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भारत के नवाबी मिजाज वाले नीति-निर्माता अपने दिशा-निर्देशों और सरकारी आदेशों के जरिए देश की अर्थव्यवस्था पर राज करते हैं. लेकिन इस हफ्ते बाजार ने उनके अहंकार को ठोकर मार दी.
मैं: लेडीज एंड जेंटलमेन, मुझे पता है कि आज सुबह से ही आप लोग देश के आला अफसरों से मिलते रहे हैं, जिन्होंने आपको ऐसे ढेरों शानदार कदमों के बारे में बताया है, जो इस सरकार ने हमारी अर्थव्यवस्था के लिए उठाए हैं. लेकिन मुझे खेद है कि मैं आपको कुछ अलग ही कहानी सुनाने जा रहा हूं.
द इकॉनमिस्ट ने प्रधानमंत्री मोदी को "टिंकरर" यानी जोड़-तोड़ और जुगाड़ में माहिर मेकैनिक कहा है. मैं उनसे कुछ हद तक असमत हूं. मैं इसे एक ऐसी बड़बोली और आक्रामक सरकार मानता हूं, जो बेबी स्टेप्स को भी बढ़ा-चढ़ाकर परोसती है. इस सरकार ने अपने गलतियों की शुरुआत उस वक्त की थी, जब उसने पेट्रोल से हुई अप्रत्याशित कमाई का सही इस्तेमाल करने की बजाय "टैक्स बढ़ाओ-खर्च बढ़ाओ" का रास्ता अपना लिया.
नरेंद्र मोदी की स्थिति नेपोलियन के उस कहावत वाले "लकी जनरल" जैसी थी, जिसे 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिबरलाइजेशन के बाद पहली बार एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार के नेतृत्व का मौका मिला. उनकी किस्मत तब और चमकी, जब कच्चे तेल की कीमतें 2014 के 108 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 2016 में 30 डॉलर प्रति बैरल पर आ गईं. उनकी सरकार को करीब तीन साल में लगभग 100 अरब डॉलर की अप्रत्याशित कमाई हुई थी.
जरा कल्पना कीजिए, अगर सरकार ने पेट्रोल पंप पर बिकने वाले पेट्रोल-डीजल के दामों में कटौती करके इसका फायदा आम जनता तक पहुंचाया होता, तो क्या होता? प्राइवेट डिमांड और कॉरपोरेट इनवेस्टमेंट के लिए इससे जबरदस्त टैक्स स्टिमुलस यानी प्रोत्साहन भला और क्या हो सकता था?
(*) 2008 में अमेरिका के सब-प्राइम संकट को दूर करने के लिए राष्ट्रपति बुश और फेडरल रिजर्व चीफ बेन बर्नान्के की पहल पर शुरू किए गए “Troubled Asset Relief Programme” को ही संक्षेप में TARP कहते हैं.
लेकिन मोदी ने ऐसा करने की बजाय तेल पर टैक्स को बढ़ाकर दोगुना-तिगुना कर दिया, ताकि कीमतों में गिरावट से होने वाली बचत को आम लोगों की जेब से छीनकर सरकारी खजाने में भर लिया जाए. इस कमाई को भारी-भरकम वेलफेलफेयर प्रोग्राम पर खर्च करके मोदी ने समस्या को और उलझा दिया, क्योंकि ऐसे प्रोग्राम पैसों की बर्बादी और संसाधनों के रिसाव के लिए हमेशा से बदनाम रहे हैं. इस बात को समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है : फर्जी आधार कार्ड और बायोमेट्रिक पहचान का इस्तेमाल करके गैरकानूनी तरीके से 2 लाख टन अनाज की हेराफेरी की गई, वो भी उत्तर प्रदेश के सिर्फ एक ही जिले में!
अगर सरकार वेलफेयर स्कीम्स को वापस लेने की सोचे, तो राजनीतिक माहौल और समर्थकों के छिटकने का खतरा है. लेकिन अगर मोदी कुछ नहीं करते, तो उनके कथित राष्ट्रवादी समर्थक उन्हें रुपये को कमजोर करने का कसूरवार ठहराएंगे, जिसे वो अपनी गलतफहमी की वजह से भारत के गौरव का प्रतीक मानते हैं.
इसलिए, लेडीज एंड जेंटलमेन, मोदी के "पेट्रोल वाले पुराने पाप" ने जिन चूजों को जन्म दिया था, वो अब बड़े होकर अंडे देने लगे हैं..
