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मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) की मांग एक बार फिर जोर पकड़ चुकी है. मराठवाड़ा मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन का केंद्र बन चुका है. इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक वजह भी हो सकती है— आर्थिक पिछड़ेपन की वजह से क्षेत्र में गरीबी.
इस बार रणनीति ‘मराठवाड़ा से महाराष्ट्र’ तक है.
शुरुआत में, मनोज जरांगे पाटिल की मांग थी कि आरक्षण का लाभ देने के लिए मराठों को मराठवाड़ा के कुनबी (Kunbi) के रूप में मान्यता दी जाए, जिसे बाद में उन्होंने बदलकर पूरे मराठा समुदाय के लिए मांग बना दिया.
इससे पहले, साल 2016 में आरक्षण के लिए जोरदार आंदोलन किया गया थी. तब राज्य भर में सकल मराठा समाज की तरफ से तकरीबन 58 मूक (साइलेंट) मोर्चा निकाले गए थे.
महाराष्ट्र की एक प्रभावशाली मराठा जाति के लोग काफी समय से सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. पहली बार यह मांग मुंबई में मथाड़ी कामगारों के नेता अन्ना साहेब पाटिल की ओर से उठाई गई थी. मथाड़ी कामगार बुनियादी तौर पर अनाज मंडियों में कुली का काम करने वाले लोग हैं.
ज्यादातर मथाड़ी कामगार पश्चिमी महाराष्ट्र के रहने वाले थे और APMC मंडियों में अनाज की लोडिंग-अनलोडिंग का काम करते थे. यह मांग उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को देखते हुए यूनियन नेता की ओर से रखी गई थी. इस काम में लगे लोगों में बड़ी आबादी कुनबी-मराठा जातियों की थी, इसलिए कुनबी-मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग की गई.
मराठों को महाराष्ट्र में वर्चस्व रखने वाली जाति (डॉमिनेटेड कास्ट) माना जाता है. समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास बताते हैं, “किसी जाति को तब डॉमिनेटेड कास्ट कहा जा सकता है जब उसकी आबादी दूसरी जातियों से ज्यादा होती है और जब उसके पास मजबूत आर्थिक और राजनीतिक ताकत भी होती है. एक बड़ा और ताकतवर जाति समूह आसानी से डॉमिनेटेड हो सकता है अगर स्थानीय जातीय व्यवस्था में उसकी स्थिति बहुत नीचे न हो.
मराठा समुदाय की तरफ से अब की जा रही मांग 2016 में की गई मांग से अलग है.
2016 में उनकी चार मांगें थीं: सरकारी नौकरी और सरकारी अनुदान से चलने वाले शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार कानून (1956) की कठोरता को कम करना, कोपर्डी कांड के दोषियों को सजा देना और स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करना. हालांकि आंदोलन के अंत तक सिर्फ पहली मांग ही बची रह गई थी.
मराठा आरक्षण के लिए मौजूदा आंदोलन अंतरवाली सराती गांव से शुरू हुआ जहां जालना जिले के मराठा समुदाय के लोग अपने आप इस मांग को लेकर इकट्ठा हुए.
मगर आंदोलनकारियों पर पुलिस की कार्रवाई से प्रदर्शन कई गुना बड़ा हो गया, जिसके बाद मनोज जरांगे पाटिल ने आरक्षण के लिए भूख हड़ताल शुरू कर दी.
इस आंदोलन की शुरुआत जालना से हुई, जो आजादी से पहले निजाम की रियासत का एक हिस्सा था, जहां ऐसा दावा किया जाता है कि कुनबियों को पिछड़ा माना जाता था और इसके चलते उन्हें आरक्षण दिया गया था.
यह भी दिलचस्प बात है कि कुनबी मूल रूप से ‘खेतिहर’ वर्ग के लोग थे, जिन्हें महाराष्ट्र की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ माना जाता था. दूसरी ओर, 96 कुली मराठा वंश को क्षत्रिय माना जाता है.
मौजूदा मामले में मराठा आरक्षण का सवाल समाज शास्त्रीय और मानव शास्त्रीय रूप से बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि आंदोलनकारी मराठा होने का दावा करते हुए भी कुनबी जाति के सर्टिफिकेट की मांग कर रहे हैं.
