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राम मंदिर पर राजीव गांधी का रुख क्या था? मणिशंकर अय्यर की नई किताब में खुलासा

Ayodhya Ram Mandir: निम्नलिखित अंश बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मुद्दे पर राजीव गांधी के रूख के बारे में है.

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(ये आर्टिकल मणिशंकर अय्यर की किताब 'द राजीव आई न्यू एंड व्हाई ही वाज़ इंडियाज मोस्ट मिसअंडरस्टूड प्राइम मिनिस्टर'' का एक अंश है, जिसे जगरनॉट बुक्स ने प्रकाशित किया है.)

दिसंबर 1949 में, करीब पचास लोगों ने यूपी के अयोध्या में बाबरी मस्जिद में प्रवेश किया और परिसर में राम लला (शिशु राम) की एक मूर्ति रख दी. सांप्रदायिक तनाव के डर से यूपी सरकार ने मस्जिद के गेट पर ताला लगा दिया. इसके लगभग चालीस साल बाद, फरवरी 1986 में, फैजाबाद की एक डिस्ट्रिक्ट सेशन कोर्ट के आदेश से बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोल दिया गया. यही उस विवाद की शुरुआत थी, जो 33 साल बाद 9 सितंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शांत हुआ.

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विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के देवकी नंदन अग्रवाल ने ताला खोलने के बैकग्राउंड के बारे में विस्तार से बताया है. उनका कहना है कि मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने 19 दिसंबर 1985 को अयोध्या का दौरा किया था.

रिटायर्ड जस्टिस शिव नाथ काटजू के नेतृत्व में वीएचपी के एक प्रतिनिधिमंडल ने सीएम से मुलाकात की और तर्क दिया कि अंदर के प्रांगण के दरवाजों पर ताले किसी भी अदालत या मजिस्ट्रेट के आदेश के तहत नहीं लगाए गए थे. ये 'भगवान श्री राम की पूजा करने के संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप है.'

मुख्यमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल की बात 'चुपचाप सुनी', जिससे ऐसा लगा कि उन्होंने 'रिकॉर्ड्स की बारीकी से जांच' करने का आदेश दिया हो.

इसके बाद, जब मामला 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट सेशन जज के सामने उठाया गया, तो जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) ने 'स्पष्ट रूप से स्वीकार किया' कि 'परिसर को बंद करने के लिए किसी भी अदालत या मजिस्ट्रेट का कोई आदेश नहीं था'.

फिर, डीएम और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने पुष्टि की कि 'सार्वजनिक शांति बनाए रखने के लिए ताले जरूरी नहीं थे' और श्री राम जन्मभूमि पर 'कानून और व्यवस्था' बनाई रखी जा सकती है, 'चाहे ताले हों या नहीं'. जिस पर डिस्ट्रिक्ट सेशन जज ने अपील स्वीकार कर ली और ताले हटाने का आदेश दिया.

आदेश दिए जाने के कुछ ही मिनटों के भीतर ताले तोड़ दिए गए, और हिंदू श्रद्धालु का तूफान उमड़ पड़ा. इस घटना को लेकर स्पष्ट रूप से कुछ योजना बनाई गई थी.

निसंदेह, चूंकि कांग्रेस सत्ता में थी, इसलिए दरवाजा खोलने की जिम्मेदारी उसकी थी. लेकिन कांग्रेस में कौन? यूपी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री राजीव गांधी? प्रधानमंत्री ने मुझसे जिस तरह की अजब टिप्पणियां की, उससे संकेत मिला कि उनका इस दुखद घटना से कोई लेना-देना नहीं है और वे बहुत परेशान थे. PMO के एक और अधिकारी, वजाहत हबीबुल्लाह, अल्पसंख्यक मामलों को संभालते थे; इस मामले पर पीएम ने मुझसे न तो पूछा और न ही सलाह ली.

वजाहत हबीबुल्लाह अपने संस्मरण में लिखते हैं कि उन्होंने 'दरवाजों का ताला खोलने का सवाल पीएम के सामने रखा.' राजीव गांधी ने जवाब दिया, 'मुझे इस घटनाक्रम के बारे में कुछ भी नहीं पता था, मुझे जानकारी तो अदालत के आदेश आ जाने के बाद हुई.'

उन्होंने खेद व्यक्त किया कि 'उन्हें इस कार्रवाई के बारे में खबर नहीं किया गया' लेकिन उन्हें संदेह था कि गृह राज्य मंत्री अरुण नेहरू और उनके राजनीतिक सचिव माखन लाल फोतेदार इस बात के लिए जिम्मेदार थे.

उन्होंने कहा कि वह 'इसका सत्यापन करा रहे हैं. अगर यह सच है तो मुझे कार्रवाई पर विचार करना होगा.'

अरुण नेहरू के खिलाफ कार्रवाई करने में राजीव गांधी को जिस राजनीतिक समस्या का सामना करना पड़ा, उसे 31 अक्टूबर 1985 को आंतरिक सुरक्षा के जूनियर मंत्री के रूप में अरुण नेहरू की पदोन्नति के अवसर पर इंडिया टुडे में उनकी प्रोफाइल के जरिए अच्छी तरह से बताया गया.

