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कश्मीर से 370 हटने का एक साल: जो वादा था, उसका उल्टा हो रहा है

“कश्मीर में अब ज्यादा हिंसा है, ज्यादा नफरत है, हमारे जवान ज्यादा खतरे में हैं’’

शशि थरूर
नजरिया
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“कश्मीर में अब ज्यादा हिंसा है, ज्यादा नफरत है, हमारे जवान ज्यादा खतरे में हैं’’
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“कश्मीर में अब ज्यादा हिंसा है, ज्यादा नफरत है, हमारे जवान ज्यादा खतरे में हैं’’
(फोटो: कामरान अख्तर/क्विंट हिंदी)

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5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक ऐलान से देश को हैरान कर दिया जो राजनीतिक तौर पर नोटबंदी के बराबरी का हो सकता है. एक और जल्दबाजी, और बिना सोचे समझे लिया गया फैसला जिसका देश पर विनाशकारी असर हो सकता है.

जम्मू-कश्मीर के लोगों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सात दशक तक ये आश्वासन देने के बाद, कि राज्य को भारत के संविधान के मुताबिक विशेष स्वायत्त राज्य का दर्जा मिलता रहेगा, मोदी सरकार ने एकतरफा फैसले में राज्य के विभाजन का ऐलान किया. राज्य के पूर्वी हिस्से में लद्दाख के पठारों और पहाड़ियों को एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया और बाकी के हिस्से-जिसका नाम अब तक जम्मू और कश्मीर है-से राज्य का दर्जा हटाकर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है.

इसके एक साल बाद हम कहां खड़े हैं?

श्रीनगर के लाल चौक की ये तस्वीर कश्मीर का लॉकडाउन दिखाती है(फोटो: PTI)

आर्टिकल 370 हटने एक साल बाद भी अलगाववाद की भावना

सरकार के फैसले का समर्थन करने वालों का कहना था कि स्वायतत्ता के कारण कश्मीर घाटी के लोगों की अलगाववादी सोच को ही बढ़ावा मिल रहा था, इससे इलाके में बड़ी संख्या में हो रही अलगाववादी हिंसा को रोका नहीं जा सका है, इससे धर्म के नाम पर हिंदू पंडितों को उनके पारंपरिक घरों से हटाकर इस्लामीकरण को बढ़ने का रास्ता मिला और विशेष दर्जा होने के कारण प्रगतिशील भारतीय कानून और आदेश (जैसे कि दलित समुदाय को सकारात्मक कार्रवाई का आश्वासन देने वाला) राज्य में लागू नहीं हो सके. ये सभी बातें सच हैं, लेकिन ये सब आर्टिकल 370 के बावजूद हुए, न कि उसके कारण.

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के एक साल बाद, अलगाववाद की भावना और बढ़ गई है. ये बड़े पैमाने पर बढ़ती ही जा रही है, हिंसा रुकी नहीं है, और तनाव एक साल पहले से भी ज्यादा है, इस्लाम का प्रभाव स्पष्ट तौर पर बढ़ा है और हर दिन हो रही युद्धविराम उल्लंघन की घटनाओं और आतंकवादी-सुरक्षाबलों की मुठभेड़ के बीच पाकिस्तान नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ बढ़ा रहा है.

आर्टिकल 370 हटाए जाने के बाद कश्मीर में शटडाउन से अर्थव्यवस्था पर पड़ा असर(फोटो: PTI)

समर्थकों का ये भी तर्क था कि विशेष दर्जा हटाए जाने से राज्य का आर्थिक विकास ज्यादा होगा चूंकि गैर कश्मीरी भी वहां जमीन खरीदने को स्वतंत्र होंगे और वो ज्यादा निवेश करेंगे. राज्यपाल ने तो सार्वजनिक तौर पर राज्य के बाहर के निवेशकों को सम्मेलन के लिए न्योता दिया था, भारत की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस सहित बड़ी कंपनियों के राज्य में प्रोजेक्ट शुरू करने की बातें हुईं और राज्य में और राज्य के बारे में बनने वाली भविष्य की संभावित ब्लॉकबस्टर फिल्मों के नाम बुक करने को लेकर बॉलीवुड प्रोड्यूसर चर्चा करते रहे. पिछले 12 महीनों में लंबे लॉकडाउन के कारण इन सभी पहल की हवा निकल गई है.

कश्मीर की लोकतांत्रिक आवाजों को दबाया

चिंता बढ़ गई है कि, जैसा नोटबंदी और मोदी की कोविड-19 रणनीति के साथ हुआ, इस फैसले से हुए छोटे और मध्यम अवधि के नुकसान सैद्धांतिक रूप से लंबी अवधि में होने वाले फायदों पर ज्यादा भारी पड़ेंगे.

सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण है भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति में हिंसा: सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनता या उनके जनप्रतिनिधियों से पूछे बिना भारत से उनके बुनियादी संवैधानिक रिश्ते को बदल दिया था. वास्तव में इसने उन्हें बंद कर दिया, इससे कश्मीर की उन लोकतांत्रिक आवाजों को दबा दिया गया, जो भारतीय संविधान के दायरे में रखकर बोलते थे.

एक पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला 232 दिनों तक कैद में रहे, वहीं एक और पूर्व सीएम, महबूबा मुफ्ती के साथ अनुभवी कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज ये शब्द लिखे जाने तक हिरासत में हैं. ये हमारे लोकतंत्र का बहुत बड़ा विश्वासघात है और वैधानिक तानाशाही से कम नहीं है.

