अफगानिस्तान में जिसका डर था, वो शुरू हो गया है. अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही कई अफगान इलाकों से सुरक्षा बलों के तालिबान के सामने सरेंडर करने की खबरें आने लगी हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के सलाहकारों समेत कई लोगों को इसका अंदेशा था. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि अमेरिकी सेना की गैरमौजूदगी में तालिबान मजबूत हो रहा है. लेकिन इस बार स्थिति अलग है क्योंकि सेना हमेशा के लिए वापस जा रही है और इससे सबकुछ बदल सकता है.
न्यू यॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट किया है कि तालिबान ने पूर्वी अफगानिस्तान के लघमान प्रांत में सात ग्रामीण सैन्य आउटपोस्ट पर कब्जा कर लिया है. ये हाल की ही घटना है.
1 मई से अमेरिकी सेना की वापसी शुरू हो चुकी है. तब से अब तक लघमान, बगलान, वरदाक और गजनी प्रांत में कम से कम 26 आउटपोस्ट और बेस तालिबान को सरेंडर किए जा चुके हैं.
अमेरिका के अफगानिस्तान से लौटने को लेकर सबसे बड़ा डर यही जताया गया था कि धीरे-धीरे मजबूत हो रहा तालिबान फिर से देश पर कब्जा कर सकता है. केंद्रीय अफगानिस्तान में अशरफ गनी सरकार का प्रभाव और नियंत्रण है लेकिन दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों पर तालिबान का दबदबा है. बाइडेन के वापसी ऐलान से पहले ही इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स में कहा जा रहा था कि सेना हटते ही तालिबान 1996 को दोहरा सकता है.
क्या अब भी तालिबान पा सकता है नियंत्रण?
जो बाइडेन अफगानिस्तान में सेना की भारी मौजूदगी के पक्ष में कभी नहीं रहे हैं. डोनाल्ड ट्रंप कार्यकाल में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ था, जिसके मुताबिक US सैन्य बलों को 1 मई 2021 तक वापसी करनी थी. ये डेडलाइन पूरी कर पाना नामुमकिन था. इसलिए बाइडेन ने ऐलान किया कि सेना की वापसी 11 सितंबर तक पूरी होगी. 11 सितंबर अमेरिका पर हमले की बरसी का दिन होगा. इस भयानक हमले को 20 साल पूरे हो जाएंगे.
हालांकि, बाइडेन ने ये फैसला कई टॉप जनरल और पेंटागन के अधिकारियों की आपत्ति के खिलाफ जाकर किया था. इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स कह रही थीं कि ‘अगर सेना वापस आती है तो अफगान सरकार के लिए तालिबान को रोकना मुश्किल होगा.’
इस बात को लेकर जानकारों और एक्सपर्ट्स में सहमति नहीं है कि तालिबान फिर से अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा या नहीं. 1996 में वो ऐसा कर चुका है. लेकिन वो समय दूसरा था. तब तालिबान का उदय हुआ था, देश गृह युद्ध की चपेट में था, भ्रष्टाचार से परेशान आम जनता के बीच तालिबान को समर्थन मिल रहा था.
20 साल अमेरिकी मौजूदगी ने अफगानिस्तान को बदला है. अफगान सुरक्षा बल को ट्रेनिंग दी गई है, इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार हुआ है, बच्चे स्कूल जा रहे हैं. लेकिन अशरफ गनी सरकार अकेले तालिबान का सामना कर लेगी इस पर सभी को शक है.
तालिबान के लिए भी 1996 के काबुल कब्जे को दोहराना आसान नहीं है. तालिबान अब खुद को उग्रवादी संगठन नहीं बल्कि राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल देखना चाहता है. वो देशों से मान्यता चाहता है जिसके लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सत्ता में आना जरूरी है. कतर समेत रूस, तुर्की में चल रही बातचीत गनी सरकार के साथ राजनीतिक सौदेबाजी करने के लिए जरूरी हैं. अगर तालिबान फिर से देशव्यापी सैन्य ऑपरेशन लॉन्च करेगा तो ये सब खोने का खतरा है.
इतिहास क्या कहता है?
अमेरिकी सेना की सबसे ज्यादा मौजूदगी साल 2010-11 में थी. उस समय अफगानिस्तान में 1 लाख करीब सैनिक थे. फिर भी तालिबान खत्म नहीं हुआ था. 1 मई से पहले बमुश्किल 2500 सैनिक देश में मौजूद थे.
द इकनॉमिस्ट के डिफेंस एडिटर शशांक जोशी ने क्विंट हिंदी से कहा था कि 'बाइडेन का फैसला इस तथ्य पर आधारित लगता है कि 20 सालों बाद भी तालिबान हारा नहीं है और उसकी स्थिति पहले से बेहतर है.'
“अगर 100,000 अमेरिकी सैनिक विद्रोह नहीं खत्म कर पाए तो कुछ हजार और साल रहकर कैसे करेंगे? इसके अलावा अल-कायदा का खतरा काफी कम हो गया है और आतंकी खतरा अब मिडिल-ईस्ट और अफ्रीका के क्षेत्रों में ज्यादा गंभीर है.”शशांक जोशी
अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की मौजूदगी कम-ज्यादा होती रही है और इस दौरान तालिबान का प्रभाव हमेशा से दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों में ज्यादा रहा है. ये तथ्य बना रहा है कि सरकार केंद्र और शहरों में होगी और तालिबान ग्रामीण इलाकों को गढ़ बनाएगा.
अफगान सुरक्षा बलों का इतिहास बहुत करिश्माई नहीं रहा है. बिना अमेरिकी ताकत के तालिबान का सामना करना बहुत मुश्किल चुनौती है. इतिहास गवाह है कि तालिबान लड़ाके सैन्य अभियानों में परिपक्व और अनुभवी हैं. अमेरिका ने अफगान बलों को ट्रेनिंग दी है, हथियार दिए हैं लेकिन 90 के दशक जैसी लड़ाई का अनुभव उनके पास कम है. तालिबान को इसमें फायदा मिलता है.
तालिबान का ध्यान शांति वार्ता के साथ-साथ अमेरिकी सेना की वापसी पर भी है. जोशी का कहना था कि 'समय बीतने के साथ संगठन शहरों का नियंत्रण ले सकता है.' इससे तालिबान के पास गनी सरकार के साथ सौदेबाजी करना और आसान हो जाएगा. अमेरिका गनी सरकार पर सभी पक्षों को लेकर सरकार बनाने का दबाव डाल चुकी है. हो सकता है तालिबान का आउटपोस्ट पर कब्जा करना इसी योजना की शुरुआत हो.
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