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जब तक किसी देश का समाज अंदर से बंटा हुआ है, ध्रुवीकरण वाली राजनीति है और दुनिया के देशों के साथ मित्रता, शांतिपूर्ण और सहयोग का संबंध बनाने में वह देश विफल है, तब तक उस देश का उदय उसकी पूरी क्षमता, महानता और गौरव के साथ नहीं हो सकता.
बहरहाल, एक परिपक्व और दूरदर्शी देश सौहार्द्र कायम करने में तभी सक्षम होता है, जब वह अतीत से सीखने और दूसरे देशों के अनुभवों से सही सबक लेने की बुद्धिमानी दिखाता है. वह न तो अपने अतीत से बेपरवाह रहता है, न ही जो कुछ था, और है, उसे पहचानने से इनकार करता है. वह दूसरे देशों के अनुभवों, उनकी सभ्यता और संस्कृति से सही और मूल्यवान सीख लेता है.
इसी तरह अपने सभी नायकों की सराहना करते हुए और उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते हुए यह दो खतरनाक जालों में फंसने से बच जाता है- एक है नायक की अंधभक्ति और व्यक्तित्व निर्माण; और दूसरा, अपने महान ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को शातिराना तरीके से खलनायक बना देना. वे देश जो एक या दूसरे किसी भी जाल में फंस जाते हैं और कुछ देश जो दोनों में फंस जाते हैं, उन्हें निश्चित रूप से कई तरह की अशांति और आघात का सामना करना पड़ता है.
एक और अधिक उपयोगी उदाहरण चीन से है. माओ-त्से-तुंग की नायक के रूप में पूजा ने सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) के दौरान खतरनाक रूप ले लिया, जो आधुनिक चीन के इतिहास में देश को सबसे ज्यादा अस्थिर और कमजोर बनाने वाला प्रकरण है. माओवाद उनके अनुयायियों के किए कई बुरे अपराधों और उनकी गंभीर भूलों को छिपाने की वजह बन गया. यहां तक कि जब यह बुरे सपनों वाला दौर खत्म हुआ, तो चीन में सुधार और खुलेपन के लिए मशहूर दूरदर्शी और चतुर नेता डेंग शियाओपिंग ने यह सुनिश्चित किया कि माओ का जिक्र इतिहास के पन्नों में खलनायक की तरह बदनाम होकर दर्ज ना हो. अगर उसने ऐसा किया होता तो चीन उथल-पुथल के एक और लंबे दौर में डूब जाता. इसके बजाए डेंग ने गणित लगाया कि माओ ‘70 फीसदी सही और 30 फीसदी गलत’ थे. हम नहीं जानते कि यह आकलन कितना सही है, लेकिन हम यह जानते हैं कि इसने चीन को जो सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता प्रदान की. इस वजह से चीन ने बीते चार दशकों में कई मोर्चों पर शानदार प्रगति की है.
भारत में समकालीन सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं को संतुलित तरीके से देखने के लिए उपरोक्त प्रस्तावना जरूरी थी और इसी संदर्भ में हम इस बात की समीक्षा करते हैं कि क्यों सत्ताधारी भगवा प्रतिष्ठान पंडित जवाहरलाल नेहरू का कद घटाने की कोशिश कर रहा है, उन्हें मूल रूप से देशद्रोही बता रहा है.
प्रधानमंत्री और उनके शिष्यों का यह प्रयास निश्चय ही असफल होगा क्योंकि मुख्य रूप से यह झूठ के पैरों पर खड़ा है. लेकिन इस लेख में मेरी ओर से जवाबी कोशिश का मकसद बड़ा है : यह दिखाना है कि वास्तव में दोनों ओर के वैचारिक मतभेदों से इतर किस तरह नेहरू भारतीय जनता पार्टी (संभवत: मोदी के बाद वाली बीजेपी) और कांग्रेस को भारत के व्यापक हित में एक-दूसरे के करीब ला सकते हैं.
सबसे पहले कुछ बुनियादी तथ्य. नेहरू उन दिग्गज नेताओं की जमात से थे जिन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से आजादी दिलाने के लिए संघर्ष किया. आजादी के बाद के दौर में उनका कद बहुत बड़ा था जिन्होंने भारतीय इतिहास के सबसे दुखद रक्तरंजित बंटवारे के बाद मजबूत नेतृत्व दिया. वे वैश्विक कद वाले नेता थे जिन्होंने गौरवपूर्ण, आधुनिक और आत्मनिर्भर भारत की आधारशिला रखी. जी हां, नेहरू ने अपने राष्ट्र निर्माण के प्रोजेक्ट का आधार आत्मनिर्भरता को बनाया था. कोरोना संकट से मजबूर होकर प्रधानमंत्री मोदी के ऐसा कहने से बहुत पहले उन्होंने आत्म-निर्भरता को राष्ट्रीय जरूरत के रूप में देखा था.
