मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी को लीगल कहा,लेकिन क्या 2016 का सरकार का फैसला सही भी था

सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी को लीगल कहा,लेकिन क्या 2016 का सरकार का फैसला सही भी था

Demonetisation ने अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दिया था और 15,44,000 करोड़ रुपए मूल्य की मुद्रा प्रतिबंधित हो गई

यशस्विनी बसु
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>सुप्रीम कोर्ट में 4:1 के बहुमत के फैसले ने PM मोदी द्वारा 2016 में की गई नोटबंदी का समर्थन किया.</p></div>
i

सुप्रीम कोर्ट में 4:1 के बहुमत के फैसले ने PM मोदी द्वारा 2016 में की गई नोटबंदी का समर्थन किया.

फोटो : नमिता चौहान / द क्विंट

advertisement

याद कीजिए, छह साल पहले जब हमारे प्रधानमंत्री (PM Narendra Modi) के एक ऐलान ने रातों-रात 500 रुपए और 1,000 रुपए के नोटों को अमान्य कर दिया था, तब एटीएम पर कैसे लंबी कतारें लगी थीं, मनमानी छंटनियां हुई थीं और जबरदस्त अराजकता मची थी. क्या आपको वे दुख भरे दिन याद हैं?

इस यकायक फैसले ने भारत की अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दिया था और कुछ ही घंटों में 15,44,000 करोड़ रुपए मूल्य की मुद्रा प्रतिबंधित हो गई थी.

तब से भारत की विभिन्न अदालतों में इस फैसले की वैधता को चुनौती दी गई है. आखिर में 2 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर एक निर्णायक नजरिया पेश किया.

नोटबंदी (Demonetisation) का फैसला कौन ले सकता है?

देश में वैध और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत विनियम इकाई क्या होगी, यह कानूनी तौर पर मान्य होना जरूरी है. जब ऐसी वस्तुओं को कानूनी मान्यता मिल जाती है, तो वे लीगल टेंडर बन जाती हैं और उनका इस्तेमाल वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने या सार्वजनिक ऋण का निपटान करने के लिए किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में, वे कानूनी रूप से "मुद्रीकृत" हो जाती हैं.

भारत में बैंक नोट और सिक्के लीगल टेंडर का एकमात्र वैध रूप हैं. भारतीय रिजर्व बैंक एक्ट, 1934 (आरबीआई एक्ट) केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि वह एक अधिसूचना जारी करके घोषित कर सकती है कि कोई बैंक नोट अब लीगल टेंडर नहीं रहा.

जैसे 8 नवंबर 2016 कोकेंद्र सरकार ने नागरिकों को निर्देश दिया कि अगले दो दिनों के अंदर दोनों नोटों को नई मुद्राओं से बदल लें- कुछ अपवादों को छोड़कर.

सरकार के नोटबंदी के फैसले पर इतनी हाय-तौबा क्यों?

हालांकि यह घोषणा आरबीआई एक्ट के प्रावधानों के तहत की गई थी, लेकिन यह अप्रत्याशित और आकस्मिक थी और देशव्यापी हंगामा में बदल गई थी.

इससे पहले कि बैंक इस व्यापक पैमाने के कामकाज को संभाल पाते, लोग बड़ी संख्या में अपने नोट बदलने के लिए बैंक पहुंच गए. एटीएम में जबरदस्त कतारें लग गईं. कई के पास अमान्य नोट रह गए, जिससे उन्हें वित्तीय नुकसान उठाना पड़ा.

आखिर में आंकड़ों से पता चला कि ब्लैक मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के जिस मकसद की दुहाई दी गई थी, वह भी पूरा नहीं हुआ क्योंकि सिर्फ 0.0028% पुराने नोट चलन में थे जो लगता था कि बैंकिंग प्रणाली के जरिए से वापस आ गए थे.नतीजतन, कुछ पीड़ित और परेशान नागरिकों ने भारत की विभिन्न अदालतों में इस फैसले को चुनौती दी.

सुप्रीम कोर्ट के सामने क्या चुनौती थी?

चूंकि 2016 के बाद से विभिन्न अदालतों में नोटबंदी (Demonetisation) को चुनौती दी गई, इसलिए राज्य ने ट्रांसफर याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट में सभी याचिकाओं की सामूहिक रूप से सुनवाई की मांग की. इसीलिए दिसंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट की डिविजन बेंच ने आठ प्रश्नों की मार्फत नोटबंदी की कानूनी वैधता पर विचार किया.

