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अफगानिस्तान में पाकिस्तान,चीन,रूस ने अमेरिका को बनाया बेवकूफ, अब भारत है निशाना?

पाकिस्तान के छल-कपट पर आंख मूदना अमेरिका के लिए बहुत नुकसानदेह रहा

डेविड देवदास
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Taliban Rule in Afghanistan| अफगानिस्तान</p></div>
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Taliban Rule in Afghanistan| अफगानिस्तान

(प्रतीकात्मक: AP via PTI)

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अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जा जमाने के साथ विश्व का सत्ता समीकरण बदल गया है. और भारत इस बदलाव का सबसे बड़ा शिकार हो सकता है.

कम शब्दों में कहा जाए तो पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को जीत लिया है. कार्यवाहक राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह सहित कुछ प्रमुख नेता उत्तर में पंजशीर घाटी से तालिबान का विरोध कर रहे हैं लेकिन भारत के सुरक्षा संगठनों को भरोसा नहीं है कि उनके बीच सहयोग कायम हो पाएगा. हम चाहते हैं कि ऐसा हो जाए, चूंकि पूरी तरह से ताकतवर तालिबान खतरनाक हो सकता है- अफगानी नागरिकों और भारत, दोनों के लिए.

तालिबान पाकिस्तान के खेल का तलबगार है. चीन, रूस और ईरान तो खेल के साथी लगते हैं, और कतर ने इस खेल को आसान बनाया है. रूस के अब अपने कुछ हित हो सकते हैं लेकिन इन ताकतवर देशों ने पाकिस्तान की पूरी मदद की है ताकि एक के बाद एक इलाका ढहता जाए और इसके लिए साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल किया है. इसके लिए घूस और धमकियां दी गईं. लल्लो-चप्पो की गई और तरह तरह के वादे भी.

अमेरिका को पूरी तरफ मूर्ख बनाया गया कि उसकी सेना के हटने के बाद क्या होगा. नाटो और दूसरे छोटे पार्टनर्स तो फैसले लेने की स्थिति में हैं ही नहीं. लेकिन इस बात के संकेत मिलते हैं कि यूके जिसने 1947 से जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान की तरफ से खेल खेला है, भी अफगानिस्तान में पाकिस्तान के शातिराना खेल का छिप-छिपकर समर्थन करता रहा है.

हैरानी भरा था यूके के सेना प्रमुख का बयान

जैसा कि द गार्डियन में पॉलिटिकल कमेंटेटर एंड्रूयू रॉनस्ले ने कहा था, “शायद यूके इस बात से नाराज है कि अमेरिका उसे नजरंदाज कर रहा है.” यूके के सेना प्रमुख ने जब एक बयान में तालिबान पर भरोसा जताया था, तब कइयों को हैरानी हुई थी. वैसे इसके अलावा भी कई तरह से भविष्य की तरफ इशारा कर दिया गया था.

ब्रिटिश सरकार की महीन आवाज कहे जाने वाले द इकोनॉमिस्ट ने तो यहां तक कह दिया था कि- भारत का अपमान, पाकिस्तान की जीत है. पर यह स्पष्ट नहीं किया था कि भारत का अपमान किस तरह हुआ था. शायद भारत के बड़े टीवी न्यूज चैनल ही वह अकेला मीडिया नहीं है जो सरकारी आवाज को बुलंद करते हैं.

अमेरिका बुरी तरह शर्मिन्दा हुआ है. उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी तालिबान के इर्द-गिर्द जुटे हुए हैं. हां, दिलचस्प यह है कि अमेरिका मन मारे बैठ गया है.

उसने एशिया में अपने पैर सिकोड़ लिए हैं लेकिन पूरी दुनिया में नहीं. चीन, रूस और ईरान ताकत की तिकड़ी बनकर उभर रहे हैं, और पाकिस्तान इनके बीचों-बीच सिंहासन पर विराजमान है. तुर्की छोर को संभाले हुए है और यूके इन ताकतवर देशों की छाया में कहीं दुबका हुआ है. हां, भारत को दरकिनार कर दिया गया है.