अपने समय में भारतीय जनता का हर दिल अजीज होकर वे सबसे लंबे समय तक भारत के प्रधानमंत्री रहे. यह एक ऐसा रिकॉर्ड है जिसे वर्तमान और भविष्य के प्रधानमंत्रियों के लिए तोड़ पाना संभव नहीं लगता.
बेशक नेहरू ने कुछ ऐसी भूलें कीं, जो महंगी पड़ीं. लेकिन दुनिया के इतिहास में ऐसा कोई भी नेता है जिन्होंने गलती नहीं की? उनकी सबसे बड़ी गलती है अपने जीवन काल में पाकिस्तान के साथ कश्मीर मुद्दे को हल कर पाने में विफलतता. और दूसरी बड़ी गलती है चीन के साथ युद्ध रोक पाने में उनकी असफलता और 1962 के युद्ध में भारत की पराजय. फिर भी, ऐतिहासिक तथ्यों के साथ वफादार रहते हुए अगर हम डेंग फॉर्मूले के तहत उनकी विरासत का मूल्यांकन करते हैं तो निस्संदेह हमारा निष्कर्ष होगा कि नेहरू की उपलब्धियां उनकी असफलताओं और गलतियों से कहीं अधिक वजनदार हैं.
लेकिन मोदी और उनके ‘भक्त’ पंडितजी को ऐसे नहीं आंकते. (मैं जान बूझकर ‘पंडित’ बोल रहा हूं क्योंकि नेहरू को आम तौर पर उनकी पीढ़ी के महानतम विद्वान राजनीतिज्ञों में विश्व स्तर पर शुमार किया जाता है) अगर उनके विरुद्ध निम्नस्तरीय प्रोपेगेंडा को कोई ऐसा व्यक्ति सुनता है जिन्हें जानकारी नहीं है तो वह यही समझेगा कि आज के भारत की तकरीबन सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार नेहरू ही हैं.
क्यों भारत में आज भी गरीबी और पिछड़ापन है? “नेहरू की ‘समाजवादी’ नीतियों के कारण.” (इस बात को भूल जाते हैं कि 1950 के दशक में अर्थव्यवस्था के चुनिंदा क्षेत्रों में मजबूत सार्वजनिक लोक उपक्रमों का निर्माण भारत को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने के लिए आवश्यक था) कश्मीर समस्या से भारत आज भी परेशान क्यों है? “क्योंकि नेहरू ने सरदार पटेल को जिम्मेदारी नहीं दी कि वे जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल करें” (कभी इस निर्विवाद तथ्य पर ध्यान न दें कि वास्तव में पटेल जूनागढ़ को भारत में मिलाने के बदले पूरा कश्मीर घाटी पाकिस्तान को सौंप देना चाहते थे)
भारत वैश्विक शक्ति के रूप में क्यों नहीं उभरा? “क्योंकि नेहरू ने अमेरिका और दूसरी पश्चिमी ताकतों के साथ जुड़ने के बजाए गुटनिरपेक्ष नीति का अनुसरण किया” (इस बात पर ध्यान न दें कि गुटनिरपेक्षता ने भारत को विश्व शांति के लिए स्वतंत्र विदेश नीति पर आगे बढ़ने में मदद की, जिससे एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी)
मोदी और उनके अनुयायी नेहरू की विरासत को मिट्टी में मिला रहे हैं तो इसके चार पहलू हैं. एक, पटेल को नेहरू के मुकाबले बड़ा दिखाए जाने की अजीबोगरीब कोशिश, जिस बारे में हमें यह विश्वास दिलाया जाता है कि नेहरू महात्मा गांधी से मिल गये और सरदार को भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया. यह प्रोपेगेंडा, जो तमाम उपलब्ध तथ्यों के सामने नहीं टिकता, स्वाभाविक रूप से यह दिखाने के लिए किया जाता है कि पटेल नेहरू के नेतृत्व के जबरदस्त विरोधी थे.
तीसरा हिस्सा है भारतीय राजनीति को ‘कांग्रेस मुक्त’ बनाने का उनका नारा. भ्रामक और लोकतंत्र विरोधी होने की वजह से व्यर्थ के इस नारे के पीछे की सोच है कि अगर कांग्रेस को भारतीय राजनीति में किनारे धकेल दिया जाता है तो नेहरू की विरासत (और जो कि नेहरू-गांधी परिवार है) अपने आप अप्रासंगिक हो जाएगी.
