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जब प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) का यह बयान मैंने सुना तो मुझे बहुत हंसी आई और वास्तव में यही मेरा तरीका था अपने अज्ञानी प्रधानमंत्री के इस हास्यास्पद टिपण्णी पर अपनी प्रतिक्रिया देने का. लेकिन फिर मुझे महसूस हुआ कि यह वही सच्चाई को तोड़ मरोड़ के पेश करने जैसा छल है, जो वह अक्सर करते पाए या सुने जाते हैं.
2024 के लोकसभा चुनावों (Loksabha Election 2024) की शुरुआत से ही प्रधानमंत्री अपने दशक भर के शासन की शानदार विफलता, या कहें कुशासन के लिए विपक्ष के हमले झेल रहे हैं; और कोई भी देख सकता है कि वे हमलों से और अधिक उत्तेजित हो रहे हैं, खासकर जब हमलावर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) रहे हो. प्रधानमंत्री ने इसका जवाब केवल विभाजनकारी और घृणास्पद भाषणों के जरिए से दिया.
मैं यह मानता हूं कि यह टिप्पणी केवल एक अज्ञानी व्यक्ति ही कर सकता है. लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारा दुर्भाग्य है कि एक धूर्त और झूठा व्यक्ति हमारे प्रधानमंत्री के गद्दी पर बैठा हुआ है और इसलिए यह बात साफ है कि पीएम के इस बयान के पीछे उनका कोई उद्देश्य छिपा है, इस दावे को कोई नकार नहीं सकता.
1930 से बापू को अबतक टाइम पत्रिका के चार कवरों पर छापा गया है.
सबसे पहले, उन्हें 1930 में टाइम मैगजीन का 'पर्सन ऑफ द ईयर' घोषित किया गया. उन्हें लाइफ पत्रिका में भी छापा गया था. लेकिन बापू को एक महत्वपूर्ण नेता के रूप में तब से स्वीकार किया जाने लगा था, जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का नेतृत्व किया था. चंपारण सत्याग्रह के दौरान उनके साथी चार्ली एंड्रयूज ने दुनिया भर में उनके दूत के रूप में काम किया और उनके अनूठे सत्याग्रह की खबर दुनिया के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचाई.
दोनों ने न्याय और स्वतंत्रता के लिए अपने जन संघर्ष को बापू के बनाए अहिंसक सत्याग्रह के ढांचे में ढाला. अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन के वरिष्ठ नेता भारत आए और साबरमती और वर्धा में बापू के आश्रमों में उन्हें अहिंसक सत्याग्रह का प्रशिक्षण दिया गया. शिक्षा लेने के बाद वे अमेरिका वापस चले गये और वहां अपने सत्याग्रहियों को प्रशिक्षित किया.
1959 में, डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर और कोरेटा स्कॉट किंग को भारत सरकार द्वारा राजकीय अतिथि के रूप में भारत आमंत्रित किया गया था. भारत आने पर जब दोनों बम्बई पहुंचे तो डॉ. किंग ने अनुरोध किया कि उन्हें पहले मणिभवन ले जाया जाए. वहां उन्होंने उस बंद कमरे में जाने की अनुमति मांगी जहां बापू दिनभर काम करते थे, और वह उस गद्दे के पास ध्यान में बैठ गए, जिस पर बापू बैठकर काम करते थे.
जाते समय उन्होंने विजिटर बुक में लिखा, "मैं गांधीजी के घर में रुका हूं. मैंने उनकी उपस्थिति को महसूस किया है और उनकी आत्मा के साथ एकाकार हुआ हूं. इससे मुझमें अपने लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने का संकल्प फिर से जाग उठा है." यह घटना 1959 की है, उससे कई साल पहले कि जब एटनबरो ने लुइ फिशर की बापू की जीवनी पढ़ी और उस पर आधारित बायोपिक बनाने का फैसला लिया था.
प्रधानमंत्री के कटाक्ष का दूसरा निशाना कांग्रेस पार्टी थी. पीएम ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने बापू को लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ नहीं किया. खैर, यह आरोप भी उस फिल्म के माध्यम से आसानी से झूठा साबित हो जाता है, जिसे वह खुद बापू को दुनिया से परिचित कराने का श्रेय देते हैं.
1960 के दशक के शुरुआत में लुइ फिशर की लिखी बापू की जीवनी पढ़ने के बाद एटनबरो ने गांधी पर एक फिल्म बनाने का निश्चय किया. बीस वर्षों तक उन्हें इस परियोजना के लिए धन जुटाने वाला कोई समर्थक नहीं मिला. उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की और इस विषय पर चर्चा की. नेहरू ने उन्हें सलाह दी कि वे महात्मा गांधी के बारे में एक सादी, ईमानदार फिल्म बनाएं और उनके व्यक्तित्व से अभिभूत न हों, लेकिन उस समय भारत ऐसी परियोजना के लिए फंड मुहैया नहीं करा सकता था.
यह सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को यह बताने के लिए है कि जिस फिल्म को वे बापू की विश्वव्यापी लोकप्रियता के लिए जिम्मेदार मानते हैं, वह इसलिए बन पाई थी क्योंकि उसे कांग्रेस सरकार ने फंड किया था. दूसरी ओर, एनएफडीसी (NFDC) को फिल्म में अपने निवेश पर चार दशक बाद भी अच्छा लाभ मिल रहा है.
मैं प्रधानमंत्री से यह भी अनुरोध करूंगा कि वे महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्हें दी गई श्रद्धांजलि के बारे में गूगल सर्च करें. यह लिस्ट बहुत लंबी है और विश्व भर से गांधी के लिए श्रद्धांजलि और शोक संदेश आए. कवियों ने अपनी कविताओं में वेदना और दुःख व्यक्त किया. भावपूर्ण श्रद्धांजलि लेख लिखे गए और विश्व के लगभग हर प्रमुख दैनिक ने संपादकीय के रूप में श्रद्धांजलि प्रकाशित की.
इसके अलावा, सर चार्ल्स चैपलिन पर भी बापू के प्रभाव पर जरूर विचार करें. जब चार्ली चैपलिन को पता चला कि बापू गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन आ रहे हैं, तो उन्होंने उनसे मिलने का समय मांगा और किंग्सले हॉल में उनसे मिलने चले गए.
यह सारी घटनाएं रिचर्ड एटनबरो की गांधी फिल्म बनाने के बारे में सोचने से भी बहुत पहले की है. मुझे उम्मीद है कि यह हमारे प्रधानमंत्री को जागरूक करने के लिए पर्याप्त होगा.
(तुषार गांधी एक लेखक और महात्मा गांधी के परपोते हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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