सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने नोटबंदी (Demonetisation Case) को लेकर जो फैसला सुनाया है, वह कई तरह की प्रतिक्रियाओं को आकर्षित करने के अलावा सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से इस मामले को प्रासंगिक बनाने की आवश्यकता पर जोर देता है.
केंद्र सरकार द्वारा पहले कहा गया था कि नोटबंदी एक "सुविचारित" फैसला था. केंद्र ने कहा था कि यह फैसला नकली धन, आतंकवाद के वित्तपोषण, काले धन और टैक्स चोरी के खतरे से निपटने के लिए एक बड़ी रणनीति का हिस्सा था.
गौतम भाटिया, कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ स्कॉलर हैं. शीर्ष अदालत द्वारा विचार-विमर्श किए गए मामले की संवैधानिकता और तात्कालिक संवैधानिक मुद्दों पर चर्चा करते हुए उन्होंने हाल ही में एक शानदार लेख लिखा है. उन्होंने विशेष रूप से "ज्यूडिशियल इवेजन" (न्याय से विमुख होना) पर ध्यान केंद्रित किया, कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कार्यपालिका के पक्ष में कार्य किया जा रहा है.
यह कोई पहला ऐसा मामला नहीं है जब कोर्ट ने कार्यवाही की गहन न्यायिक समीक्षा किए बिना कार्यपालिका का पक्ष लिया है.
यहां पर मैं गौतम भाटिया ने जो लिखा, उसे प्रस्तुत कर हूं :
"16 दिसंबर, 2016 के बाद बड़ी संख्या में ऑर्डर जारी किए गए, उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण आदेश यही भी शामिल था कि अदालत प्रतिवादियों को जवाबी हलफनामा दायर करने के लिए 'एक अंतिम अवसर' दे रही है. आखिरकार, रिकॉर्ड से पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी के मामले की सुनवाई में दिलचस्पी नहीं दिखाई, जबकि उसके आदेशों में अभी भी कुछ दम था, जिससे कुछ असर हो सकता था.
यही वजह है कि, याचिकाकर्ताओं द्वारा यह दिखाने के प्रयास किए कि यह मुद्दा अकादमिक नहीं है, लेकिन उनके बहादुरी भरे प्रयासों के बावजूद यह स्पष्ट रूप से प्रभावित नहीं कर पाया. क्योंकि भले ही यह बेंच कार्यपालिका के प्रति न्यायिक सम्मान की प्रवृत्ति को नकार दे, लेकिन यह महसूस किया जाएगा कि नोटबंदी असंवैधानिक कदम था. यह फैसला 'भविष्य के लिए' मानक और सिद्धांत निर्धारित करेगा, लेकिन यदि वह काल्पनिक भविष्य जब आएगा तब यह मानक और सिद्धांत किसी काम के नहीं होंगे. भविष्य की अदालत एक बार फिर मामले का फैसला करने से तब तक बचती रहेगी जब तक कि यह फेट अकॉम्प्ली (जो पहले ही घटित हो चुका है और उसे बदला नहीं जा सकता) न हो.
न्याय से मुंह मोड़ना या कन्नी काटना इस समय अदालत के प्रदर्शनों का हिस्सा बना हुआ है, जैसा कि अनुच्छेद 370 को रीडिंग डाउन करने (reading down) और चुनावी बॉन्ड की संवैधानिकता को लेकर लंबे समय से लंबित चुनौतियां से स्पष्ट है."
यहां तक कि भले ही हम कानूनी मामले को छोड़ दें, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट इसकी प्रक्रिया और सार पर चर्चा करने में, दोनों मामलों से क्यों 'बचती' रही. दुर्भाग्य से, नोटबंदी की एड हॉक पॉलिसी और / या अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की जांच करने वाले 'आर्थिक तर्क' पर कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों के बीच बहुत कम ध्यान दिया जाता है. (इसे जनहित के आधार पर स्वतः संज्ञान लेकर प्राथमिकता दी जा सकती थी.)
यह न केवल भारत की संस्थागत संरचना को प्रभावित करने वाले एक संवैधानिक संकट का संकेत देता है, बल्कि देश में जवाबदेही के संकट का भी संकेत देता है, जिसे मोदी सरकार के G20 प्रेसीडेंसी पीआर कैंपेन में "मदर ऑफ डेमोक्रेसी" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है. क्या अकादमिक बातचीत से परे यह स्वीकार किया गया है कि नोटबंदी की नीति पूरी तरह विफल थी या आपदा की तरह थी?
यहां तक कि कानूनी तौर पर भी, जैसा कि असहमतिपूर्ण विचारों में देखा जा सकता है, केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) द्वारा जो डॉक्यूमेंट और रिकॉर्ड प्रस्तुत किए गए हैं, उनमें "केंद्र सरकार की इच्छा के मुताबिक" जैसी पंक्तियां शामिल हैं, जो यह दर्शाती हैं कि "RBI ने स्वतंत्र रूप से अपना दिमाग लगाए बिना" काम किया.
तत्कालीन आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन पहले ही कह चुके हैं कि उन्होंने सरकार के साथ हुए एक बातचीत में यह स्पष्ट कर दिया था कि नोटबंदी "अच्छा आइडिया नहीं था" और इसका कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) "सुनियोजित नहीं" था.
नोटबंदी के झटके के आर्थिक प्रभावों की जांच
विमुद्रीकरण एक व्यापक आर्थिक संदर्भ में हुआ जो काफी हद तक स्थिर था. मौद्रिक नीति के अन्य पहलुओं जैसे आरबीआई की देनदारियों, या लक्षित ब्याज दर पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा.
