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राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार (Sharad Pawar)की राजनीतिक चालों को समझने में महाराष्ट्र और देश का कोई नेता, कोई दल आज तक सफल नहीं हो सका है. उनकी राजनीति दागदार रही है, उनके राजनीतिक इतिहास को जानने के बावजूद राजनीति में उनके दबदबे के कारण राजनीतिक दल मजबूरी में ही क्यों न हो, उनकी मदद लेने के लिए बाध्य होते हैं.
2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का मुकाबला करने के लिए एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये कोशिश मेढ़कों को तराजू में तौलने जैसी ही है.
इसी बीच पवार ने सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति से जांच का समर्थन कर दिया. उनका कहना है कि जेपीसी में बीजेपी के सदस्य ज्यादा होंगे और इसका अध्यक्ष भी बीजेपी का ही होगा, इसलिए जांच से कुछ हासिल नहीं होगा. उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी जेपीसी से जांच कराने की मांग से सहमत नहीं है, लेकिन विपक्षी एकता के लिए उनकी पार्टी इस मांग के खिलाफ नहीं जाएगी. पवार का बयान आते ही यह जाहिर हो गया कि जेपीसी जांच की मांग पर विपक्ष एकमत नहीं है और विपक्ष की एकता प्रयासों में सब कुछ ‘ऑल वेल’ नहीं है.
जेपीसी का इतिहास देखें तो अब तक 9 बार जेपीसी गठित की गयी है, लेकिन इनकी रिपोर्ट को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया है. बोफोर्स मामले के लिए गठित जेपीसी की रिपोर्ट को विपक्ष ने अस्वीकृत कर दिया था. हर्षद मेहता (Harshad Mehata) स्टॉक मार्केट घोटाले में समिति की सिफारिशों को न तो पूरी तरह स्वीकार किया गया और न ही लागू किया गया. केतन पारेख (Ketan Parekh) शेयर मार्केट घोटाले में भी कुछ इसी प्रकार हुआ था.
पवार ने भी इस बात की ओर स्पष्ट इशारा किया था कि लोकसभा और राज्यसभा में बीजेपी के सदस्यों की संख्या देखते हुए समिति में बीजेपी के 14-15 सदस्य और विपक्ष के 5-6 सदस्य होंगे और समिति का अध्यक्ष भी बीजेपी का होगा की संख्या ज्यादा होगी. उनका कहना था कि इस पर किसका नियंत्रण होगा और रिपोर्ट पर इसका क्या प्रभाव होगा.
उन्होंने खुले तौर पर समिति की निष्पक्षता पर ऊंगली उठाई थी. जेपीसी के इतिहास और रिपोर्ट्स के बारे में सत्तारुढ़ दलों का रवैया इससे कुछ अलग नहीं कहता है. यह कहा जा सकता है कि कुछ करना है इसलिए विपक्ष कुछ कर रहा है.
राजनीतिक तौर पर विपक्ष कुछ मजबूत स्थिति में नहीं है. विपक्ष एक होने की बात तो करता है लेकिन उनमें कांग्रेस की मौजूदगी को लेकर पसंद और नापसंदगी भी है. इसके अलावा हर दल के अध्यक्ष या संस्थापक के मन में प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश है. लोकसभा में वर्तमान दलीय स्थिति को देखने से पता चलता है कि 1-2 या 5 सदस्यों की संख्या के आधार पर विपक्षी एकता का ताना- बाना बुना जा रहा है.
पवार और उनके भतीजे अजीत पवार पर भी यह खतरा मंडराता रहता है.चुनाव आयोग ने हाल ही में एनसीपी का राष्ट्रीय दर्जा खत्म कर दिया है. ऐसी अनेक समस्याओं के साथ विपक्ष को एक होने की राह पर चलना है जो आसान नहीं है.
जेपीसी पर पवार के बयान का महाराष्ट्र में महाविकास आघाडी पर भी असर नजर आता है. इस बयान के तुरंत बाद उद्धव ठाकरे (Uddhav Thakare) और पवार के बीच बातचीत हुई थी. बाद में पवार ने कहा था कि अलग -अलग विचार धारा के बावजूद महाविकास अघाडी के घटक दलों को मिल कर काम करना चाहिए. वीर सावरकर पर राहुल गांधी के बयान से उद्धव नाराज हैं और एनसीपी में भी बैचेनी है. इस संदर्भ में पवार का बयान महत्वपूर्ण हो जाता है.
दरअसल महाराष्ट्र की राजनीति में पवार काफी पावरफुल हैं. विधानसभा में सरकार बनाने की ताकत न रखने के बावजूद उनकी पार्टी के इतने विधायक निर्वाचित हो जाते हैं कि गठबंधन सरकार बनने का थोड़ा भी मौका हो तो पवार की मर्जी और सहमति के बिना कोई पार्टी सत्ता में नहीं बैठ सकती. 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था और भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद खड़ा किया.