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अरुण नेहरू को 'राजीव गांधी की सरकार में सबसे तेजी से उभरता सितारा' बताते हुए, लेखकों ने उन पर एक के बाद एक घिसे-पिटे शब्दों के पुल बांध दिए और नेहरू को 'उनके काम में उपयुक्त' बताया, जहां उनमें 'शक्ति की भावना झलकती है', ऐसी आवाज जिसे 'जोर से और स्पष्ट रूप से सुना जाएगा'; 'उस आधार पर अब कई प्रमुख केंद्रीय नीतियां बदल जाएंगी' और 'जिस तरह राजीव प्रशासन अपना आधार मजबूत करेगा, उस पर निस्संदेह नेहरू की छाप दिखेगी.'

फिर, अक्टूबर 1986 में, इंडिया टुडे की गुणगान के ठीक एक साल बाद, अरुण नेहरू को मंत्रिपरिषद से हटा दिया गया.

राजीव गांधी ने इंटरनल पार्टी इंक्वायरी को आदेश दिया क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष ने खुलासा किया था कि माखन लाल फोतेदार नहीं बल्कि अरुण नेहरू अयोध्या में दरवाजा खोलने की साजिश के पीछे थे. इसलिए, अरुण नेहरू को हटा दिया गया, लेकिन फोतेदार को नहीं हटाया गया. इस तरह राजीव गांधी ने इस मामले को अत्यंत स्पष्टता के साथ देखा: एक को दंडित किया और दूसरे को बख्श दिया.

हालांकि, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली अरुण नेहरू को बख्श देना और माखनलाल फोतेदार को दंडित करना ज्यादा आसान रास्ता होता.

सवाल यह है कि क्या अरुण नेहरू प्रधानमंत्री को बिना बताए ही इस तरह की कार्रवाई कर सकते थे? आम तौर पर इस तरह की गुस्ताखी का सवाल नहीं उठता, लेकिन जैसा कि इंडिया टुडे के उसी अंक में लिखा गया था, पार्टी के अंदर अरुण नेहरू के दबदबे का 'एहसास' था, जो और साफ हो जाता है, जब पार्टी के विधायक यूपी में सर्वसम्मति से उनके नामित वीर बहादुर सिंह को नया मुख्यमंत्री चुनते हैं'.

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रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों से पता चलता है कि वीर बहादुर सिंह को अरुण नेहरू के गुप्त उद्देश्य को पूरा करने के लिए, हिंदू भावनाओं को बढ़ावा देकर पार्टी के आधार को मजबूत करने और ताले खुलवाने के लिए चुना गया था.

राजीव गांधी से सलाह नहीं ली गई क्योंकि वे इस तरह के गैर-सैद्धांतिक कदम के लिए कभी सहमत नहीं होते. इसलिए, 'जटिल व्यक्तित्व वाले चचेरे भाई' ने प्रधानमंत्री को ऐसा गिफ्ट देने का फैसला किया, जो इस बात से बेपरवाह (या, शायद, सचेत) था कि इससे सांप्रदायिकता की आग भड़क जाएगी.

और दूसरा सवाल ये है कि क्या न्यायिक आदेश द्वारा ताले खोलने के बाद प्रधानमंत्री दोबारा ताला लगा सकते थे? केवल अदालतें ही उस मुद्दे पर डिस्ट्रिक्ट जज के आदेश को पलट सकती थी, जो निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट में जाता, और इसमें सालों लग जाते, जबकि धार्मिक तनाव बना रहता.

इसके अलावा, फैजाबाद सेशन कोर्ट के फैसले को पहले ही एक सुन्नी मुस्लिम, मोहम्मद हाशिम ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में चुनौती दी थी, और इसके बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपनी याचिका दायर की और यूपी की राज्य सरकार ने भी हस्तक्षेप किया. सेशन कोर्ट के आदेश को पलटने की कोई भी कोशिश सिर्फ आग में घी डालता.

इसलिए, आरजी (राजीव गांधी) ने यह देखने की कोशिश की कि क्या राजनीतिक समझौता संभव है. इस उद्देश्य से, उन्होंने गृह मंत्री बूटा सिंह को अगस्त-सितंबर 1989 में शहर का दौरा करने के लिए नियुक्त किया ताकि मस्जिद के आसपास के क्षेत्र में एक जगह की संभावना का पता लगाया जा सके, जहां मस्जिद को बिना ध्वस्त किए राम मंदिर बनाया जा सके.

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बूटा सिंह, विवादकर्ताओं के साथ मिलकर, राम मंदिर के लिए संभावित स्थान की पहचान करने में सफल रहे, लेकिन या तो उन्हें पता नहीं था या उन्होंने जानबूझकर इस तथ्य को दबा दिया कि इस स्थल का कुछ हिस्सा विवादित क्षेत्र के भीतर है.