1.   क्या भारतीय रिजर्व बैंक के पास 8 नवंबर जैसी अधिसूचना पारित करने की शक्ति थी?

2.   क्या यह निर्णय नागरिकों के संपत्ति के अधिकार, समानता के अधिकार और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है?

3.   क्या नोटबंदी के कारण कैश विदड्रॉअल की सीमा तय करना गैरकानूनी था?

4.   क्या नोटबंदी को लागू करना 'अनुचित' था और इस प्रकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था?

5.   क्या आरबीआई एक्ट के जरिए नोटबंदी को लागू करना संवैधानिक प्रक्रियाओं से परे था?

6.   क्या सरकार के किसी आर्थिक निर्णय की समीक्षा अदालतें कर सकती हैं?

7.   क्या कोई राजनीतिक दल सरकार के ऐसे फैसले को चुनौती दे सकता है?

8.   क्या नोटबंदी की नीति ने जिला और सहकारी बैंकों को पुराने नोट बदलने से रोककर, उनके साथ भेदभाव किया?

इन प्रश्नों को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की संविधान पीठ को भेजा गया जिसने वर्तमान निर्णय सुनाया. इस मामले पर विचार करते हुए माननीय पीठ ने निम्नलिखित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपरोक्त प्रश्नों को फिर से तैयार किया.

1.   क्या केंद्र सरकार के पास आरबीआई एक्ट के तहत किसी खास मूल्यवर्ग यानी डेनोमिनेशन के सभी करेंसी नोटों को बंद करने का अधिकार है या वह सिर्फ किसी डेनोमिनेशन की एक सीरिज़ को ही बंद कर सकती है?

2.   क्या नोटबंदी पर फैसला लेने की शक्ति केंद्र सरकार को सौंपी जा सकती है?

3.   क्या नोटबंदी का फैसला लेने की प्रक्रिया गलत थी?

4.   क्या नोटबंदी का फैसला आनुपातिकता की कानूनी कसौटी पर खरा नहीं उतरा?

5.   क्या नोटबंदी के दौरान नागरिकों को एक्सचेंज की जो समय सीमा दी गई थी, वह अनुचित थी?

6.   आरबीआई एक्ट के प्रावधानों के अनुसार नोट बदलने की समय अवधि के बाद भी क्या आरबीआई स्वतंत्र रूप से नोट बदलने की सुविधा दे सकता है?

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

ऐसे मामलों में सरकार के पास इतनी शक्ति कैसे होती है?

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि आरबीआई एक्ट के सेक्शन 26 (2) के तहत, केंद्र सरकार एक खास डेनोमिनेशन की करंसी की "किसी भी सीरीज" को बंद कर सकती है, लेकिन ऐसे सभी करेंसी नोटों को वापस नहीं ले सकती. इस एक्ट के तहत सरकार को सिर्फ नोटों की एक खास सीरीज को बंद करने का अधिकार है.

इसके अलावाइसी प्रावधान के तहत सरकार सिर्फ केंद्रीय बैंक बोर्ड की सिफारिश पर कार्रवाई कर सकती है और फिर भी इस अनुपात के फैसले को संसद की विधायी प्रक्रिया के माध्यम से मान्य किया जाना चाहिए, जैसा कि नोटबंदी के पिछली कड़िय़ों में, 1946 और 1978 में हुआ था.

चूंकि 2016 की अधिसूचना में इनमें से किसी का भी पालन नहीं किया गया था, यह केंद्र सरकार को बहुत अधिक शक्ति सौंपने "एक्सेसिव डेलिगेशन" के बराबर है. इसके अलावा भले ही अदालत सरकार के वित्तीय निर्णय की समीक्षा नहीं कर सकती है, निर्णय लेने की प्रक्रिया निश्चित रूप से न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकती है, क्योंकि घोषणा करने के मंसूबे से पता चलता है कि केंद्रीय बोर्ड की सिफारिशों में "विवेक के उपयोग" नहीं किया गया था.

इसके अलावा नोटबंदी को लागू करने का तरीका, "अनैतिक और मनमाना" था जिससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अनगिनत बार उल्लंघन हुआ. इसलिए नोटबंदी न तो आनुपातिक थी और न ही उचित. अंत में आरबीआई एक्ट के सेक्शन 4(1) के प्रावधानों के तहत, भारतीय रिजर्व बैंक को पीड़ित नागरिकों के नोटों को स्वतंत्र रूप से बदलने की इजाज़त दी जानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

हर मुद्दे पर गहराई से विचार करते हुए माननीय पीठ ने निम्नलिखित आधारों पर नोटबंदी की कानूनी वैधता को बरकरार रखा.