मेरी ये बातें सुनने के बाद कुछ श्रोता उत्तेजित होकर कहने लगे:
ठीक है, हम मान लेते हैं कि मोदी ने देश की ऑयल इकनॉमी का तेल निकाल दिया है. लेकिन सिर्फ एक ही मोर्चे पर नाकामी के चलते किसी को खारिज नहीं किया जा सकता. सिर्फ इसी गलत फैसले के आधार पर आप उन्हें सरकारी वर्चस्ववाद बढ़ाने वाला कैसे कह सकते हैं ?
मैं: अगर ऐसी बात है, तो अब मैं आपको माइनॉरिटी शेयरहोल्डर के अधिकारों के दमन और रेगुलेटर पर कब्जा जमाए जाने का शर्मनाक वाकया बताता हूं. इस साल की शुरुआत में मोदी सरकार अपना विनिवेश लक्ष्य हासिल करने से काफी पीछे रह गई थी. उसे संकट से बाहर आने के लिए फौरन पैसे चाहिए थे. इन हालात में उसने अपनी नाकामी को छिपाने के लिए एक बिलकुल बेढंगा उपाय खोजा. तेल निकालने का काम करने वाली विशाल सरकारी कंपनी ओएनजीसी को मजबूर किया गया कि वो एचपीसीएल में सरकार की हिस्सेदारी खरीदने के लिए करीब 6 अरब डॉलर का भुगतान करे.
इस छलावे को जायज ठहराने के लिए पेट्रोलियम मंत्री ने तर्क दिया कि ये “वर्टिकल मर्जर” बिजनेस के लिहाज से समझदारी भरा कदम है. लेकिन ये तो “वर्टिकल मर्जर” था ही नहीं - अगर वाकई ऐसा किया जाता, तो ओएनजीसी के 6 अरब डॉलर बच जाते, जो लाखों शेयरधारकों के भी हित में होता.
लेकिन यहां तो सरकार ने मनमानी करते हुए ओएनजीसी की बैलेंस शीट से कैश निकालकर अपने खजाने में डाल दिया था, जो माइनॉरिटी शेयरहोल्डर के अधिकारों का हनन है. इससे भी बुरी बात ये कि सरकार की मनमानी इतने पर ही नहीं रुकी. कानून के मुताबिक ओएनजीसी को 26 फीसदी और शेयर खरीदने के लिए ओपन ऑफर देना चाहिए था, जिससे एचपीसीएल के उन सभी शेयरधारकों को भी अपनी पूंजी निकालने का मौका मिलता, जो ऐसा करने के इच्छुक होते.
लेकिन मोदी सरकार ने 40 साल पुराना नेशनलाइजेशन एक्ट दिखाकर दावा किया कि एचपीसीएल का नियंत्रण पेट्रोलियम मंत्रालय की जगह ओएनजीसी के हाथों में चले जाने के बावजूद, वो अब भी एक पब्लिक सेक्टर कंपनी ही है. सेबी (Securities and Exchange Board of India) ने भी सरकार के पिछलग्गू की तरह बर्ताव किया और ओपन ऑफर नहीं लाने की छूट दे दी !
ये एक रेगुलेटरी संस्था पर भारत सरकार द्वारा खुलेआम कब्जा किए जाने की मिसाल है. "ताकतवर सरकार" के अहंकार का खुला प्रदर्शन है.
विदेशी निवेशक अब खामोश थे. मेरी बात कुछ-कुछ उनकी समझ में आने लगी थी. फिर भी कुछ लोगों ने सवाल किया:
ठीक है, माना कि ये दो उदाहरण गलत फैसलों के हैं. लेकिन इस सरकार ने दूसरे कई मामलों में काफी बेहतर काम भी किया है. आपको उसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैं?
मैं तो ऐसे किसी मौके का इंतजार ही कर रहा था, जिसे मैंने बड़ी खुशी से लपक लिया.
मैं: ओह... तो आपको और सबूत चाहिए. ठीक है न? आप जानना चाहते हैं कि मोदी किस तरह बाजार के अदृश्य हाथों के नहीं, बल्कि अपनी सख्त मुट्ठी में जकड़कर रखने वाले कड़े सरकारी नियंत्रण के समर्थक हैं? मुझे आशंका है कि अब मैं आपको जिस खराब स्थिति के बारे में बताने जा रहा हूं, उसे सुनने में आपको जरा भी आनंद नहीं आएगा.
साफ दिख रहा था कि मेरे श्रोताओं के लिए इतना काफी था. ज्यादातर लोग हॉल से उठकर जाने लगे थे. तभी कॉकटेल आवर के शुरू होने की घंटी बज गई. अपनी निराशा को बार में डुबोने का वक्त हो चला था...
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Published: 23 Sep 2018,06:20 PM IST