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वर्क फ्रॉम होम: भारत में ये न्यू नॉर्मल बना तो कामगार और पिसेंगे  

भारत में पहले से हैं होम बेस्ड वर्कर्स

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इधर बहुत से लोग लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम से ऊबे हुए हैं. उधर टीसीए जैसी देश की सबसे बड़ी आईटी कंपनी ने यह ऐलान किया है कि वह जल्द ही बीसियों साल पुराने ऑपरेटिंग मॉडल से आगे बढ़ने वाली है. उसने कहा है कि वर्क फ्रॉम होम का कॉन्सेप्ट उसे बहुत अच्छा लग रहा है- इसीलिए वह 2025 तक अपने 75 प्रतिशत कर्मचारियों से घरों से ही काम करवाने वाली है.

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इस खबर से यह चर्चा आम हुई है कि क्या वर्क फ्रॉम होम का चलन शुरू होने वाला है. यह पहली दफा है कि दुनिया भर में लोग घरों से काम कर रहे हैं. इसे एक प्रयोग के तौर पर लेने वाले भी कई हैं. पर क्या यह इतना आसान और संभव है?

भारत में पहले से हैं होम बेस्ड वर्कर्स

वैसे घरों में काम करना कोई नई बात नहीं है. भारत जैसे देश में होम बेस्ड वर्कर्स का एक बड़ा समूह है जो सालों से अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहा है, पर उसे कोई महत्व नहीं दिया जाता. न ही श्रम कानूनों में उन्हें जगह दी गई है. चूंकि होम बेस्ड वर्कर्स एक होमोजीनियस ग्रुप नहीं है, और उनके काम विविध तरीके के हैं, इनकी दो व्यापक श्रेणियां हैं पीस रेट वर्कर्स और ऑन एकाउंट वर्कर्स. पीस रेट वर्कर्स व्यापारियों या कंपनियों से सीधे या सब कॉन्ट्रैक्टर्स या बिचौलियों के जरिए काम लेते हैं. उन्हें पीस रेट के आधार पर पैसे चुकाए जाते हैं. उनका बाजार से सीधा ताल्लुक नहीं होता. ऑन एकाउंट वर्कर्स सीधे बाजार से कॉन्टैक्ट में रहते हैं, अपना कच्चा माल खुद खरीदते हैं.

एनएसएसओ 2005 से अपने रोजगार और बेरोजगारी संबंधी सर्वेक्षणों में होम बेस्ड वर्कर्स को शामिल कर रहा है. संगठन के 2011-12 के सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया था कि ऐसे वर्कर्स की संख्य़ा 3.74 करोड़ थी. समस्या यह है कि इन श्रमिकों को अनौपचारिक क्षेत्र में भी शामिल नहीं किया जाता. इस समूह की दोनों श्रेणियों को स्वरोजगार प्राप्त श्रमिकों की श्रेणी में शामिल किया जाता है.

वर्कप्लेस घर होता है तो उसके अच्छे या बुरे होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. यानी कार्यस्थितियों पर कोई प्रावधान लागू नहीं होता. न ही ऐसे श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा हासिल होती है. इतनी बड़ी श्रेणी के लिए पहले ही कोई ठोस कानून नहीं है. ऐसे में क्या वर्क फ्रॉम होम की दूसरी बड़ी श्रेणी को तैयार किया जाना चाहिए? क्या भारत के श्रम कानून इसके लिए तैयार हैं?

भारत के श्रम कानूनों के लिए यह एकदम अजूबी बात है

भारत में करीब 416 श्रम कानून और नियम हैं. कंपनियों को 278 किस्म की फाइलिंग और लगभग 1,000 किस्म के रजिस्टर रखने पड़ते हैं. किसी कंपनी को शॉप्स एंड इस्टैबलिशमेंट एक्ट, न्यूनतम वेतन एक्ट, वेतन भुगतान एक्ट, और कई दूसरे एक्ट्स के अंतर्गत रिकॉर्ड रखने पड़ते हैं. इन सब में माना जाता है कि काम किसी एक जगह पर रहकर किया जाता है.

वर्क फ्रॉम होम में काम के घंटे, उपस्थिति, ओवरटाइम, छुट्टियों वगैरह का हिसाब कैसे होगा? लेबर वेल्फेयर फंड कैसे बनेगा? औरतों को मेटरनिटी लीव कैसे मिलेगी?

वैसे कई देश इसके लिए पहले से तैयार हैं. नीदरलैंड्स में वर्किंग फ्रॉम होम की अवधारणा पहले से मौजूद है. वहां 13.7% लोग घरों से काम करते हैं. उनके लिए कानून भी है, जिसे फ्लेक्सिबल वर्किंग एक्ट कहा जाता है. यह 1 जनवरी, 2016 से लागू है. यह एक्ट कहता है कि अगर कोई कर्मचारी एक हफ्ते में 26 घंटे से ज्यादा काम करता है तो वह अपने काम के स्थान या काम के घंटों को समायोजित करने का आग्रह कर सकता है. फिर भी इस अवधारणा का विरोध करने वाले नीदरलैंड्स में भी मौजूद हैं.