न्यायिक मिसाल के साथ-साथ "कोई भी" शब्द के सामान्य उपयोग का मतलब हर कोई है. इसलिए, यह सरकार को अधिकृत करता है कि वह किसी भी बैंक नोट को लीगल टेंडर के रूप में अधिसूचित कर सकती है और "किसी भी" शब्द को सीमित अर्थों में पढ़ने से रोकता है.

 अत्यधिक प्रत्यायोजन यानी एक्सेसिव डेलिगेशन का मतलब है, किसी ऐसी संस्था को शक्ति प्रदान करना है, जिसके पास संबंधित विशेषज्ञता नहीं है. इस मामले में आरबीआई एक्ट एक अंदरूनी सुरक्षा प्रदान करता है, जिसमें केंद्र सरकार एक्सपर्ट बॉडी की सिफारिश के बिना काम नहीं कर सकती. इसके अलावा देश की सबसे ऊंची एग्जीक्यूटिव अथॉरिटी को वित्तीय फैसले लेने की शक्ति देना, ‘एक्सेसिव डेलिगेशन’ नहीं कहा जा सकता.

जबकि याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि नोटबंदी का फैसला जल्दबाजी में लिया गया था, केंद्र ने कहा कि फैसले के मकसद को पूरा करने के लिए गोपनीयता और चुस्तीबहुत जरूरी थी.अदालत ने केंद्र की बात की पुष्टि की और कहा कि चूंकि आरबीआई के एक्सपर्ट्स की सलाह ली गई थी और बाद में संसद में निर्दिष्ट बैंक नोट (दायित्वों की समाप्ति) एक्ट, 2017 के जरिए इस फैसले को मंजूरी भी मिल गई तो इसे गलत नहीं माना जा सकता है. अदालत ने कहा कि भले ही इस फैसले से नागरिकों के लिए मुश्किलें खड़ी हुईं लेकिन एक्ट के दूरगामी मकसद को देखते हुए यह एक बेशकीमती सामाजिक कानून बन जाता है.

अदालत ने यह भी कहा कि नोटबंदी का फैसला आनुपातिकता की चार-आयामी कसौटी पर खरा उतरता है, क्योंकि इसे मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के उचित मकसद के लिए लागू किया गया था. जो सीमा तय की गई थी, वह इस मकसद से उचित तरीके से जुड़ी थीं, क्योंकि अगर पहले से सूचना दे दी जाती तो ब्लैक मनी की स्मगलिंग के लिए रास्ता खुल जाता. ये उपाय जरूरी थे और आरबीआई की तरफ से तैयार व्यवस्था के तहत सबसे कम नुकसानदेह थे. ऐसे कोई दूसरे उपाय ठोस तरीके से परिभाषित नहीं हैं, औऱ नागरिकों को नोट बदलने के लिए जो छूट दी गई थी, उसे देखते हुए मकसद और लागू की गई सीमा के बीच पर्याप्त संतुलन था. आखिर में, अदालत ने कहा कि ऐसे मकसद की उपलब्धियों का जहां तक सवाल है, यह कहा जा सकता है कि अदालत के पास ऐसी विशेषज्ञता नहीं है.

छूट की अवधि के बाद पुराने नोट लेने की आरबीआई की शक्ति 2017 के एक्ट में शामिल थी, और मामले की वास्तविकता को निर्धारित करने के लिए कानून में उपयुक्त सुरक्षा उपाय भी दिए गए थे. इसलिए अदालत ने यह जरूरी नहीं समझा कि उचित विशेषज्ञता के बिना, वह 2017 के एक्ट के दायरे से परे जाकर, आरबीआई को पुराने नोट बदलने की स्वतंत्र व्यवस्था करने को कहे.

आगे का रास्ता

नोटबंदी से संबंधित राहत और विचार के लिए आगे के आवेदन हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा के संवैधानिक प्रावधानों के अलावा 2017 एक्ट पर निर्भर हैं.मौजूदा याचिकाओं को अब अन्य संबंधित पीठों को वापस भेज दिया गया है जो उनके व्यक्तिगत विवादों पर अलग-अलग विचार करेंगी.तो नोटबंदी की कानूनी वैधता तो बरकरार है लेकिन नोटबंदी से संबंधित शिकायतों के समाधान का रास्ता नागरिकों के लिए खुला है.

(यशस्विनी विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के इनीशिएटिव न्याय में आउटरीच लीड के तौर पर काम करती हैं. उनके पास एसओएएस, लंदन यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री है. वह @yashaswini_1010 पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT