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पहली बार पूरे देश में नहीं आ रहे घरेलू कामगार, वक्त है दें अधिकार

1980 में एक पूरे शहर में घरेलू कामगार हड़ताल पर चली गई थीं, 39 लाख लोगों को आज भी नहीं मिला उनका हक

माशा
नजरिया
Published:
1980 में एक पूरे शहर में घरेलू कामगार हड़ताल पर चली गई थीं, 39 लाख लोगों को आज भी नहीं मिला उनका हक
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1980 में एक पूरे शहर में घरेलू कामगार हड़ताल पर चली गई थीं, 39 लाख लोगों को आज भी नहीं मिला उनका हक
(फोटोः Altered By Quint)

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पिछले दिनों लतीफा चला, लॉकडाउन खत्म होने के बाद आप लोग सबसे पहले किससे मिलना चाहेंगे... अधिकतर औरतों ने कहा, कामवाली बाइयों से. बेशक, लॉकडाउन में जिस अनिवार्य सेवा का सबसे ज्यादा टोटा हुआ है, वह है घरेलू कामकाज करने वाली बाइयों की सेवाओं का. बेशक, हम उन्हें सेवा यानी सर्विस मानते ही नहीं- पर है वह सेवा ही.

घरेलू कामगारों के बिना शहरी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. पूरा परिवार बाहर निकलकर आर्थिक गतिविधिय़ों में संलग्न हो पाता है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि घर का काम संभालने का जिम्मा किसी घरेलू कामगार का होता है. लॉकडाउन में घरेलू कामगारों की सेवाएं भी बंद हैं- अधिकतर लोग उन्हें अपने सैनिटाइज्ड घरों से दूर रखना चाहते हैं. पर परेशान भी हो रहे हैं- इसीलिए घरेलू कामगारों के महत्व को समझने का वक्त आ चुका है.

घरेलू कामगार का जीवन भी उतना ही महत्वपूर्ण है

किसी ने कहा- अगर हमें खुद को संक्रमण से बचाना है तो हमें घरों से बाहर नहीं निकलना चाहिए. ऐसा घरेलू कामगारों पर भी लागू होता है- उन्हें भी अपने घरों में ही रहना चाहिए. पर उच्च मध्यम वर्ग की चिंता घरेलू कामगार नहीं हैं- वे अपने लिए चिंतित हैं. अधिकतर घरेलू कामगार गरीब और तंग बस्तियों में रहते हैं- वहां संक्रमण फैलने का ज्यादा खतरा है. इसलिए लोग नहीं चाहते कि घरेलू कामगारों के जरिए संक्रमण उनके घरों तक पहुंचे. यहां उनकी चिंता से ज्यादा चिंता अपनी है. ऐसे भी किस्से सुनने को मिले हैं, जहां लोगों ने घरेलू कामगारों का मासिक मेहनताना नहीं चुकाया. चूंकि इसे वे उनकी छुट्टी मान रहे हैं, जबकि सरकार लगातार कह रही है कि अपने कर्मचारियों की तनख्वाह समय पर चुकाएं. तो, घरेलू कामगारों के बारे में सोचने की फुरसत किसे है- शायद यह देश में पहली बार है कि घरेलू कामगार काम करने नहीं आ रहे- मानो राष्ट्रव्यापी हड़ताल है.

अगर घरेलू कामगार हड़ताल पर चले जाएं तो क्या होगा

मान लीजिए कि घरेलू कामगार किसी दिन सचमुच हड़ताल पर चले जाएं तो क्या होगा... यही स्थिति होगी, जो आज है. आपको अपना सारा काम खुद ही करना होगा. सोचिए, तब वर्क फ्रॉम होम भी नहीं होगा- तो घर कैसे चलेंगे? ऐसा पूरे देश में तो नहीं, पर 1980 में पुणे में जरूर हुआ था. वहां घरेलू कामवाली बाइयां हड़ताल पर चली गई थीं और इसके बाद उन्होंने मिल-जुलकर पुणे शहर मोलकरणी संघटना बनाया था. संगठन ने तनख्वाह बढ़ाने और बीमारी में छुट्टी देने की मांग की थी. इस समय़ पुणे, नागपुर, मुंबई में कई घरेलू कामगार यूनियंस हैं.