चौथी बात है (और यह खास तौर से मोदी भक्तों की इस कोशिश को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है कि वे भारत के दर्शन को फिर से लिखने की कोशिश में लगे हैं) भारतीय हिन्दुओं के दिमाग में यह भर देना कि नेहरू हिन्दू विरोधी और मुस्लिम परस्त थे और इसलिए नेहरूवादी लोकतंत्र भी ऐसा ही है.
अगर हम समग्रता में इस नेहरू विरोधी प्रोपेगेंडा को देखते हैं तो यह साफ हो जाता है कि भारतीय समाज सांप्रदायिक रूप से बंट गया है जैसा पहले कभी नहीं था. और, भारतीय राजनीति इतनी अधिक ध्रुवीकृत हो गयी है कि बीजेपी और कांग्रेस दो मुख्य राष्ट्रीय दलों के बीच किसी भी अर्थपूर्ण संवाद और सहयोग के लिए जगह नहीं रह गयी है.
आइए थोड़ा रुकते हैं और खुद से दो प्रासंगिक सवाल करते हैं : क्या मोदी से पहले की बीजेपी नेहरू को खलनायक के रूप में देखती थी? दूसरा, क्या नेहरू ने खुद भारतीय जनसंघ को राजनीतिक दुश्मन के रूप में देखा, जिसे भारतीय राजनीति से बाहर कर दिए जाने की आवश्यकता हो?
इन सवालों का जवाब देने के लिए एकमात्र भरोसेमंद स्रोत है ऐतिहासिक तथ्य. और ये तथ्य स्पष्ट तौर पर यह स्थापित करते हैं कि मोदी से पहले की बीजेपी का नेहरू के प्रति व्यवहार बिल्कुल अलग था. राजनीतिक मतभेदों के बावजूद जनसंघ और बाद में बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं में उनके लिए वाजिब सम्मान था. उदाहरण के लिए देखें कि वाजपेयी ने 1964 में नेहरू की मौत के कुछ दिन बाद संसद में अपना दुख किस तरह व्यक्त किया : “...एक सपना अधूरा रह गया है, एक गीत शांत हो गया है और अग्नि की एक लौ अज्ञात में विलीन हो गयी है. वह सपना था भय और भूख से दुनिया को आजाद करने का, वह गीत जिसमें गीता की भावना वाला महाकाव्य उद्घोष था और जो गुलाब की तरह सुगंधित था, मोमबत्ती की ऐसी लौ जो पूरी रात जलती है हमें रास्ता दिखाती है.”
यह क्षति किसी एक परिवार या समुदाय या पार्टी की नहीं थी. भारत माता इस रूप में नतमस्तक थी मानो “उसका प्यारा राजकुमार चिरनिद्रा में सोने” चला गया हो. मानवता इसलिए दुखी थी क्योंकि उसके ‘सेवक’ और ‘पुजारी’ ने हमेशा के लिए उसका साथ छोड़ दिया. “विश्व मंच का मुख्य अभिनेता अपनी अंतिम भूमिका निभा लेने के बाद प्रस्थान कर गया.“
अटलजी ने आगे जो कहा वह निश्चित रूप से कई मोदी समर्थकों को उद्वेलित करेगा. उन्होंने नेहरू की तुलना किसी और से नहीं राम से की! “पंडितजी के जीवन में हम आदर्श भावनाओं की वो झलक देखते हैं जो वाल्मीकि की गाथा में है.” राम की तरह नेहरू भी “असंभव और नामुमकिन को संभव बनाने वाले ऑर्केस्ट्रेटर” थे. अटलजी ने यह कहते हुए कि “उनकी जगह कोई नहीं ले सकता” आगे कहा, “व्यक्तित्व की वह ताकत, वह जीवंतता और आजाद सोच, विरोधियों और दुश्मनों को दोस्त बनाने लेने का वह गुण, वह सभ्यता, वह महानता- यह शायद किसी और में देखने को नहीं मिलेगी.” (मोदीजी, कृपया इटैलिक शब्दों पर ध्यान दें.)
नेहरू की मौत ने भारत को अनिश्चितता के भंवर में धकेल दिया था. इस नयी वास्तविकता का संज्ञान लेते हुए अटलजी ने भारतीयों से आह्वान किया कि वे उनके आदर्श-गणतंत्र- के प्रति खुद को नये सिरे से समर्पित करें. “एकता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ हमें हमारे इस गणतंत्र को विकसित करना है. नेता चले गये हैं लेकिन उनके अनुयायी शेष हैं. सूर्य अस्त हो गया है फिर भी हमें तारों की छाया खोजनी है. यह परीक्षा की घड़ी है लेकिन हम अपने आपको उनके महान मकसद के लिए समर्पित करें ताकि भारत मजबूत, सक्षम और समृद्ध हो सके.”
और बीजेपी के एक अन्य आर्किटेक्ट लालकृष्ण आडवाणी नेहरू के बारे में क्या सोचते थे? व्यक्तिगत जानकारी से यहां मैं उसे बताता हूं. वह साल 1997 था. भारत की आजादी के स्वर्ण जयंती उत्सव के लिए तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष आडवाणी ने एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की शुरुआत की जिसे स्वर्ण जयंती रथ यात्रा कहा गया.
इसका मकसद भारत की आजादी के संघर्ष के बारे में चेतना जगाना था. दो महीने तक सड़क मार्ग से भारत के चौक-चौराहों से गुजरते हुए (और भारतीय सड़कें तब बुरी स्थिति में थीं) उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े सभी प्रमुख स्थानों की यात्रा की और राजनीतिक, वैचारिक या धार्मिक पृष्ठभूमि से ऊपर उठते हुए शहीदों और नेताओं को श्रद्धांजलि दी.
उन दिनों मैं आडवाणी के सहयोगी के रूप में काम कर रहा था और इस यात्रा के दौरान पूरे समय उनके साथ था. बाद में इस बारे में मैंने अपनी पुस्तक ‘ए पैट्रियॉटिक पिलिग्रीमेज’ में लिखा है. जब हमारा रथ, जो टाटा ट्रक को काल्पनिक रूप से रीडिजाइन कर बनाया गया था, 27 मई को चेन्नई पहुंचा तो मैंने आडवाणीजी को सुझाव दिया कि पंडित नेहरू की पुण्य तिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि देना उचित होगा. अपने प्रेस बयान में आडवाणी ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की “उनके आदर्शवाद के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन और भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में उनके योगदान के लिए” तारीफ की. उनकी नीतियों से बीजेपी की असहमति के बावजूद आडवाणी ने कहा, “हम पाते हैं कि स्वतंत्रता के युग में नेहरू विशाल व्यक्तित्व के धनी थे. एक ऐसे समय में जब खुद उनकी ही पार्टी के नेताओं ने उनके विचारों और आदर्शों को पूरी तरह से त्याग दिया है, बीजेपी का मानना है कि नेहरू के जीवन के सकारात्मक पहलुओं को याद करने से भारत की राजनीतिक संस्कृति के पतन को रोका जा सकता है.”
इसी तरह कितने कांग्रेसी नेता और उनके अनुयायी इस तथ्य को जानते हैं या इसकी परवाह करते हैं कि नेहरू ने कभी भी जनसंघ को राजनीतिक दुश्मन के तौर पर नहीं देखा? नेहरू के जनसंघ के साथ बहुत गंभीर वैचारिक और राजनीतिक मतभेद थे. फिर भी, गांधीजी के आग्रह पर उन्होंने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को (जिन्होंने बाद में 1951 में जनसंघ की स्थापना की) अपनी पहली कैबिनेट में मंत्री के तौर पर शामिल किया. उनके बीच कभी अच्छे संबंध नहीं रहे. बहरहाल इस वजह से नेहरू ने वाजपेयी की (जिन्होंने मुखर्जी के राजनीतिक सचिव के तौर पर काम किया) जबरदस्त तारीफ करनी नहीं छोड़ दी जिन्होंने बाद में 1957 में अपने संसदीय करियर की शुरुआत की. वाजपेयी का परिचय एक विदेशी मेहमानों से कराते हुए नेहरू ने यह भविष्यवाणी की थी : “यह युवक एक दिन हमारे देश का प्रधानमंत्री बनेगा.”
बेशक यह तथ्य सबको पता है. लेकिन नेहरू के उदार व्यक्तित्व और उनमें जन्मजात लोकतांत्रिक भावना के बारे में एक ऐसा तथ्य मैं बता रहा हूं जिस बारे में कम लोग जानते हैं. दृश्य नयी दिल्ली के तीन मूर्ति भवन के लॉउन्ज का है जो भारत के पहले प्रधानमंत्री का आधिकारिक निवास था. (यह वही जगह है जहां मोदी ने सभी प्रधानमंत्रियों के सम्मान में म्यूजियम बनाने की योजना के साथ नेहरू की उपस्थिति को कमतर करने का फैसला किया है.)
