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भारत के 74वें गणतंत्र दिवस के मौके पर हमारी खास सीरीज का यह भाग दो है. पहला और तीसरा भाग यहां पढ़ें)
इन दिनों भारत 'आजादी का अमृत महोत्सव' (Azadi Ka Amrit Mahotsav) मना रहा है. यह स्वतंत्रता दिवस, यानी अगस्त 1947 में मिली आजादी की 75वीं वर्षगांठ है. यह कार्यक्रम मार्च 2021 में शुरू हुआ था और एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र की निर्भीक यात्रा की यह स्मृति 15 अगस्त, 2023 को खत्म होगी.
हालांकि 74वें गणतंत्र दिवस (Republic Day) के जश्न से पहले ही कुछ बेसुरे स्वर सुनाई दे रहे हैं, जैसा कि हाल की घटनाओं से एहसस हुआ है. भारतीय संविधान की व्याख्या कुछ अलहदा तरीके से की जा रही है और उसकी 'मूल संरचना' का उल्लंघन करने की कोशिश भी, वह भी विधायिका की अगुवाई करने वालों की तरफ से. कानून के दिग्गज न्यायपालिका पर यह आरोप लगा रहे हैं कि वह संविधान की ‘अपहरण’ कर रही है, और यह इन हाउस कॉलेजियम सिस्टम की वजह से हो रहा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति के मानदंड के रूप में बरकरार रखा है.
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, जो राज्यसभा के सभापति भी हैं और ओम बिड़ला जो लोकसभा के अध्यक्ष हैं, इन दोनों ने सुप्रीम कोर्ट के 24 अप्रैल 1973 के 'मूल सिद्धांत' के फैसले की प्रचलित व्याख्या पर ऐतराज जताया है. यह ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामला उर्फ मौलिक अधिकार वाला मामला है. यह याद किया जा सकता है कि इंदिरा गांधी उन दिनों देश की प्रधानमंत्री थीं. उन्होंने 1971 में पाकिस्तान पर शानदार सैन्य जीत हासिल की थी, जिसके बाद बांग्लादेश जैसा देश अस्तित्व में आया था.
उस समय जिस बात का विरोध किया जा रहा था, वह था बेलगाम ताकत, जिसे कांग्रेस के प्रभुत्व वाली संसद हासिल करना चाहती थी. सिर्फ इस आधार पर कि वह निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का समूह है.
न्यायपालिका ने बहुत ही बारीकी, पर मजबूती से मोदी सरकार की पेशकश को ठुकरा दिया, जिसके जरिए सरकार अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रही थी. 21 जनवरी को मुंबई में पालकीवाला स्मारक व्याख्यान में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने जोर देकर कहा कि “संविधान की मूल संरचना हमारे लिए ध्रुव तारे की तरह है. जब आगे का रास्ता पेचीदा हो जाता है तो वह व्याख्या करने वाले और उन्हें लागू करने वाले, दोनों तरह के लोगों का मार्गदर्शन करती है.” और यह साफ है कि मोदी सरकार जिस मौजूदा रास्ते पर चल रही है, वह पेचीदा है और उसका कड़ा विरोध किया जा रहा है.
सरकार और न्यायपालिका के बीच का तनाव, भारतीय संविधान की सहनशीलता का इम्तिहान है. यह ऐसा गौरवमय और समानुभूति रखने वाला दस्तावेज है जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जीवंत और सामंजस्यपूर्ण रिश्ते की परिकल्पना की गई थी. यह रिश्ता नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर आधारित है.
भारतीय संविधान के विशेषज्ञ माने जाने वाले मशहूर अमेरिकी इतिहासकार ग्रानविले ऑस्टिन ने कहा था कि मूल संरचना का सिद्धांत “उचित रूप से भारत में संवैधानिक व्याख्या का आधार बन गया है.” इस मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने मुंबई में कहा कि “हमारे संविधान की मूल संरचना या दर्शन संविधान की सर्वोच्चता, कानून के शासन, शक्तियों के पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, व्यक्तियों की स्वतंत्रता और गरिमा तथा राष्ट्रीय की एकता और अखंडता पर आधारित है.”
इतिहास हमें याद दिलाता है कि जब मजबूत नेताओं के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकारें, एक उदासीन विधायिका और धौंस जमाने वाली न्यायपालिका के जरिए निरंकुश शक्ति हासिल कर लेती है तो उसके नतीजे बहुत बुरे होते हैं. 1933 में हिटलर के अधीन जर्मनी इसी रास्ते पर चला और विनाशकारी नतीजे हुए. हालांकि उस जैसा तो नहीं, लेकिन अमेरिका में 6 जनवरी 2021 के बुरे दिन को याद कीजिए, जब एक मौजूदा राष्ट्रपति ने संवैधानिक पवित्रता को नष्ट करने की कोशिश की थी.
भारतीय संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1973 के केशवानंद भारती फैसले से होशियार होकर संसद के बहुमत का इस्तेमाल करके, संविधान में कई संशोधन पेश किए. उनका मकसद यह था कि सरकार को कुछ ‘असुविधाजनक’ जजों को हटाकर भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में दखल देने की शक्ति मिल जाए. इसका नतीजा यह हुआ कि जस्टिस एएन रे जो सीनियॉरिटी के लिहाज से नंबर चार थे (लेकिन जिन्होंने यह दलील दी थी कि संसद के पास संविधान में संशोधन की असीमित शक्ति है), वह 27 अप्रैल, 1973 को 14वें मुख्य न्यायाधीश बन गए- केशवानंद भारती फैसले के चंद दिनों बाद. सीनियॉरिटी के सिद्धांत को ताबड़तोड़, दरकिनार कर दिया गया और भारतीय लोकतंत्र की पवित्रता को दागदार कर दिया गया.
यह वह वक्त था, जब “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” की चर्चा शुरू हुई थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इमरजेंसी लगाने से पहले का वक्त. तब तत्कालीन कानून मंत्री मोहन कुमारमंगलम ने दलील दी थी कि सरकार को न सिर्फ “न्यायिक ईमानदारी का ख्याल रखना पड़ता है, बल्कि यह भी देखना होता है कि ऊंचे ओहदों पर नियुक्त होने वाले जजों की फिलॉसफी और नजरिया कैसा है.” इसके बाद जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, तब यह दस्तूर खत्म हुआ.
जनवरी 2025 में Indian Republic@75 (संविधान का महोत्सव?) को अभी दो साल हैं. यानी अभी वक्त है कि, जब लोकतांत्रिक संरचना के अलग-अलग स्तंभों के बीच मौजूदा मतभेदों पर तटस्थ होकर, बातचीत की जाए और समरसता लाने की कोशिश की जाए. एक ऐसे समाज की तरफ बढ़ा जाए जिसमें नागरिकों के कल्याण (योगक्षेम) की बात हो, साथ ही संविधान की सर्वोच्चता और पवित्रता भी कायम रहे.
(कमॉडोर सी. उदय भास्कर सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के डायरेक्टर हैं. वह नेशनल मैरिटाइम फाउंडेशन, इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस के भी डायरेक्टर रह चुके हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @theUdayB है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं. द क्विंट न तो उसका समर्थन करता है, और न ही उसके लिए जिम्मेदार है.)
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