दुश्मन के दुश्मन से हाथ मिलाना

अगर अमेरिका के कूटनीतिज्ञों का यह मानना था कि नया तालिबान ईरान, चीन और रूस के लिए हालात मुश्किल करेगा तो यह थ्योरी सिर के बल उलट गई है. कम से कम फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है. अफगानिस्तान के नए हुक्मरानों से इस तिकड़ी के सुखद संबंध बन गए हैं.

ये तीनों चाहते हैं कि पाकिस्तान अमेरिका को धता बताए. शायद सिर्फ अमेरिका 2014 में आईएसआई चीफ हामिद गुल के उस बयान को समझ नहीं पाया था जो उन्होंने टीवी पर दिया था. गुल ने कहा था कि इतिहास याद करेगा कि आईएसआई ने किस तरह पहले अमेरिकी मदद से सोवियत संघ को हराया, और फिर अमेरिका की मदद से अमेरिका को ही शिकस्त दी.

बेशक, रूस और उससे भी ज्यादा ईरान तालिबान से नफरत करता है लेकिन दुश्मन के दुश्मन से हाथ मिलाने को बेताब है. चूंकि पिछले एक दशक से अमेरिका की बातचीत से यह साफ था कि तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा. पर लगता है कि दोनों ने सिर्फ इसलिए कूटनीतिक गठजोड़ किया ताकि तालिबान को उन इलाकों से दूर रखा जा सके, जहां उनके अपने हित हैं.

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तालिबान ने शिया बहुल इलाकों- मजार ए शरीफ, हेरात और बामियान को आसानी से अपने कब्जे में किया और वहां उसका कोई विरोध नहीं हुआ. ऐसा महसूस होता है कि ईरान ने वहां के स्थानीय प्रशासन को इस बात के लिए रजामंद किया था. अगर ऐसा है तो तालिबान ने जरूर यह वादा किया होगा कि वह ईरान पर हमला नहीं करेगा, या अफगानिस्तान के शिया समुदाय को नुकसान नहीं पहुंचाएगा.

चीन भी तालिबान को शिनजियांग प्रांत से दूर रखना चाहता है और तीन देशों (रूस तो सबसे ज्यादा) चाहते हैं कि तालिबान मध्य एशियाई देशों की तरफ न मुड़े.

क्या भारत निशाने पर है?

चूंकि तीनों चाहते हैं कि तालिबान को अपनी दिलचस्पी वाली जगहों से दूर रखा जाए, इसलिए उनके लिए आसान रास्ता यह है कि पाकिस्तान तालिबान को भारत की तरफ मोड़ दे.

मैंने द स्टोरी ऑफ कश्मीर में यही लिखा था कि आईएसआई ने दिसंबर 1992 में कश्मीर में अफगान हकरत उल मुजाहिदीन को लड़ने के लिए मंजूरी दे दी थी. गुलबुद्दीन हिकमतयार सहित पाक समर्थित मुजाहिदीनों ने उसी साल अप्रैल में काबुल पर कब्जा कर लिया था.

कश्मीर को लेकर दो साल पहले संवैधानिक बदलाव हुए हैं. इसके बाद कश्मीर के अधिकारों और भारत के दूसरे हिस्सों में मुसलमानों पर भीड़ की हिंसा की वायरल होती तस्वीरों को देखते हुए यह बहुत आसान होगा कि अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान लड़ाकों को इस तरह मोड़ दिया जाए.

अगर ऐसा होता है तो अमेरिका भारत की बहुत अधिक मदद नहीं कर पाएगा. बेशक, वहां डेमोक्रेट्स ‘कश्मीर के मसले को हल करने’ के लिए बातचीत को तैयार दिखते हैं. अगर युद्ध होता है तो भारत को जापान जैसे अपने क्वाड सहयोगियों से नौसैनिक समर्थन के अलावा थोड़ी बहुत मदद मिल सकती है.

तालिबान की तरफ सब खिंचे चले आ रहे हैं

रूस लंबे समय से चीन और ईरान को अमेरिका के खिलाफ खड़ा करना चाहता है. अब यह कोशिश रंग लाई है और तालिबान चुंबक का काम कर रहा है. सब उसकी तरफ खिंचे चले आ रहे हैं. आप याद कर सकते हैं कि रूस ने 1990 के दशक में यह पेशकश की थी कि भारत और चीन को एक साथ आ जाना चाहिए लेकिन राजीव गांधी की हत्या के बाद से भारतीय नीति निर्माता अमेरिका के गुण गाते रहे हैं.

