकार बनाने की. लेकिन जिद थी कि क्या हुआ अगर सरकार बनाने लायक विधायक नहीं थे, सरकार तो हम ही बनायेंगे. दांव उलटा पड़ गया. कर्नाटक मोदी जी को बहुत महंगा पड़ेगा. ये बात तीन दिन पहले उतनी सही नहीं होती. तब सबको लग रहा था कि मोदी जी के पास अमित शाह नाम का एक तुरुप का इक्का है जो हर पिच पर बैटिंग कर जिता सकता है. लेकिन आज वो इक्का, खोटा सिक्का साबित हुआ. मुंह पर कालिख पुत गई. मोदी जी की नैतिक आभा भी बिखर गई और कांग्रेस को वो मनोवैज्ञानिक बढ़त मिल गई जिसकी उसे लंबे समय से दरकार थी.

मोदी जी का जुगाड़ काम न आया

ये सोच देश में थी कि मोदी जी अगर जीते तो सरकार तो बनायेंगे ही, अगर नहीं जीते तो पक्का बनायेंगे. सारा जुगाड़ बिखर गया. कांग्रेस ने साबित कर दिया कि उन्होंने यूं ही छप्पन साल तक देश पर शासन नहीं किया. कुछ तो गुण था. गुजरात में अहमद पटेल के राज्यसभा के बाद ये दूसरा मौका है जिसने साबित किया कि राजनीतिक प्रबंधन के खेल में कांग्रेस अगर अपने पर उतर जाये तो फिर उसे हराना आसान नहीं होगा.

गुजरात में अमित शाह ने पूरी ताकत लगा दी, चुनाव आयोग तक को अपने साथ मिलाने की कोशिश की पर आधी रात के खेल में वो चूक गये.

कर्नाटक में गुलाम नबी और अशोक गहलोत की जोड़ी ने गिनती के दिन से जो दांव चले उसकी भनक बीजेपी को नहीं थी. नतीजे आते इसके पहले जेडीएस को समर्थन का ऐलान कर बीजेपी के अगले दांव को भोथरा कर दिया. और जब राज्यपाल ने सरकार बनाने का मौका दिया तो सुप्रीम कोर्ट जा कर बीजेपी को चित कर दिया. ये दोनों मास्टरस्ट्रोक थे जिसका जवाब बीजेपी के पास नहीं था.
कर्नाटक विधानसभा में बैठे कांग्रेस के नेता (फोटो: ANI)

काम नहीं आए बीजेपी के हथकंडे

बीजेपी पुराने हथकंडे पर उतरी तो सारी बातचीत फोन में कैद हो गई. मुख्यमंत्री येदियुरप्पा तक विधायक खरीदने की दौड़ में रंगे हाथ पकड़े गये. सारी नैतिकता उतर गई. लोगों को चेहरा दिख गया कि मोदी जी कहें कुछ भी वो पुराने कांग्रेस से कतई बेहतर नहीं हैं जो सरकारें बेशर्मी से बनाती बिगाड़ती थी.

मोदी के लिये उनकी पूरी जमापूंजी उनकी कभी न हारने वाली छवि थी. अब वो हारते दिखे. वो अजेय नहीं हैं. उन्हे मात दी जा सकती है. उनके दांवों का तोड़ है ! जंग में ये मनोवैज्ञानिक बढ़त सेना को कई गुना खतरनाक बना देती है. ऐसे में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस बढ़े मनोबल से उतरेगी. ये मोदी जी के लिये अच्छी खबर नहीं है.

विपक्ष की एकजुटता से रुकेगी मोदी की सेना

दूसरा, संदेश ये गया कि विपक्ष अगर एकजुट हो जाये तो मोदी जी की सेना को बांधा जा सकता है. उन्हें हराया जा सकता है. कर्नाटक में विपक्ष ने ये गलती की. कांग्रेस इस अहंकार में रही कि वो अकेले बीजेपी को हरा सकती है. जेडी(एस) बदले की भावना से प्रेरित रही कि वो कांग्रेस को सरकार नहीं बनाने देगी. दोनों का अहम टूटा. साथ लड़े होते तो ये नौबत नहीं आती. कांग्रेस और जेडी(एस) के वोट मिला दिये जायें तो बीजेपी दूर-दूर तक नहीं फटकती. साथ होते तो स्वीप करते. बीजेपी कुछ सीटों पर सिमट जाती.

अलग-अलग लड़ने की वजह से बीजेपी 104 सीट ले आयी. इस संकट में ये तो हुआ कि कम से कम 2019 में वो अलग नहीं होंगे. साथ रहेंगे तो सरकार भी रहेगी और लोकसभा में सीटें भी खूब आ सकती हैं. 2014 में बीजेपी को 18 सीटें मिलीं. तब सब अलग-अलग रहे थे. ये सौदा दोनों को समझ में आता है कि सरकार भी बचाओ और लोकसभा में सीटें भी लेकर आओ. अगर मोदी जी सरकार बनाने की गलती नहीं करते तो दोनों आपस में लड़ मर सकते थे. संकट ने दोनों की दोस्ती पक्की कर दी. ये दोस्ती खतरनाक है मोदी जी क्योंकि और दोस्त भी इकट्ठा हो रहे हैं.