जब मेरे पूर्व आईएफएस सहयोगी, और प्रतिष्ठित सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने मुझसे यह आरोप लगाते हुए संपर्क किया कि गृह मंत्री प्रधानमंत्री को गुमराह कर रहे हैं, तो मैंने उनसे कहा कि मैं कुछ नहीं कर सकता क्योंकि पीएमओ का काम विभाजित है, लेकिन उन्हें सुझाव दिया कि एक सांसद के रूप में वह अपनी मांग सीधे प्रधानमंत्री के सामने रख सकते हैं.

मुझे नहीं पता कि शहाबुद्दीन ने मेरी सलाह मानी या नहीं, लेकिन देश जल्द ही आम चुनावों की चपेट में आ गया, जिसमें मंदिर का शिलान्यास समारोह राजीव गांधी की हार का सबसे महत्वपूर्ण कारण बन गया.

अपनी हार के बाद ज्यादातर वक्त राजीव गांधी इस मंदिर/मस्जिद संकट का जवाब खोजने में व्यस्त रहे.

संकट से निपटने के लिए एक वैकल्पिक योजना तैयार करने के लिए उन्होंने खुद को सलाहकारों की एक अच्छी तरह से चुनी हुई मंडली के साथ जोड़ लिया. मैं गुट का हिस्सा नहीं था लेकिन सिर्फ तब साथ आया जब राजीव गांधी की सिफारिश का मसौदा तैयार कर तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्र शेखर को देना था.

सिद्धार्थ शंकर रे, जानेमाने राजनेता-कानूनविद, यह तर्क देने में सबसे आगे थे कि मुद्दे की जड़ यह निर्धारित करने में है कि क्या बाबर के सेनापति मीर बाकी ने वास्तव में बाबरी मस्जिद को बनाने के लिए एक मौजूदा राम मंदिर को तोड़ा था या उसने सिर्फ उस खाली जमीन पर मस्जिद का निर्माण किया था जिस पर अब भगवान राम का जन्मस्थान होने का दावा किया जा रहा है.

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उन्होंने सुझाव दिया कि इसे सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह सम्मानित विशेषज्ञों से ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों को सुनने के बाद इस सीमित लेकिन स्पष्ट प्रश्न पर अपना विचार सुनाए.

रे ने तर्क दिया कि 'असल सवाल' पर सुप्रीम कोर्ट का निश्चित दृष्टिकोण पाने के दो तरीके थे: या तो आर्टिकल 142 के तहत एक फैसले से या संविधान के आर्टिकल 143 के तहत एक एडवाइजरी ओपीनियन से.

आर्टिकल 142 के अंदर, सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण एक आदेश के रूप में देखा जाएगा जोकि 'भारत के हर क्षेत्र में लागू होगा'. अगर इसे आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति के संदर्भ के रूप में सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाया जाता है, तो अदालत का फैसला राष्ट्रपति को व्यक्त की गई एक गैर-बाध्यकारी 'राय' होगी.

रे ने इस मुद्दे को आर्टिकल 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट में उठाने को प्राथमिकता दी क्योंकि इसके परिणामस्वरूप 'बाध्यकारी' आदेश आएगा.

एक और विकल्प यह था कि सुप्रीम कोर्ट से जांच आयोग अधिनियम, 1952 की धारा 3 के तहत एक जांच आयोग बुलाने का अनुरोध किया जाए, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा चुने गए सुप्रीम कोर्ट के पांच मौजूदा जज शामिल हों, ताकि तथ्य के आधार पर ये फैसला हो सके कि क्या विवादित स्थल पर वास्तव में राम मंदिर को तोड़कर कर मस्जिद बनाई गई थी?

अगर यह माना जाता है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के समक्ष लंबित समान सवाल के कारण ऐसा आयोग बनाया नहीं जा सकता है, तो सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए आर्टिकल 138 के तहत एक अध्यादेश या कानून पारित किया जा सकता है. किसी भी मामले में, भगवा तर्क यह था कि भगवान राम का जन्मस्थान 'तथ्य' का नहीं बल्कि 'आस्था' का मामला है.

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इनमें से कुछ विकल्प राजीव गांधी ने पीएम चन्द्रशेखर के सामने लिखित रूप में रखे थे और कुछ मौखिक रूप से बताए थे.

चन्द्रशेखर ने आखिर में आर्टिकल 143 पर फैसला लिया, जो राष्ट्रपति के संदर्भ में एक गैर-बाध्यकारी राय थी. परिभाषा के अनुसार, इससे मामला निश्चित रूप से समाप्त नहीं हो सकता. इससे राजीव गांधी को काफी झुंझलाहट हुई और उन्होंने चन्द्रशेखर सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. अगर राजीव गांधी उसके बाद हुए चुनाव में प्रधानमंत्री बनने के लिए जीवित रहते, तो मेरा मानना ​​है कि वो आर्टिकल 142 का रास्ता अपनाते. लेकिन किस्मत ने कुछ और ही फैसला किया.

(मणिशंकर अय्यर पूर्व कांग्रेस सांसद और 'ए टाइम ऑफ ट्रांजिशन: राजीव गांधी टू द 21 सेंचुरी' के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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