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कांग्रेस (Congress) के टॉप लीडरशिप ने जब से अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा (Ram Mandir Pran Pratishtha) समारोह के निमंत्रण को अस्वीकार किया है, पार्टी को लगातार आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. इस पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आहत करने, भगवान राम से मुंह मोड़ने और एक पवित्र कार्यक्रम का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया गया है. जैसा कि अनुमान था, ठीके वैसे ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ हमले का नेतृत्व किया, और घोषणा की कि यह फैसला "भारत की संस्कृति और हिंदू धर्म" के प्रति कांग्रेस के विरोध को दिखाता है.
भले ही, यह अच्छी तरह से पता था कि राम मंदिर के उद्घाटन का निमंत्रण एक जाल की तरह था, और इसे नकारने से कड़ी आलोचना होगी, लेकिन फिर भी कांग्रेस ने निमंत्रण को अस्वीकार करने का साहसी फैसला किया. भले ही कांग्रेस के नेता समारोह में हिस्सा लेते, तब भी उनके खिलाफ बीजेपी का अभियान खत्म नहीं होता. अगर वे निमंत्रण स्वीकार कर लेते, तो भी बीजेपी मजाक उड़ाती कि वोट के लिए कांग्रेस भगवान राम की तलाश कर रही है.
कांग्रेस की तरफ से दिए गए आधिकारिक बयान में कहा गया था कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है और राम मंदिर हमेशा से बीजेपी-आरएसएस का प्रोजेक्ट रहा है. इसमें यह भी कहा गया कि बीजेपी ने आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इससे राजनीतिक फायदा लेने के लिए प्राण प्रतिष्ठा समारोह का समय निर्धारित किया है.
राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान बार-बार कहा है कि कांग्रेस नेताओं ने उद्घाटन समारोह में शामिल नहीं होने का फैसला किया था क्योंकि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित बीजेपी-आरएसएस का समारोह है.
22 जनवरी के कार्यक्रम के लिए चल रही तैयारियों, प्रचार अभियान और उद्घाटन से पहले बीजेपी के फूट सोलजर के जरिए व्यापक सार्वजनिक पहुंच से ये साफ है. सारा फोकस पीएम मोदी पर ही रहा है. यहां तक कि प्राण प्रतिष्ठा का संचालन धार्मिक संत के जरिए नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री द्वारा कराना. भव्य मंच पर उनके साथ आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ होंगे.
इसी पृष्ठभूमि की वजह से कांग्रेस नेताओं ने इस आयोजन से दूर रहने का फैसला किया.
कांग्रेस से शुरुआती गलती यह हुई कि उसने विचार करने में बहुत देरी की, जिससे जनता की यह धारणा मजबूत हुई कि पार्टी अपने रुख को लेकर अनिश्चित थी. एक तरह कांग्रेस नेतृत्व ने अपने विकल्पों पर विचार किया, तो दूसरी तरफ पार्टी के अंदर मतभेद सामने आए और सदस्यों ने अलग-अलग स्वर में बात की. जो तस्वीर सामने आई वह भ्रमित, दिशाहीन कांग्रेस की थी.
अपने राजनीतिक विरोधियों के तीखे हमले और अपने कार्यकर्ताओं की चिंताओं को दूर करने की जरूरत का सामना करते हुए, कांग्रेस जल्द ही डैमेज कंट्रोल मोड में चली गई. लेकिन इस प्रोसेस में, कांग्रेस ने खुद को उलझन में डाल लिया क्योंकि उसने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता को बड़े पैमाने पर यह समझाने की बेताब कोशिश की कि वह राम मंदिर के निर्माण का विरोध नहीं करती है, वह भगवान राम का सम्मान करती है और उन लाखों हिंदू जो राम की पूजा करते हैं उनकी भावनाओं का सम्मान करती है.
कांग्रेस का शुरुआती रुख तब और कमजोर हो गया जब उसने कहा कि उसके नेता उद्घाटन समारोह में शामिल नहीं होंगे, लेकिन बाकी लोग किसी भी दिन राम मंदिर का दौरा करने के लिए आजाद हैं. यह साफ तौर से पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा जाहिर की गई आशंकाओं का जवाब था, जो नेतृत्व के फैसले से सहमत नहीं थे. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस नेताओं के एक ग्रुप ने मकर संक्रांति पर सरयू नदी में डुबकी लगाई, जबकि बाकी ने राम मंदिर में पूजा करने की योजना की घोषणा की है.
कांग्रेस के बाद के स्पष्टीकरणों ने एक बार फिर पार्टी में वैचारिक स्पष्टता की कमी को उजागर किया. यह कांग्रेस के पहले की तरह खेले गए सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड से अलग नहीं था, जब राहुल गांधी ने मंदिरों का दौरा करने की कोशिश की थी और पार्टी ने उन्हें जनेऊधारी ब्राह्मण के रूप में प्रोजेक्ट किया था.
अगर और पीछे जाएं तो, यह राजीव गांधी ही थे जिन्होंने राम जन्मभूमि स्थल पर ताले खोलने के फैसले का समर्थन किया था. उनकी सरकार ने मंदिर के शिलान्यास की अनुमति देकर इसका पालन किया. इसके बाद राजीव गांधी ने राम राज्य लाने के वादे के साथ 1989 में अपना चुनाव अभियान अयोध्या से शुरू किया. उस चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई, उसकी सीटें 404 से घटकर 197 रह गईं, जबकि बीजेपी की संख्या में बड़ा उछाल आया और उसके बाद से उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
इसके बाद भी कांग्रेस अपने पिछले अनुभव से सबक सीखने में फेल रही है. पहले के उदाहरणों की तरह, पार्टी ने उन चार शंकराचार्यों का हवाला देकर अपने फैसले का बचाव करने की कोशिश की जो इस आधार पर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल नहीं हो रहे हैं कि यह धर्म शास्त्रों का उल्लंघन है. आगे पार्टी ने शास्त्रों का हवाला देते हुए ये भी बताया किया कि अधूरे मंदिर में प्रतिष्ठा समारोह आयोजित नहीं किया जा सकता है.
साफ तौर से, धर्मनिरपेक्षता पर संवैधानिक स्थिति की तरफ कांग्रेस पार्टी की कोशिश अल्पकालिक साबित हुई.
(अनीता कत्याल दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे @anitaakat पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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