वर्क फ्रॉम होम का इतिहास बहुत बुरी यादों से भरा है

जिसे आज वर्क फ्रॉम होम कहा जा रहा है, सत्तर के दशक में यह टेलीवर्किंग कहलाती थी. तब लोगों ने कहा था- अब घर और वर्कप्लेस, दोनों की परिभाषाएं आपस में गड्डमड्ड होने वाली हैं. तकनीकी उन्नति ने इसे और संभव बनाया था. टेलीवर्किंग पश्चिमी पूंजीवादी देशों की फॉसिल फ्यूल पर निर्भरता को कम करने का सूत्र मानी गई. किसी का कहना था कि इससे दूरदराज के क्षेत्र भी श्रम सघन बन पाएंगे.

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इस अवधारणा को ब्रिटिश सॉफ्टवेयर कंपनी एफ इंटरनेशनल की संस्थापक स्टेफनी स्टीव शर्ली ने अपनाया. उन्होंने ऐसी हाई स्किल्ड महिला प्रोग्रामर्स को हायर किया था जिनका करियर शादी और बच्चों के बाद खत्म हो गया था. उनके लिए घर पर रहकर काम करना आसान था. लेकिन ट्रेड यूनियनों को डर था कि इससे श्रमिकों के अधिकार खत्म हो जाएंगे. उनकी संगठित होकर सामूहिक सौदेबाजी करने की ताकत, क्षीण हो जाएगी.

औरतों के लिए भी ऐसा करना मुश्किल हुआ क्योंकि घरेलू जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्ति नहीं मिली. घर पर रहकर काम करना, उनके लिए दोहरी जिम्मेदारी लेकर आया. जैसा कि कोविड-19 के दौरान देखने को भी मिल रहा है. इसीलिए टेलीवर्किंग लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई. वर्क फ्रॉम होम का भी लंबे समय तक जारी रहना संभव नहीं. फिर भी मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार हेलेन मैकार्थी कहती हैं, अगर वर्किंग फ्रॉम होम, पोस्ट कोरोना का भविष्य है तो भी हमें उसके जटिल अतीत को याद रखना चाहिए. अतीत की गलतियों से ही भविष्य को संवारा जा सकता है.

क्या भारत में बढ़ेगा वर्क फ्रॉम होम?

वर्क फ्रॉम होम आसान लग रहा हो लेकिन बड़े पैमाने पर यह संभव कतई नहीं है. दुनिया के बड़े से बड़े आधुनिक देश में भी. फिजिकल प्रॉक्सिमिटी यानी शारीरिक निकटता के बिना दफ्तरों में काम करना भी आसान नहीं. भारत में तो कतई नहीं. जैसे कि देश की बड़ी ह्यूमन रिसोर्स कंपनी टीमलीज सर्विसेज के चेयरपर्सन मनीष सभरवाल ने एक इंटरव्यू में कहा - हमारे देश के 70% ग्रैजुएट्स और 10% नॉनग्रैजुएट्स वर्क फ्रॉम होम नहीं कर सकते. यूरोपीय देशों में भी 60 से 70% वर्क फ्रॉम होम से नहीं हो सकता. फिलहाल वहां लॉकडाउन से पहले सिर्फ 5% लोग घरों से काम करते थे.

आईबीएम वह पहली मल्टीनेशनल कंपनी थी जिसने अपने कर्मचारियों को घर पर रहकर काम करने का मौका दिया लेकिन घटते मुनाफे ने कंपनी को अपना फैसला पलटने पर मजबूर किया. उसने लोगों को दोबारा ऑफिस आकर काम करने को कहा. इसके बाद याहू, हनीवेल और बैंक ऑफ अमेरिका को भी आईबीएम जैसा ही फैसला लेना पड़ा.
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फिलहाल वर्क फ्रॉम होम की अवधारणा पर काम, काम की निरंतरता के कारण किया जा रहा है, उत्पादकता के आधार पर नहीं. इसलिए इसके जारी रहने की बात, उतनी पक्की तरह नहीं की जा सकती. परंपरागत क्षेत्रों में हाथ के काम का ही महत्व है. इस क्षेत्र में हैंडलूम, हैंडीक्राफ्ट, कॉयर, काजू, बीड़ी, टाइल, और दूसरी घरेलू औद्योगिक गतिविधियां आती हैं. यह क्षेत्र श्रम सघन है. इसमें शारीरिक मौजूदगी के बिना काम कैसे हो सकता है.

(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)

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