advertisement
हमारे भारत देश में जहां अकसर हर घटना का राजनीतिकरण हो जाता है वहीं मध्य प्रदेश में हिंदी में MBBS कोर्स की शुरुआत एक बड़ी रोचक चर्चा का विषय बन गई है.
इससे पहले कि हम मुख्य मुद्दों पर विचार करें, एक बात तो तय है कि हिंदी भारत में सबसे बड़े भूभाग में बोले जाने वाली भाषा है, जिसे दो तिहाई लोग बोल व समझ सकते हैं. उधर मात्र 6% लोगों को अंग्रेजी जैसे तैसे बोलनी आती है. जाहिर है कि बहुत से मेडिकल छात्र इस 94% जनता का भाग हैं, जिसे अंग्रेजी का ज्ञान लगभग न के बराबर है. इस कारण मेधावी होने के बावजूद, वे पाठ्यक्रम को समझने के लिए हर समय जूझते रहते हैं.
लगभग 32 वर्ष पहले इंदौर के डॉक्टर मनोहर भंडारी ने एमबीबीएस की पढ़ाई हिंदी में कराने के लिए एक लंबी लड़ाई की शुरुआत की थी. 1992 में डॉक्टर भंडारी ने एमडी का शोध प्रबंधन (थीसिस) हिंदी में प्रस्तुत किया था और पूरे देश में उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी. उनके इस अनुभव का लाभ उठाते हुए उन्हें मध्य प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री ने 14 सदस्यों वाली उस समिति में मनोनीत किया जो कि हिंदी में एमबीबीएस का पाठ्यक्रम तैयार करने और लागू करने के लिए बनाई गई थी.
मध्य प्रदेश के बाद अब उत्तर प्रदेश ने भी एमबीबीएस को अगले वर्ष से हिंदी में पढ़ाने की घोषणा कर दी है.
आलोचना के अधिकतर बिंदु तथ्यों पर आधारित न होकर एक गहरी पैठी हुई सोच का परिणाम है, वह यह कि हिंदी में मेडिकल पाठ्यक्रम न तो बनाया जा सकता है और न उसको लागू किया जा सकता है.
वास्तव में आलोचकों का सबसे बड़ा मुद्दा है हिंदी में न तो पाठ्य पुस्तकें और न ही शोध ग्रंथ उपलब्ध हैं. परंतु आज के युग में इसका हल सबसे सरल है. अब किसी भी भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद मशीन लर्निंग के द्वारा कुछ क्षणों में हो जाता है और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथी) के अधिकतर तकनीकी शब्द वैसे भी लैटिन या ग्रीक में हैं, बहुत कम केवल अंग्रेजी में हैं.
दूसरी बात, इन पारिभाषिक (terminology) शब्दों का परिवर्तन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है. वे अपने मूल रूप में ही उपयोग किए जा सकते हैं क्योंकि भाषा तो केवल ज्ञान के संचार की वाहिनी है.
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (modern medical science) के लगभग सभी विषयों की मूल पुस्तकें पहले से ही 10 से 11 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं, उनका हिंदी में अनुवाद करने में कोई भी समस्या नहीं आनी चाहिए. कहा जा रहा है कि उच्च स्तरीय शोध पत्रिकाएं केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं और यदि हमारे डॉक्टर हिंदी में शोधपत्र लिखना चाहेंगे तो वह स्वीकार्य नहीं होगा.
इस बात में भी कुछ ज्यादा दम नहीं है क्योंकि खासतौर से यूरोप के बहुत से विकसित देश अपनी अपनी भाषा में अपनी रिसर्च प्रकाशित करते रहते हैं और बहुत बार इंग्लिश में उनका अनुवाद भी उपलब्ध कराया जाता है.
यदि चीन, रुस और यूक्रेन जैसे देशों से पढ़ कर आए मेडिकल के छात्र यहां पर आकर किसी न किसी रूप में प्रैक्टिस प्रारंभ करते हैं, तो वह यह सिद्ध करते हैं कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान केवल अंग्रेजी में ही नहीं पढ़ाया लिखाया जा सकता है.
किसी भी देश या क्षेत्र की अपनी विशिष्ट (specific) बीमारियां होती हैं, जिसके बारे में वहीं के डॉक्टरों को ज्यादा पता होता है और ज्यादा रिसर्च भी वहीं होती है, लेकिन अभी तक लगभग सभी अंग्रेजी की पुस्तकें पश्चिम में प्रकाशित होती है, तो भारतीय बीमारियों का उल्लेख उसमें बहुत कम होता है. हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई करने से यहां के डॉक्टर उन बीमारियों का अच्छी तरह से अध्ययन करके अपनी भाषा में उसका साहित्य तैयार कर सकेंगे और उसका प्रसार बाकी सब डॉक्टरों के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा.
इसी प्रकार से क्षेत्रीय भाषाओं में भी मेडिकल की पढ़ाई शुरू की जा सकती है , उसके अंदर केवल एक सीमा रहेगी कि उस भाषा के डॉक्टर अपने क्षेत्र या प्रदेश से बाहर आकर प्रैक्टिस नहीं कर पाएंगे.
सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी को मेडिकल की पढ़ाई का माध्यम चुन के हम अपनी गहरी पैठी हुई मानसिक परतंत्रता (dependency) का लबादा उतार फेंकने की ओर एक कदम बढ़ा रहे हैं और उसका स्वागत होना चाहिए. आवश्यकता केवल अपनी भाषा पर गर्व की है.
(डॉ अश्विनी सेत्या मेदांता - द मेडिसिटी गुरुग्राम के मेदांता डाइजेस्टिव एंड हेपाटोबिलियरी इंस्टिट्यूट में सीनियर कन्सल्टंट हैं. उनसे ashwini.setya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. आर्टिकल में छपे विचार लेखक के अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined