नेशनल कांग्रेस पार्टी (NCP) के प्रमुख शरद पवार ने दो प्रमुख मुद्दों पर विपक्ष के विचारों का खंडन किया है.
उन्होंने अडानी मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति (JPC) की जांच की मांग से असहमति जताई है और कहा है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट प्रेरित हो सकती है. कांग्रेस इस मुद्दे पर सरकार पर आक्रामक रूप से निशाना साध रही है.
फिर आम आदमी पार्टी (AAP) की इस मांग पर कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी शैक्षणिक डिग्री दिखाएं, पवार ने पूछा कि क्या यह भी कोई मुद्दा है?
मीडिया समेत नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थकों ने पवार के बयान को विपक्ष के भीतर फूट का आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल किया है. कांग्रेस और AAP ने भी पवार के बयानों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया है. तो पवार के बयानों को समझने का सही तरीका क्या है?
भारत के कारोबार जगत को सबसे बेहतर समझते हैं शरद पवार
गौतम अडानी सहित कई उद्योगपतियों के साथ पवार के अच्छे संबंध हैं. वह कभी भी उद्योगपति के साथ प्रतिकूल संबंधों के पक्ष में नहीं रहे. लगभग आधी शताब्दी तक मुंबई के शक्ति मंडल का एक अभिन्न अंग होने के नाते, पवार ने खुद को राजनीति, व्यापार और खेल के बीच चौराहे के क्षेत्र में रखा, जिस तरह से कोई अन्य राजनेता नहीं कर सका.
वह भारत के कारोबार जगत के सबसे भरोसेमंद राजनेताओं में से एक रहे हैं और रहेंगे.
इसलिए यह समझ में आता है कि वह राजनीतिक हमलों के लिए एक महत्वपूर्ण औद्योगिक घराने में से किसी एक को चुन लेने से असहज हैं.
इसके दो कारण हैं. पहला कि, जैसा कि कांग्रेस के भीतर के तत्वों ने अडानी से उनकी निकटता के कारण आरोप लगाया है, ऐसा हो सकता है.
लेकिन दूसरा कारण अधिक महत्वपूर्ण है - पवार वास्तव में मानते हैं कि एक उद्योगपति के पीछे पड़ना विपक्ष के लिए बुरी राजनीति है और बीजेपी की मदद करता है.
द क्विंट से बात करते हुए एनसीपी के एक नेता ने कहा कि "वैसे भी, बीजेपी को कॉरपोरेट फंडिंग का बड़ा हिस्सा मिलता है. कॉरपोरेट्स को निशाना बनाकर और उन्हें और भी अलग-थलग करके विपक्ष को क्या हासिल होगा?"
पवार के करीबी कहते हैं कि अडानी पर कांग्रेस का हमला कॉर्पोरेट इंडिया की एक गलत समझ पर आधारित है कि अगर वे अडानी पर हमला करते हैं, तो उन्हें अन्य कॉर्पोरेट संस्थाओं का समर्थन मिलेगा. हालांकि, कांग्रेस के भीतर के लोग भी चेतावनी देते रहे हैं कि यह एक गलत धारणा हो सकती है.
कांग्रेस में दूसरी उम्मीद यह है कि इससे उन्हें छोटे व्यापारियों का समर्थन हासिल करने में मदद मिलेगी. हालांकि, अभी तक ऐसा होता नहीं दिख रहा है और यह तबका स्थानीय कारकों पर वोट करता नजर आ रहा है. कम से कम प्रमुख बीजेपी राज्यों में व्यापारी इसके सबसे मजबूत समर्थन आधारों में से एक हैं.
विपक्ष को किन मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है, इस बारे में शरद पवार स्पष्ट हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षिक योग्यता के बारे में पूछे गए सवालों पर पवार की प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका मानना है कि वे मुद्दे हैं जो मायने रखते हैं और जो नहीं हैं.
शरद पवार ने कहा कि 'देश में जब हम बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था और महंगाई का सामना कर रहे हैं तो क्या किसी की डिग्री राजनीतिक मुद्दा होनी चाहिए? आज धर्म और जाति के नाम पर लोगों के बीच मतभेद पैदा किए जा रहे हैं. इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी है."
इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है.
कांग्रेस ने पिछले साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव सिर्फ नौकरियों, मूल्य वृद्धि, पुरानी पेंशन योजना और सेब उत्पादकों के संकट जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हुए लड़ा और जीता.
तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने 2020 के बिहार चुनाव में विशुद्ध रूप से बेरोजगारी के मुद्दे पर एक उत्साही अभियान लड़ा और राजद राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बन गई.
वर्तमान में भी, कथित तौर पर बीजेपी कर्नाटक में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और किसानों के संकट जैसे मुद्दों से जूझ रही है और कांग्रेस का अभियान मुख्य रूप से इन मुद्दों पर केंद्रित रहा है.
इसलिए पवार के विचार में, ये मुद्दे हैं न कि मोदी की डिग्री या यहां तक कि अडानी भी जो बीजेपी को चुनावी रूप से हराने में मदद कर सकते हैं.
तो विपक्ष में विवाद की वजह क्या है?
पवार के बयान का मतलब यह नहीं है कि वह विपक्ष से नाता तोड़ रहे हैं, लेकिन वे विपक्ष के भीतर दृष्टिकोण में अंतर की ओर इशारा कर रहे हैं.
ऐसा लगता है कि पवार का मानना है कि विपक्ष को केवल उन मूलभूत मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनका लोग सामना कर रहे हैं और जो संभावित रूप से चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकते हैं. यह पूरी तरह से राजनीति के लिए पवार के व्यावहारिक दृष्टिकोण के अनुरूप है.
कांग्रेस और AAP बेरोजगारी और मंहगाई की बात तो करते हैं, लेकिन वे उन मुद्दों को भी उठाना चाहते हैं, जो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल को पीएम मोदी के लिए चुनौती देने वाले के रूप में खड़ा करते हैं.
अडानी का मुद्दा राहुल गांधी से जुड़ गया है, भले ही AAP, BRS और लेफ्ट जैसी पार्टियां और महुआ मोइत्रा जैसे नेता भी इस मुद्दे को उठाते रहे हैं.
इसी तरह, डिग्री का मुद्दा AAP के साथ जुड़ गया है, क्योंकि यह एक नेता के रूप में अरविंद केजरीवाल की यूएसपी के लिए काम करता है - एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो IIT-शिक्षित है और एक पूर्व सिविल सेवक है.
विपक्ष के बीच यह डर है कि अडानी जैसे मुद्दे पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करना, जो जनता के लिए संवाद करना मुश्किल है या डिग्री का मुद्दा जो बहुत अधिक व्यक्तिगत उपहास है,जैसे साल 2019 में कांग्रेस के 'चौकीदार चोर है' की पुनरावृत्ति होगी.
ऐसे समय में जब नोटबंदी और जीएसटी के आर्थिक प्रभाव बीजेपी के लिए एक कमजोर बिंदु बन गए थे, कांग्रेस ने अपने 2019 के अभियान को राफेल मुद्दे पर केंद्रित करने के लिए चुना.
हालांकि, पवार की बात में दम है, लेकिन राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जिस दुविधा का सामना कर रहे हैं, वह भी समझ में आता है. बीजेपी ने प्रधानमंत्री मोदी को बेरोजगारी और महंगाई से जुड़े सवालों से सफलतापूर्वक दूर रखा है, यहां तक कि उसे इन्हीं मुद्दों पर राज्य स्तर पर विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है.
इसलिए, दोनों नेताओं को शायद लगता है कि 2024 सिर्फ मुद्दों के भरोसे नहीं जीता जा सकता, मोदी की निजी लोकप्रियता को भी कमजोर करने की जरूरत है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)