अंतत: जिन करेंसी की नोटबंदी की गई थी उनमें से 99 फीसदी से अधिक वापस बैंकों में जमा कर दी गईं. जिससे M3 (प्रचलन में धन की मात्रा को मापने का एक संकेतक) की स्थिरता बनी रही.
2019 में गीता गोपीनाथ, प्राची मिश्रा, अभिनव नारायणन, और गेब्रियल चोडोरो-रीच द्वारा एक अध्ययन किया गया था, जिसमें विमुद्रीकरण के आर्थिक प्रभावों की जांच की गई थी. इन्होंने अपनी स्टडी में उन क्षेत्राें के बारे में बताया जो 'नोटबंदी के झटकों' से गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे :
ATM से पैसा निकालने में बड़ा संकुचन देखने को मिला;
आर्थिक गतिविधियों में बड़ी गिरावट या कमी जैसा कि ह्यूमन-जनरेटेड नाइटलाइट एक्टिविटी को सेटेलाइट डाटा द्वारा मापा गया और रोजगार के संबंध में किए गए सर्वे के आधार पर आंका गया
धीमी ऋण वृद्धि (credit growth); और
ई-वॉलेट और पॉइंट-ऑफ-सर्विस कार्ड (POS सर्विस कार्ड्स) जैसी वैकल्पिक भुगतान तकनीकों को तेजी से अपनाना.
अध्ययन में पाया गया कि :
"उपरोक्त चित्र में दिखाए गए क्रॉस-सेक्शनल पैटर्न इस बात का प्रमाण देते हैं कि भारत के विमुद्रीकरण के दौरान पैसा (धन) तटस्थ नहीं था. आधुनिक भारत में मुद्रा (करेंसी) की विशेष भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डाला. विमुद्रीकरण के दौरान, व्यापक धन समुच्चय (जैसे M3) में परिवर्तन नहीं हुआ, लेकिन फिर भी आउटपुट में गिरावट हुई. हालांकि, इन आंकड़ों द्वारा निहित आउटपुट में क्रॉस-सेक्शनल डिफरेंस मुद्रा में गिरावट की तुलना में काफी कम है. यह डिफरेंस बताता है कि लोगों ने लेन-देन के लिए कानूनी नकदी का उपयोग करने से बचने के तरीकों की खोज की. उदाहरण के लिए खुदरा विक्रेताओं को क्रेडिट की एक अनौपचारिक लाइन खोलकर, या पुराने नोटों को स्वीकार करके, या भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक रूपों पर स्विच करके. विश्लेषण से पता चलता है कि डेबिट कार्ड्स और ई-वॉलेट लेनदेन दो विकल्प (सब्सिट्यूट) थे."
काले धन के खात्में से लेकर डिजिटल इंडिया तक : कैश बैन पर सरकार का सुर कैसे बदला
नोटबंदी की घोषणा के ठीक बाद के नीतिगत उद्देश्य की शायद / संभावित विफलता(ओं) के बारे में इस लेखक ने सबसे पहले लिखा था. बाद में अपनी गलती का एहसास करते हुए मोदी सरकार ने अपनी खराब सोच-विचार और समयबद्ध नीति के लक्ष्यों की परिभाषा को बदलना जारी रखा : पहले बताया गया था कि नोटबंदी का उद्देश्य काले धन के उत्पादन को कम करना और भ्रष्टाचार का मुकाबला करना था, वहीं बाद में इस बात का तर्क देने के साथ बहस की जाने लगी कि यह कदम डिजिटल लेन-देन (पैसे के लेनदेन को "औपचारिक" करने के तरीके के रूप में) को बढ़ावा देने के लिए था.
जैसा कि उपरोक्त अध्ययन के प्रमाणों से भी पता चलता है, विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने डिजिटल पेमेंट का सहारा इसलिए नहीं लिया क्योंकि उन्हें ऐसा करने के लिए 'प्रोत्साहन' दिया गया था बल्कि ऐसा विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के झटके की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ.
ग्रामीण क्षेत्र, जो अक्सर नकदी पर अधिक निर्भर होते हैं, बुनियादी भुगतान सुनिश्चित करने के लिए महीनों तक संघर्ष करते रहे. शहरी क्षेत्रों में अधिकांश एमएसएमई और कई अन्य छोटे और मध्यम स्तर के उद्यम, नोटबंदी के सदमे से शायद ही पूरी तरह उबर पाए हों. पूरे भारत में न केवल समग्र उत्पादन में तेजी से गिरावट आई, बल्कि भारत की मैक्रो-ग्रोथ ट्रेजेक्टरी भी नोटबंदी के बाद में कभी भी नोटबंदी के पहले के स्तर तक नहीं पहुंच पायी.
भारत के सबसे विचित्र (और शायद, मसखरापन) पॉलिसी एक्सिपेरिमेंट के लगभग छह वर्षों के बाद, संवैधानिकता के संकट (जैसा कि भटिया ने नोटबंदी के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्याय से विमुख होने का तर्क दिया है) के अलावा हमारे पास अभी भी कार्यपालिका के प्रति जवाबदेही तय करने की स्पष्ट तस्वीर नहीं है.
मोदी सरकार जिसे 'मदर ऑफ डेमोक्रेसी' के तौर पर संदर्भित करती है, उस पर ही नोटबंदी का वास्तविक प्रभाव देखने को मिला है. भले ही इस प्रभाव को अकादमिक शोध के एक निकाय के परे पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है, लेकिन नोटबंदी ने वाकई में आम नागरिकों के जीवन और आजीविका में विशेष रूप से गरीब, हाशिए पर पड़े लोगों, विस्थापित वर्गों पर कहर बरपाया है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इक्नॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वे कार्लटन यूनिवर्सिटी में इक्नॉमिक्स डिपार्टमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Deepanshu_1810 है. यहां एक ओपिनियन पीस है. इसमें उल्लेखित विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है और ना ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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