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क्या भारत ने तालिबान (Taliban) के साथ बातचीत शुरू की है, 10 जून को इस प्रश्न का जवाब देते हुए विदेश मंत्रालय ने अस्पष्ट तौर पर कहा “ अफगानिस्तान (Afghanistan) में हम कई स्टेकहोल्डर के संपर्क में हैं.” 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से पूरी तरह लौटने को तैयार है. ऐसे में अफगान तालिबान के पहले से ही बड़े हिस्से में नियंत्रण को देखते हुए कुछ मीडिया चैनल इस बात की चेतावनी दे रहे हैं कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान में इस सुरक्षा में कमी का फायदा उठाते हुए कश्मीर में विदेशी आतंकवादियों को भेज सकता है. ये महत्वपूर्ण है कि भारत बिना समय बरबाद किए इस क्षेत्र में अपनी रणनीतिक चाल चले.
भारत इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा मदद करने वाला देश है और पश्तून सहित अफगानिस्तान के लोगों के बीच भारत की छवि बहुत अच्छी है- और ये जरूरी है कि भारत अपने हितों की रक्षा करे. लेकिन तालिबान के कई टुकड़ों में बंटे होने का मतलब है कि भारत को कई गुटों से बात करनी होगी. ऐसे भी, अफगानिस्तान पर आम तौर पर स्थानीय ताकतों का शासन रहा है, ‘अफगान समस्याओं से अफगान समाधान’ के साथ-इसका अर्थ है कि बाहरी लोगों को अक्सर स्थानीय नेताओं के साथ अलग से सौदा/समझौता करना होता है.
मोटे तौर पर तालिबान को तीन मुख्य गुटों में बांटा जा सकता है:
अफगान तालिबान, जो अफगानिस्तान में लड़ रहा है
हक्कानी नेटवर्क (HN), पूर्वी अफगानिस्तान में अफगान तालिबान का क्षेत्रीय कमांड और
पाकिस्तान के खिलाफ लड़ रहा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP)
इसके अलावा कई छोटे और समूह (आमतौर पर पैसों के लिए काम करने वाले) और कई देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जिहाद छेड़ने वाले विदेशी सहित सभी तबके के लड़ाके, स्थानीय दल जिनकी अपनी स्थानीय समस्याएं और अपराध हैं, जो सुविधा के लिए तालिबान के नाम का इस्तेमाल करते हैं.
हक्कानियों के नेतृत्व वाला HN सबसे व्यवस्थित और खतरनाक गुट है. सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान “ऑपरेशन साइक्लोन” के तहत CIA से मिली मदद के कारण तालिबान के सत्ता में आने के पहले से ही वो एक शक्तिशाली संगठन था. हालांकि हक्कानियों ने लगातार तालिबान के प्रति अपनी वफादारी की बात कही है लेकिन उन्होंने बड़े स्तर पर ऑपरेशनल और वित्तीय स्वायत्तता बनाए रखी हैं- और अल-कायदा और लश्कर-ए-तैयबा से उनके संबंध के काफी सबूत मौजूद हैं.
दो असफल एंग्लो-अफगान युद्ध के बाद ब्रिटिश और अफगान इलाके को अलग-अलग करने के लिए 1896 में डुरंड लाइन की स्थापना की गई थी. इस लाइन ने पश्तून (और बलोच) आबादी को भी अफगान और ब्रिटिश इंडिया में विभाजित कर दिया.इस लाइन को अफगानिस्तान मान्यता नहीं देता है.
तब से जातीय, भाषायी और धार्मिक समानता के बावजूद पाकिस्तान-अफगानिस्तान के संबंधों की खास बात आपसी अविश्वास ही है. अफगानिस्तान पाकिस्तान के पश्तून इलाकों को मिलाने की कोशिश करता रहा है. शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान के अमेरिका के साथ मिल जाने के बाद अफगानिस्तान और USSR ने पस्तूनिस्तान आंदोलन को हवा दी.
1970 के दशक में, अफगानिस्तान के कम्युनिस्ट और इस्लामी आंदोलनों का पश्तूनिस्तान को काफी समर्थन मिला- और पाकिस्तान ने जातीय राष्ट्रवाद से ध्यान हटाने के लिए आतंकवादियों को पालना करना शुरू कर दिया.
कई अफगानी इस्लामी धर्मगुरु/छात्र/पूर्व मुजाहिदीन, ज्यादातर पश्तूनों ने इस मुजाहिदीन सरकार को बंटे हुए, कमजोर, भ्रष्ट और पश्तून विरोधी सरकार के तौर पर देखा. इसलिए 1993-94 में उन्होंने मुल्ला मोहम्मद उमर के नेतृत्व में तालिबान का गठन किया.