ये तीनों देश खुद को तो तालिबान से बचाना चाहते ही थे, लेकिन इनका एक मकसद अमेरिका को ठिकाने लगाना भी था. हां, पाक-तालिबान की दोस्ती के चीन के लिए दूसरे अहम मायने भी हो सकते हैं.

पाकिस्तान के आतंकी गुट पहले ही चीन पर मंत्रमुग्ध हो चुके हैं. मैंने 2017 के एक आर्टिकल में यह कहा था कि लश्कर ए तैय्यबा और जैश ए मोहम्मद के प्रवक्ताओं ने सार्वजनिक तौर पर चीन की वाहवाही की थी और दक्षिण एशिया में उसकी भूमिका की तारीफ भी की थी.

तो, इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि आईएसआई ने अमेरिका को इस बारे में बेवकूफ बनाया कि उसकी सेनाओं की वापसी के बाद क्या होगा. 9/11 हमले के बाद जब पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान में घुसपैठ की, पाकिस्तान तब से अमेरिका को बेवकूफ बनाता आया है.

यहां तक कि हामिद करजई, जिन्हें अमेरिका ने 20 साल पहले अफगान राष्ट्रपति बनाया था, ने भी पाक-तालिबान एक्सिस के साथ एक हद तक सामंजस्य बैठाया और संक्रमण में समन्वय करने की कोशिश जारी रखी.

नवंबर 2001 में पश्चिमी देशों की दखल के बाद कुछ हफ्ते तक अमेरिका ने पाकिस्तान को इस बात की इजाजत दी कि वह अपने ट्रेनर्स के साथ तालिबान को भी ले जा सकता है. पाकिस्तान तब से अफगान तालिबान को हिफाजत करता रहा है, उन्हें प्रशिक्षण देने के साथ साथ लॉजिस्टिक्स भी देता रहा है. उसने तालिबान को वे हथियार भी मुहैय्या कराए हैं जो उसे तालिबान के खिलाफ इस्तेमाल के लिए अमेरिका ने दिए थे.

पाकिस्तान के छल-कपट पर आंख मूदना अमेरिका के लिए बहुत नुकसानदेह रहा. अमेरिका के एकैडमिक्स, एक्टिविस्ट्स और सैन्य अधिकारी भी ऐसा कहते आए हैं. इस पर अमेरिका ने खरबों डॉलर लुटाए हैं. हजारों जिंदगियां दांव पर लगी हैं. इसके अलावा उसकी साख पर भी बट्टा लग चुका है.

क्या यह दोस्ती टूटेगी

विश्लेषकों का अनुमान है कि तालिबान भी पाकिस्तान को वैसे ही दगा देगा, जैसे पाकिस्तान ने अमेरिका को दिया है. ऐसा मुमकिन है लेकिन इसका वितर्क भी मजबूत है. तालिबान इस बात से खुश होगा कि पाकिस्तान ने उसकी ताजपोशी को बहुत ही आसान बनाया है.

यह भी उम्मीद है कि तालिबान उन तीन देशों में से किसी की तरफ मुड़ जाए जिन्होंने इस मौके पर पाकिस्तान के कंधे से कंधा मिलाया है. ईरान डरा हुआ है कि अफगानिस्तान में हाजरा जैसे शिया अल्पसंख्यक समुदायों को कोई नुकसान न पहुंचे. चीन भी शिनजियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों के लिए तालिबान की फिक्र से सावधान रहेगा.

इसके अलावा एक और वजह है. भारत चीन का बड़ा प्रतिद्वंद्वी बने, इससे पहले चीन उसे कमजोर कर देना चाहता है. पाकिस्तान भारत के खिलाफ तालिबान को खड़ा करने की योजना बनाएगा तो यह चीन और ईरान, दोनों के लिए फायदे का सौदा होगा.

यानी दिक्कत भरा समय आ सकता है.

(डेविड देवदास ‘द स्टोरी ऑफ कश्मीर’ और ‘द जनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’ (ओयूपी, 2018) के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @david_devadas है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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