आधिकारिक आंकड़े कहते हैं कि देश में लाखों घरेलू कामगार हैं- हालांकि केंद्रीय स्तर पर ऐसा कोई आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन एनएसएसओ-2011-12 के 68वें चरण के अनुसार, निजी घरों में लगभग 39 लाख लोग घरेलू कामगारों के तौर पर काम करते हैं जिनमें 26 लाख महिलाएं हैं.

जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि देश में पौने दो लाख के करीब बच्चे घरेलू कामगारों के तौर पर या ढाबों पर काम करने को मजबूर हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन एनएसएसओ और रोजगार एवं बेरोजगारी के सर्वेक्षणों का विश्लेषण करने के बाद कहता है कि 2009-10 में दो तिहाई घरेलू कामगार शहरी क्षेत्रों मे काम कर रहे थे. उनमें से अधिकतर निरक्षर या बहुत कम पढ़े लिखे हैं और अकुशल भी. वे देश के सबसे गरीब औऱ सबसे अधिक शोषित समूहों में से एक हैं. उन्हें अपने इंप्लॉयर्स पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि उन्हें भारत के श्रम कानूनों के अंतर्गत कोई कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है.

गरीबी, निरक्षरता और अकुशल होने के कारण उनके पास कोई बार्गेनिंग पावर नहीं है. वे अपने काम की शर्तों को तय नहीं कर सकते. इसीलिए संगठित भी नहीं. क्या असंगठित लोग किसी तरह की हड़ताल करने के बारे में सोच सकते हैं. ये तो हमने ही उन्हें घर बैठने पर विवश किया है.

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क्या कानून की ओर से कोई पहल नहीं हुई

घरेलू कामगारों के लिए कानून और रेगुलेशंस बनाने की पहल कई बार हुई है. 2015 में इस सिलसिले में भाजपा सांसद किरीट भाई सोलंकी ने संसद में घरेलू कामगार (उत्कृष्ट कार्य स्थितियां) विधेयक पेश किया था. पर वह विधेयक अब तक लंबित है. यह मंशा की ही तो बात है. 2011 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने घरेलू कामगारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए समझौता संख्या 189 को मंजूरी दी थी. भारत को अब भी इसका अनुमोदन करना बाकी है.

देश में असंगठित मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा देने वाला 2008 का अधिनियम और कार्यस्थल पर यौन शोषण का निवारण करने वाला 2013 का अधिनियम भी घरेलू श्रमिकों के अधिकारों को मान्यता नहीं देता. न ही 1986 के बाल श्रम के कानून में घरेलू कामकाज को जोखिमपूर्ण माना गया है. 2015 के विधेयक में घरेलू कामकाज में बच्चों को लगाना भी प्रतिबंधित किया गया है.

2019 में श्रम और रोजगार मंत्री ने लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि मंत्रालय‘राष्ट्रीय घरेलू श्रमिक नीति’ का मसौदा तैयार कर रहा है. इसके अंतर्गत घरेलू श्रमिकों को असंगठित श्रमिकों के रूप में पंजीकरण का,अपना संगठन/संघ बनाने का, न्यूतम मजदूरी एवं सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच का और अपना कौशल विकास करने का अधिकार होगा. घरेलू श्रमिकों को दुर्व्यवहार एवं शोषण से संरक्षण प्राप्त होगा और वे शिकायत निवारण हेतु न्यायालयों में जा सकते हैं.

यूं अभी यह दूर की कौड़ी है. पर भी फिर हम खुद इस संबंध में पहल कर सकते हैं. सबसे पहले तो कामकाजी औरतों में घरेलू कामवाली बाइयों को सम्मिलित करने की पहल करनी होगी. दरअसल महिलाओं के अधिकतर घऱ काम को काम माना ही नहीं जाता. इसीलिए घरेलू कामगारों के घरेलू काम को भी महत्व नहीं दिया जाता. पर उनके काम के बिना, कोई उत्पादक काम संभव नहीं. यह मुफीद वक्त है, जब उनके महत्व को समझा जाए. यही वक्त है, उन्हें उनके अधिकार देने का. उनके श्रम का सही मूल्य देने का, उन्हें वैतनिक अवकाश देने का, उन्हें काम का अच्छा माहौल देने का, उनके साथ अच्छा व्यवहार करने का.

(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)

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