मध्य एशिया तक पहुंचने का रास्ता तलाश रहे और भारत के प्रभाव को रोकने की कोशिश कर रहे पाकिस्तान ने तालिबान का समर्थन किया,जिसने 1996 में अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया. अंतरराष्ट्रीय समुदाय से नकारे जाने के बाद तालिबान ने अल-कायदा को शरण दी, जिसने 9/11 का हमला किया. 9/11 के बाद अमेरिकी सेना की कार्रवाई ने तालिबान के राज को खत्म कर दिया और कई बड़े नेता और कैडर पाकिस्तान के कबीलाई इलाके जैसे खैबर पख्तूनख्वा प्रांत (पूर्व NWFP), फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज, फ्रंटियर रीजंस और प्रोविंसिएली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज के सुरक्षित ठिकानों की ओर भाग गए.
करीब 42 फीसदी से ज़्यादा (1.68 करोड़) आबादी के साथ अफगानिस्तान में पश्तून जातीय आधार पर सबसे बड़े समूह हैं, इनके बाद ताजिक हैं जिनकी आबादी 27 फीसदी है और इनके बाद उजबेक और हाजरा( 9-9 फीसदी) हैं. पाकिस्तान में वो जातीय आधार पर दूसरे सबसे बड़े समूह हैं- करीब 2.72 करोड़ पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों में रहते हैं। तालिबान मुख्य तौर पश्तून लोगों का एक आंदोलन है- और पाकिस्तानी सेना में करीब 14 फीसदी पश्तून मूल के लोग हैं। हालांकि न तो पश्तून एक जातीय हैं और न ही तालिबान.
करीब-करीब सभी अफगानी शासक दुर्रानी कबीले के रहे हैं. हालांकि, 9/11 के बाद के अफगानिस्तान ने असामान्य तौर पर गुटों को साथ आते देखा - दुर्रानी लड़ाके घिलजई (मुल्ला उमर) के तहत, एक दुर्रानी (पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई) के नेतृत्व वाली अफगान सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे, जिनकी सेना में एक बड़ी संख्या में ताजिक मूल के लोग थे. पाकिस्तान में सेना और फ्रंटियर कॉर्प्स में शामिल पश्तूनों ने तालिबान के खिलाफ ऑपरेशन में हिस्सा लिया.
पाकिस्तान का अफगानिस्तान और भारत के साथ सीमा विवाद चल रहा है लेकिन वो दोनों मोर्चों पर नहीं लड़ सकता है. ये भी माना जाता है कि अगर अफगानिस्तान का रवैया दुश्मनी भरा हो तो पाकिस्तान को अतिरिक्त सेना जुटानी होगी क्योंकि पाकिस्तानी सेना में सैनिकों की मौजूदा संख्या भारत के मुकाबले कम है.इसलिए ये अफगानिस्तान में ‘रणनीतिक फैलाव’ की कोशिश है.
हालांकि, पांच कारण अब कश्मीर में विदेशी लड़ाकों का फायदा उठाने की पाकिस्तान की क्षमता के विरुद्ध काम करते हैं:
(a) अफगानिस्तान-पाक क्षेत्र में सभी गुटों के आतंकवादियों के खिलाफ अक्टूबर 2001 के बाद से अमेरिका की लगातार कार्रवाई ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. अमेरिकी ड्रोन के हमले जारी रहने की उम्मीद है.
(b) 9/11 के बाद पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया है. 9/11 से पहले तालिबान पूरी तरह से अफगानिस्तान का मामला था. लेकिन पाकिस्तान में सुरक्षित पनाहगारों के खिलाफ कार्रवाई (2003) किए जाने को मजबूर किए जाने के बाद पाकिस्तान विरोधी तालिबान गुट बढ़ गए हैं. पाकिस्तान को लगता है कि अमेरिकी सेना के लौटने के बाद ऐसे गुटों को अपने अफगानी साथियों से काफी मदद मिल सकती है.
(c) फरवरी 2021 में तालिबान के तथाकथित सैन्य आयोग ने अपने सदस्यों को अपनी सेना में “विदेशी” लड़ाकों को शरण नहीं देने का आदेश दिया. ये आदेश कम से कम कहने के लिए, फरवरी 2020 के शांति समझौते की बड़ी शर्त-कि अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय जिहादियों के लिए एक शरणस्थली के तौर पर काम नहीं करेगा, का पालन करने की कोशिश है.
(d) अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था की खराब हालत और 9/11 के बाद गुप्त मनी ट्रांसफर, ड्रग्स की तस्करी आदि पर नियंत्रण को देखते हुए तालिबान को लगातार फंडिंग/मदद के लिए अंतरराष्ट्रीय मान्यता की जरूरत है. और भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय की वो महत्वपूर्ण कड़ी प्रदान कर सकता है.
(e) भारत का खुफिया सुरक्षा ग्रिड अब पहले से काफी बेहतर हो गया है और पिछले एक दशक में आतंकवादियों, उनके आकाओं और मददगारों का बड़ी संख्या में सफाया किया गया है.
(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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