समय : गर्मी के मौसम की एक सुबह, जहां कुछ हफ्ते बाद नेहरू ने इस आलीशान बिल्डिंग के अपने बेडरूम में अंतिम सासें ली थीं. पत्रकारों के एक छोटे से समूह को अनौपचारिक रूप से बैठक के लिए उन्होंने नाश्ते पर बुलाया था. कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर बात की. घरेलू राजनीति के संदर्भ में द पैट्रियॉट के एक पत्रकार ने जनसंघ को लेकर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर दी और उसे ‘देश विरोधी पार्टी’ कह डाला.
(यह घटना ने मुझे लालजी टंडन ने याद दिलायी जो बीजेपी के वरिष्ठ नेता हैं और लखनऊ से हैं. वे वाजपेयी के नजदीकी सहयोगी रहे. अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल हैं. टंडन के अनुसार, उन्होंने यह बात अपने पत्रकार मित्र से सुनी जो नाश्ते के समय उस मीटिंग में नेहरू के साथ थे.)
56 साल पहले नेहरू की मौत के बाद से भारत और दुनिया में काफी बदलाव आ चुका है. आज हम सहूलियत के हिसाब से बहुत आसानी से देख सकते हैं कि जो कुछ उन्होंने किया या कहा, सबकुछ सही नहीं था. इतिहास में किसी समय जो बात सही होती है वह हमेशा एक जैसी नहीं रहती जब घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों परिस्थितियां बदल जाती हैं. इसके अलावा समय बीतने के साथ-साथ कई सारे तथ्य भी आ जाते हैं जिससे लोगों के बीच बहस होती है और ऐतिहासिक तथ्यों को गहनता से एक मकसद के साथ परखा जाता है.
उनकी देशभक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती. लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, आत्मनिर्भरता और समतावादी विकास के लिए उनकी प्रतिबद्धता आज भी प्रेरणा देती है. अपने मेंटर महात्मा गांधी की श्रेष्ठ परंपराओं से जुड़े रहकर नेहरू जीवन भर विश्व शांति, विश्व भ्रातृत्व और कमजोर व वंचित तबके के अधिकारों के लिए समर्पित रहे.
अगर आप पुस्तक प्रेमी हैं, आप पाएंगे कि नेहरू को पढ़ने में भरपूर आनंद है. और क्या वे हिन्दू विरोधी थे? बस केवल आप उनकी ‘लास्ट विल एंड टेस्टामेंट’ पढ़ें. कुछ भारतीयों ने ही मां गंगा और हिमालय के सम्मान में अपनी कलम चलायी है.
निश्चित रूप से बीजेपी और कांग्रेस के बीच कई वैचारिक और राजनीतिक मतभेद खत्म नहीं होंगे. फिर भी अगर दोनों ओर के सही सोच वाले लोग नेहरू के जीवन और विरासत पर नजर डालें- और उस युग की कई अन्य महान स्त्री और पुरुषों के जीवन और विरासत पर भी, जिनकी मान्यताएं अलग-अलग थीं- तो वे पाएंगे कि उनमें परस्पर बांटे जाने से ज्यादा परस्पर जुड़ने वाली चीजें अधिक हैं. इन सबसे ऊपर जो इन दोनों को, और हम सभी को जोड़ती हैं, वह है भारत- प्राचीन और आधुनिक दोनों अवतारों में, नेहरू ने जिससे जीवन के हर सांस में प्यार किया.
इससे पहले मैंने दर्शाया है कि “एक परिपक्व और दूरदर्शी देश अपने अतीत से सीखता है और दूसरे देशों के अनुभवों से सही सबक लेता है. ऐसा करके ही वह विविधताओं और मतभेदों के बीच शांति कायम कर पाता है.” भारत के अतीत से ऋग्वेद में ज्ञान के ये मोती हैं (जिसे नेहरू ने अपने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में “सोच के शुरुआती चरण में मानव मन को सामने लाने” का श्रेय दिया)-
संगच्छध्वम् संवदाध्वम्
संभो-मनानसी जानताम्.
हम साझा लक्ष्य की ओर अग्रसर हों.
हम मन से खुलें और सौहार्द्र के लिए एकसाथ काम करें
हमारी आकांक्षाएं सौहार्दपूर्ण हों
हमारा मन एकाग्र हो
हम अपने मतभेदों को कम करें
हम मित्रता और एकता के मजबूत सूत्र में बंधें
यही एकमात्र रास्ता है जो अपनी पूरी क्षमता के साथ विकास, महानता और गौरव पथ पर भारत को आगे बढ़ाता है.
(लेखक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
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