88 साल के जम्मू-कश्मीर कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज ने 30 जुलाई को अपने घर से लोगों को बताया कि वो बिना किसी आदेश के नजरबंदी में हैं(स्क्रीनशॉट: ट्विटर/उमाशंकर सिंह)

भविष्य में ये दूसरे राज्यों के साथ भी किया जा सकता है. कश्मीर का मामला ये शाश्वत सबक सिखाता है कि सरकारों की ओर से किए गए संवैधानिक वादों को कभी भी तोड़ना नहीं चाहिए. खासकर ऐसे दांव से जिसपर सवाल उठ सकते हों, क्योंकि ये ऐसे मिसाल कायम करते हैं जिनका अगर देश के किसी और हिस्से में अनुकरण किया जाए तो पूरे गणतंत्र को अस्थिर कर सकता है.

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भारतीय लोकतंत्र की भावना के खिलाफ

ये कहना कि 370 को हटाने के लिए हमने जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति ली थी, तब जब राज्य में राष्ट्रपति शासन था, वहां मोदी सरकार द्वारा तैनात किए गए गवर्नर को ‘राज्य’ मान लेना और विधायक का मतलब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा के बजाए संसद को मान लेना, ये सब करके केंद्र ने जम्मू-कश्मीर के लोगों की अवमानना की, हमारी लोकतांत्रिक सुचिता और राजनीतिक परंपरा की अवमानना की.

श्रीनगर में आर्टिकल 370 हटाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन करते कश्मीरी लोग(फोटो: AP)

ये कदम भारतीय लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है और इसे ‘गैरिसन गवर्नेंस’ के तौर पर बताया गया है. कई मायनों में ये उस राष्ट्रवाद के साथ धोखा है, जिसने कश्मीरियों को भारत का हिस्सा बनाया. इसकी कीमत देश के बाकी के हिस्से को भी चुकानी पड़ सकती है.

इससे भी खराब बात ये है कि लोकतांत्रिक पार्टियों और उनके नेताओं को बंद कर सरकार ने अलोकतांत्रिक पार्टियों के लिए जगह बना दी है. राज्य को मिला विशेष दर्जा वहां के मुख्यधारा के नेताओं को भारत में रहते हुए स्वयतत्ता कश्मीर की पैरवी करने की इजाजत देता था.

आर्टिकल 370 हटने से आतंकवाद बढ़ा

अब ये कवर हट गया है, चरमपंथ को रोकने के लिए राज्य के बड़े नेताओं को अप्रासंगिक और कमजोर बना दिया गया है. केंद्र सरकार ने दावा किया था कि वो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जीत रही है, लेकिन अब शायद सरकार ने नाइंसाफी का नया उदाहरण देकर आतंकवादियों में नई जान फूंक दी है.

ये संकेत शुभ नहीं हैं: अधिक से अधिक गुमराह कश्मीरी खुलेआम उग्रवादी बनने की बात कर रहे हैं. हमारी सरकार ने बिना किसी कारण भारत के बहादुर जवानों को अनिष्ट के रास्ते में खड़ा कर दिया है.

वास्तव में आधिकारिक आंकड़े हिंसा की घटनाओं में वृद्धि दिखाते हैं और लगभग हर दिन ‘मुठभेड़’ की खबरें आती हैं, जिसमें आतंकवाद से लड़ते हुए भारतीय जवान या पुलिस की जान चली जाती है. इस कदम को आतंकवाद का सफाया बताया जाता है.

जम्मू-कश्मीर में एक सड़क को बंद करती सेना(प्रतीकात्मक तस्वीर: AP)

‘लॉकडाउन के अंदर लॉकडाउन’

कोविड 19 महामारी के दौरान भी घाटी में संचार पर लगी रोक को जारी रखा गया, जिससे वायरस के रोकथाम की कोशिश में मुश्किल आई. कश्मीर में 4G उपलब्ध नहीं है, जिससे छात्रों और ऑनलाइन व्यवसायियों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. ‘हालात सामान्य होना’ अभी दूर की बात लगती है.

‘लॉकडाउन के अंदर लॉकडाउन’ और लगातार जारी आतंकवादी हिंसा संवैधानिक बदलाव से समृद्धि और आर्थिक विकास लाने के सरकार के दावे के उलट है. साथ ही कश्मीरियों में ये भावना बढ़ रही है कि वो दूसरे दर्ज के नागरिक हैं.

हममें से जिसने भी भारत की लोकतांत्रिक विविधता को इसकी सबसे बड़ी ताकत के तौर पर लंबे समय से देखा है, अब उनका सामना एक ऐसी सरकार से है जो इसके हर निशान मिटा देना चाहती है और जिसके लिए संविधान की थोड़ी भी इज्जत नहीं है. भारत के बहुलवादी और लोकतंत्र समर्थक, इसके अल्पसंख्यक और असहमति जताने वालों के लिए ये समय शुभ नहीं है.

ये पूरा मामला हमारे लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए जो मिसाल पेश कर रहा है वो अशुभ और चिंताजनक है. ये बातें मैं आज कह रहा हूं, कल कोई ये नहीं कहे कि चेतावनी नहीं दी गई थी.

(शशि थरूर कांग्रेस सांसद और लेखक हैं. उन्हें @SashiTharoor पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इससे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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