सीधे-सीधे कहें तो आंदोलनकारी यह दावा कर रहे हैं कि समुदाय का नाम अलग है लेकिन बनावट में उनकी जाति एक ही है. हालांकि इस पर सवाल पूछा जा सकता है कि अगर यह सच है तो वर्ण विभाजन में कुनबी को ‘शूद्र’ और मराठा को ‘क्षत्रिय’ कैसे माना जाता है?
इसके अलावा, क्या जाति का नाम बदलने, उदाहरण के लिए, मराठा से कुनबी करने, को सरकार स्वीकार कर सकती है? और क्या सभी मराठों को कुनबी कहा जाएगा? ऐसे में महाराष्ट्र की सबसे वर्चस्वशाली जाति का क्या होगा? वहीं, जिनके पास ऐसे दस्तावेजी सबूत नहीं हैं, उन्हें कुनबी का दर्जा कैसे दिया जा सकता है?
एक और खास मुद्दा एक तरफ आरक्षण की वैधता और दूसरी तरफ सरकार की राजनीतिक मजबूरियों का है.
महाराष्ट्र ने 2014 में शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ा वर्ग (ESBC) कानून बनाया. 4 जनवरी 2017 को महाराष्ट्र सरकार ने न्यायमूर्ति गायकवाड़ की अध्यक्षता में महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग गठित करने की अधिसूचना जारी की.
महाराष्ट्र ने आयोग की सिफारिशों के आधार पर 29 नवंबर 2018 को सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा वर्ग कानून, 2018 (SEBC Act, 2018) पारित किया, जिससे सरकारी अनुदान से चलने वाले महाराष्ट्र के शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भर्ती में मराठों के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण दिया गया.
मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. हाई कोर्ट ने सरकार को आरक्षण को 16 प्रतिशत के बजाय 12-13 प्रतिशत करने का निर्देश दिया, जिसका 2018 में महाराष्ट्र विधानमंडल ने सर्वसम्मति से पालन किया.
बाद में, इस आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिसने 5 मई 2021 को अपने फैसले में 50 फीसद की सीमा के चलते आरक्षण को खारिज कर दिया.
जैसा कि पहले बताया गया है, मराठा समुदाय अपनी प्रभावशाली राजनीतिक और आर्थिक ताकत के लिए जाना जाता है और ऐसे हालात में उनका पिछड़ापन साबित करना मुश्किल हो जाता है.
हालांकि, यह स्वीकार करना होगा कि पिछले कुछ सालों में खेतों के बंटवारे के चलते, जमीनों का प्रति व्यक्ति मालिकाना कम हो गया है, और मानसून की अनिश्चितता से पैदावार घट गई है, और उच्च शिक्षा संस्थानों में तुलनात्मक रूप से इनकी भागीदारी कम हुई है, जिससे सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी कम हुई है.
दूसरी और सबसे खास बात मौजूदा सरकार की राजनीतिक मजबूरी की है. आंदोलन का समय बहुत सटीक है. आबादी में लगभग 31 फीसद की बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले “असरदार और राजनीतिक रूप से जागरूक" मराठा महाराष्ट्र में आंदोलन कर रहे हैं. सरकार हालांकि आंदोलन को बेहतर तरीके से थामने की कोशिश कर सकती है, लेकिन उसे भी पता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ध्यान में रखते हुए मराठा आरक्षण पर उसके पास बहुत कम विकल्प हैं.
मौजूदा आंदोलन में सबसे बड़ा फर्क यह है कि आरक्षण की मांग के लिए अपने पिछड़ेपन को साबित करने के लिए वो सभी उपायों का इस्तेमाल कर चुके हैं.
पिछड़ा वर्ग के दूसरे समुदाय मराठा समुदाय के साथ अपना हिस्सा बांटने को राजी नहीं होंगे क्योंकि पिछड़ा वर्ग में बड़ी आबादी को समायोजित करने पर उनकी हिस्सेदारी कम हो जाएगी.
इसके साथ ही, धनगर और दूसरी जातियों के लोगों ने भी सरकार से आरक्षण की मांग करना शुरू कर दिया है. अगर दूसरी जातियां महाराष्ट्र में आरक्षण की मांग शुरू कर देती हैं तो सरकार के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है.
(लेखक अकादमिक शख्सियत हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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