दरअसल उद्धव, महाराष्ट्र में शिवसेना की पीछे हाट से क्षुब्ध थे. 2014 के विधानसभा चुनाव के समय तो उनकी पार्टी ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. उस समय भी शिवसेना को मुंह की खानी पड़ी थी. चुनाव बाद शिवसेना और बीजेपी ने मिलकर सरकार बनायी तो जरूर थी, लेकिन सरकार में शामिल शिवसेना ने पूरे पांच साल तक विपक्ष का रोल ही अदा किया. उद्धव के मन में खटास तो बहुत थी और 2019 में दोनों पार्टियों में विवाद इतना बढ़ा कि दोनों ने अलग-अलग रास्ते अपना लिए. यहां पर एक बार फिर एनसीपी या यूं कहिए पवार ने अपनी चाल चली. यह चाल आज तक चर्चा का विषय बनी हुई है.
यह चर्चा उस समय भी गर्म थी कि शरद पवार बीजेपी को सरकार बनाने में मदद कर रहे हैं और इसी के तहत बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजीत पवार (Ajit Pawar)ने मिलकर सरकार बनाई. इस सरकार ने सुबह 8.30 बजे शपथ ली थी.
लेकिन कुछ ही घंटों में पूरा सीन बदल गया और यह सरकार सिर्फ ढाई दिन चली थी. पवार के खेल को इस बात से समझा जा सकता है कि फडणवीस की सरकार में भी अजीत पवार उपमुख्यमंत्री थे और बाद में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी 3 पार्टी की महाविकास अघाडी सरकार में भी वे उपमुख्यमंत्री थे.
जोड़ तोड़ का पवार का राजनीतिक इतिहास
पवार ने कई बार कांग्रेस छोड़ी और कांग्रेस की विचारधारा से जुड़े होने का दावा करते रहने के बावजूद विरोधी विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन किया,सरकारें बनाई और मुख्यमंत्री भी रहे. उनकी पहली बड़ी राजनीतिक कारगुजारी जुलाई 1978 में उस समय हुई, जब वे 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.
जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए वसंतदादा पाटिल (Vasantdada Patil) के नेतृत्व में दोनों कांग्रेस पार्टियों ने गठबंधन सरकार बनाई. पवार इस सरकार में उद्योग और श्रम मंत्री थे. जुलाई 1978 में पवार ने कांग्रेस(यू) छोड़ दी और जिस जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस (आई) और कांग्रेस(यू) ने गठजोड़ किया था उसी जनता पार्टी के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया और खुद मुख्यमंत्री बनें.
यह सरकार अल्पजीवी साबित हुई, क्योंकि 1980 में जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तो उन्होंने महाराष्ट्र की पीडीएफ सरकार को भंग कर दिया. पवार ने वसंतदादा के साथ जो किया बाद में उसकी छाया ने उनके पूरे राजनीतिक जीवन और महत्वाकांक्षा को प्रभावित किया. वे असरदार नेता तो बने रहे हैं लेकिन बाद में प्रधानमंत्री बनने की उनकी इच्छा पूरी नहीं हो सकी.
1983 में वे अपनी पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस (सोशलिस्ट) (कांग्रेस (एस) )के अध्यक्ष बने. 1984 में बारामती लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे. लेकिन राज्य की राजनीति में ही मन रमने के कारण रमता था इसलिए मार्च1985 में बारामती विधानसभा सीट का चुनाव जीत कर फिर से राज्य की राजनीति में लौट आए.
1992 में मुंबई बम विस्फोटों के बाद वे फिर एक बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. उस समय उन पर मुंबई बम विस्फोटों की संख्या बढ़ा कर बताने के आरोप लगे. सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के विदेशी नागरिक होने के मुद्दे पर 1999 में पवार, तारिक अनवर (Tariq Anwar) और पी.ए.संगमा (P.A.Sangama) को कांग्रेस से निकाल दिया गया, तब इन तीनों ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया.
सोनिया गांधी का विरोध करने के बाद भी अक्टूबर 1999 में महाराष्ट्र में यूनाइटेड प्रोगेसिव एलाइंस के नेतृत्व में बनी सरकार में उनकी पार्टी शामिल हुई थी. 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह (Manmohan singh) के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में शरद पवार बतौर कृषिमंत्री शामिल हुए. 2014 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पवार ने राज्य विधानसभा चुनाव अलग से लड़ने की घोषणा कर गठबंधन तोड़ दिया.
पवार की राजनीति में पॉवर सबसे महत्वपूर्ण है. अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए उन्होंने हर तरह के दांव- पेंच इस्तेमाल किए हैं. किसी प्रकार की प्रतिबद्धता से प्रतिबद्ध होना उनकी राजनीति में दिखाई नहीं देता. विपक्षी एकता के मामले में भी यही बात कही जा सकती है .2024 के चुनाव के पहले या चुनाव के बाद वे किसके साथ होंगे यह कहना बहुत मुश्किल है.
(विष्णु गजानन पांडे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे दी क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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