विपक्ष को साथ लाने में जुटीं ममता बनर्जी

ममता बनर्जी ने गिनती वाले दिन ही कहा था कि कांग्रेस और जेडीएस को साथ लड़ना चाहिये. ममता पूरे विपक्ष को एक साथ लाने में जुटी हैं. अब उनका तर्क और मजबूत होगा कि बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का एक ही उम्मीदवार उतरे. संयुक्त विपक्ष का एक उम्मीदवार वोटों को बंटने से रोकेगा. बीजेपी को 2014 में सिर्फ 31% वोट मिले थे. विपक्ष बिखरा था. पिछले चार सालों में मोदी जी की लोकप्रियता कम हुई है. अब वो तेज नहीं दिखता जो तब था. उनके अंदर का देवता कमजोर हो गया है. वो लड़खड़ा रहा है.

  • अर्थव्यवस्था औंधे मुंह पड़ी है
  • नौजवानों को रोजगार के लाले पड़ गये हैं
  • विकास की दर घट रही है
  • पेट्रोल के दाम लगातार आसमान छू रहे हैं
  • रुपये की कीमत घट रही है
  • एटीएम से नोट गायब हैं
  • किसान आत्महत्या कर रहा है
  • आरक्षण की मांग को लेकर अलग-अलग जातियां सड़कों पर हैं
  • दलित आक्रामक हैं, वो हिंदुत्व से हिसाब मांग रहे हैं
  • अल्पसंख्यक त्रस्त हैं. बेबस हैं

ये मोदी का करिश्मा था जिसने यूपी और बिहार में बीजेपी को 105 सीटें ला दीं. अब अगर यूपी में ममता के फार्मूले पर मायावती और अखिलेश चलें तो बीजेपी की कुल 73 का आंकड़ा घट कर सिंगल डिजिट में भी आ सकता है. ये हो न हो 73 तो कतई नहीं होगा.

ममता बनर्जी के साथ अखिलेश यादव(फाइल फोटो: @yadavakhilesh)

बिहार में भी सीबीआई, आयकर ने लालू के पक्ष में सहानुभूति पैदा कर दी है. ऐसे में संकट बड़ा है.

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क्षेत्रीय पार्टियों के लिए संदेश साफ है

कर्नाटक ने सभी क्षेत्रीय पार्टियों को संदेश दिया है एक रहे तो राज करोगे, लड़ोगे तो जेल जाओगे. ममता हो या फिर लालू, एआईएडीएमके हो या बीजू जनता दल या आप सब पर सरकारी जांच एजेंसियों का डर भारी है. चिदंबरम तक के जेल जाने की आशंका है. बचा कौन है? नीतीश कुमार का हाल सब देख रहे हैं. नीतीश के लिये मोदी से मिलना असंभव है. अमित शाह भी नहीं मिलते. राम लाल से मिलना पड़ता है. कहां विपक्ष नीतीश को प्रधानमंत्री बना रहा था. उनसे बेहतर कौन जानता होगा कि मोदी जी कैसे अपने पाले में लाने के बाद दुलत्ती देते हैं कि आदमी पानी नहीं मांग पाता.

चंद्रबाबू नायडू दूसरे उदाहरण हैं. रोते रहे, रिरियाते रहे पर मोदी जी का दिल नहीं पसीजा. मोदी जी का साथ छोड़ना पड़ा नहीं तो कौड़ी के तीन हो जाते. शिवसेना बिलकुल समझ गयी है. वो रोज मोदी जी को गरियाती है, उसका कुछ नहीं बिगड़ता. वो खुलेआम राहुल की तारीफ करती है.

लिहाजा, विपक्ष के सामने दो विकल्प हैं. वो चाहे तो 1988 का उदाहरण ले या फिर 2014 का. 1988 में राजीव गांधी के पास चार सौ सांसद थे. देश के इतिहास में सबसे ज्यादा. अकेले हराना नामुमकिन था. वी पी सिंह की अगुवाई में सब एक साथ आये. राजीव गांधी चारों खाने चित. सरकार गई और कांग्रेस का इकबाल भी गया. उस झटके से अभी तक कांग्रेस उबर नहीं पाई है. तब बीजेपी और लेफ्ट, एक दूसरे के जानी दुश्मन भी साथ आये थे. पर 2014 में सब अलग, सभी चित. यूपी में अलग, सब चित. कर्नाटक में अलग, बाल बाल बचे. राजनीति यही सिखाती है कि साथ रहो, मजबूत रहो. कर्नाटक का ये फायदा जरूर हुआ. लगता है देवता से भगवान थोड़ा नाराज चल रहे हैं या फिर ये कहे कि उन्हे राहुल का मंदिर आना ज्यादा रास आ रहा है.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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Published: 19 May 2018,10:03 PM IST

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