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मायावती ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों के खिलाफ बुलाए गए भारत बंद में विपक्ष का साथ क्यों नहीं दिया? अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी खुलकर सामने क्यों नहीं आई. दोनों पार्टियों के तौर तरीके कंफ्यूज कर रहे हैं कि ये विपक्ष के साथ हैं या नहीं. इन दोनों को किसी बात का डर है या मोलभाव करने का खेल है?
कांग्रेस के भारत बंद का समर्थन 21 दलों ने किया. कह सकते हैं कि ये बंद बीजेपी के खिलाफ तैयार हो रहे गठबंधन के मजबूत होने का और कांग्रेस के फिर से एक्शन में आने का संकेत भी है. लेकिन जिस उत्तर प्रदेश में इस नये गठबंधन के फार्मूले का जन्म हुआ, उसी उत्तर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों का रुख उलझा सा दिखा.
वैसे भारत बंद का ऐलान कांग्रेस ने किया था, लेकिन अघोषित तौर पर इसे बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन का शक्ति प्रदर्शन भी माना जा रहा था. ये शक्ति प्रदर्शन महागठबंधन की ताकत और उसमें शामिल दलों के तालमेल का भी था. जिसमें सफलता भी मिली. बंद को करीब 21 दलों ने समर्थन दिया. ये सभी दल बीजेपी के विरोध में तैयार हो रहे महागठबंधन में शामिल माने जा रहे हैं.
2017 विधानसभा में चुनाव में भी बीजेपी ने इनका सफाया कर दिया. लेकिन इस चुनाव के कुछ महीने बाद ही एसपी-बीएसपी के अघोषित गठबंधन ने लोकसभा उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर बीजेपी से छीन लिया. इस जीत ने अस्तित्व बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही दोनों पार्टियों के साथ ही विपक्षी दलों को सत्ता में जल्द वापसी की उम्मीद जगायी.
गठबंधन का ये फार्मूला उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट पर भी सफल हुआ. उधर कर्नाटक में भी कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी. इन सब बदलाव से ये उम्मीद जगी कि विपक्ष संगठित हो तो बीजेपी से लड़ाई जीती जा सकती है. लेकिन ये राजनीति है, जहां आमतौर पर दो और दो चार नहीं होता. इसलिए 2019 के महासमर में गठबंधन की जीत इस बात निर्भर करेगी कि यूपी में उसका प्रदर्शन कैसा होता है. यहां अखिलेश और मायावती बड़े खिलाड़ी है.
इनके साथ आने पर प्रदेश में बीजेपी को कड़ी चुनौती मिलेगी. लेकिन वोटों का बिखराव पूरी तरह रोकने के लिए कांग्रेस का साथ आना भी जरूरी है. जिसे समझ तो तीनों रहे हैं और अन्दर ही अन्दर सीटों के बंटवारे की बातचीत भी चल रही है. शायद यही वजह है कि तीनों अपनी बार्गेनिग पॉवर मजबूत रखना चाहते हैं. इस खेल को समझने के लिए पहले बात अखिलेश यादव की.
भारत बंद में समाजवादी पार्टी ने भ्रष्टाचार, किसान विरोधी नीति जैसे तमाम मुद्दों पर प्रत्येक जिले में धरना-प्रदर्शन किया. जिससे वो इस बंद में शामिल न होकर भी शामिल दिखे. इसमें कोई शक नहीं है कि अगर एसपी खुल कर बंद में शामिल होती तो न्यूज हेडलाइन यूपी से ही बनती. वैसे भी एसपी कार्यकर्ता बंद जैसे कार्यक्रमों में ज्यादा आक्रामक नजर आते हैं.
लेकिन 10 सितंबर को वो अपने स्वभाव के विपरीत संयमित रहे. चीजें साफ है कि यूपी में बंद की सफलता का पूरा क्रेडिट कांग्रेस को मिलता, क्योंकि बंद का आह्वान कांग्रेस ने किया था. ऐसा होता तो यूपी में ना के बराबर दिखने वाली कांग्रेस का उत्साह भी बढ़ता. जो एसपी-बीएसपी के लिए ठीक नहीं. दोनों जानते हैं कि कांग्रेस जितनी मजबूत होगी उसकी सीटों की ख्वाहिश भी उतनी बढ़ेगी.
बंद में बीएसपी दिखी ही नहीं. वैसे भी बीएसपी कम ही मुद्दों पर सड़कों पर उतरती है. आखिरी बार करीब दो साल पहले मायावती के खिलाफ बीजेपी के दयाशंकर सिंह ने अभद्र टिप्पणी की थी जिसके विरोध में बीएसपी सड़क पर उतरी. इसलिए बीएसपी का साथ न आना आश्चर्य की बात नहीं. आश्चर्य की बात यह है कि बंद के दूसरे दिन यानी 11 सितंबर में मायावती ने इसका खुला विरोध कर दिया. यह गठबंधन के भविष्य के लिए ठीक नहीं है. सवाल यह है कि मायावती ने ऐसा क्यों किया?
कुल मिला कर कांग्रेस का बंद एक लिहाज से सफल रहा तो दूसरे लिहाज से असफल भी. असफल इसलिए कि इसने बीजेपी के खिलाफ तैयार हो रहे गठबंधन की कमजोर कड़ियां सबसे सामने जाहिर कर दी हैं.
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Published: 12 Sep 2018,03:33 PM IST