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उत्तराखंड (Uttarakhand) के विधानसभा चुनावों का नतीजा आ गया है, 70 विधानसभा सीटों में 47 सीटों पर कब्जा जमा भारतीय जनता पार्टी (BJP) फिर से उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज होगी तो कांग्रेस पार्टी सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई, वहीं अन्य को 4 सीटें प्राप्त हुई. उत्तराखंड में फिर से सत्ता पाने को लेकर बीजेपी और कांग्रेस ने जो भी रणनीति अपनाई, अब चुनाव के बाद यह साबित हो गया है कि उनमें से बीजेपी ने बेहतरीन चुनावी रणनीति अपनाई और वह उत्तराखंड की जनता के मूड को भांपने में कामयाब हुई.
केंद्र सरकार के मोदी मैजिक ने उत्तराखंड के चुनावी परिणाम में सबसे ज्यादा असर डाला, उत्तराखंड की टोपी पहनने भर से ही प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराखंड में वोट पड़ने से पहले ही आधा किला फतह कर लिया था. बीजेपी ने ऑल वेदर रोड को अपनी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर पेश किया और जनता भी पर्यावरण के नुकसान की बड़ी कीमत पर हुए इस विकास से खुश रही.
चारधाम परियोजना के लिए हाई पॉवर कमेटी के अध्यक्ष रवि चोपड़ा की रिपोर्ट में इस रोड की चौड़ाई से होने वाले नुकसान के बारे में बताया गया था, पर कांग्रेस इस मुद्दे को पकड़ने और जनता को इसका महत्व समझाने में नाकामयाब रही.
उत्तराखंड की राजनीति पर करीबी से नजर रहने वाले प्रोफेसर एस पी सती के अनुसार कांग्रेस आधा चुनाव सीटों के बंटवारे के वक्त ही हार गई थी.
पिछले पांच सालों से कांग्रेस संगठन का एक दूसरे से जुड़ाव नही रहा, वरिष्ठ नेता हरीश रावत जहां अपनी ही पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों में उलझे रहे तो कांग्रेस आला कमान की तरफ से भेजे गए चुनाव प्रभारी दिल्ली के रहने वाले देवेंद्र यादव की एंट्री ने कांग्रेस की नैया पार लगने से पहले ही डुबा दी. उन पर प्रचार अभियान और टिकट बंटवारे में दखलंदाजी का आरोप लगता रहा.
कांग्रेस प्रदेश में अपना नारा 'चार धाम चार काम' जनता को ठीक से समझाने में नाकामयाब रही. पांच सीटों में टिकट बंटवारे में परिवारवाद की झलक भी देखने को मिली. जमीन पर काम करने वाले बहुत से नेताओ को टिकट नही दिया गया जैसे कोरोना काल में लोगों की मदद करने वाले देहरादून के अभिनव थापर को दरकिनार कर दिया गया. यमुनोत्री के संजय डोभाल ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज कर कांग्रेस को उनकी ऐसी ही गलती का अहसास कराया.
देहरादून में अपनी चुनावी रैली के दौरान बीजेपी के मुख्य चुनावी रणनीतिकार अमित शाह ने कांग्रेस को मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जुम्मे की छुट्टी की वजह से घेरा था. उन्होंने कांग्रेस के टिकट बंटवारे पर भी तीर चलाते हुए कहा था कि कांग्रेस ने राज्य आंदोलन के समय आरोपी रहे व्यक्ति को भी टिकट दिया.
प्रियंका गांधी की बात करें तो उनका खटीमा में दिया गया भाषण देखने में उसमें होमवर्क की कमी साफ झलक रही थी, उच्चारण गलत तो थे ही साथ-साथ वो उत्तराखंड की जनता के मूड को भांपने में भी नाकामयाब रहीं. उनका भाषण किसानों और रोजगार पर केंद्रित था पर उत्तराखंड की जनता के मन में तो कुछ अलग ही चल रहा था.
राहुल गांधी के भाषणों का भी जनता पर कुछ खास असर नही हुआ, उनके भाषण ज्यादातर कृषि कानून तक ही सिमटे रहे जिसका असर सिर्फ उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों तक ही देखा गया था.
कई बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि उत्तराखंड में यूपी की तरह हिंदू-मुस्लिम वाला कार्ड नही चलता तो इसका जवाब उन्हें कांग्रेसी वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद के नैनीताल जिले स्थित घर पर उनकी किताब को लेकर किए गए हमले के बाद मिल गया होगा.
बीजेपी की आईटी सेल भी चुनाव में जबरदस्त तरीके से काम कर रही थी, बीजेपी ने कोरोना काल से ही चुनावों के लिए कमर कस ली थी.
गरीबों को राशन पहले भी बांटे जाते थे पर उसमें प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ मुख्यमंत्री की तस्वीर कभी नहीं देखी गई थी.
उत्तराखंड के नानकमत्ता, बाजपुर और खटीमा में सिख समुदाय की आबादी अपने खेतों पर आ धमके गोवंश से परेशान हैं क्योंकि यूपी में योगी सरकार द्वारा गोकशी पर प्रतिबंध तो लगाया गया लेकिन गोवंश के रहने का उचित इंतजाम नहीं किया गया. चुनाव से पहले खटीमा के गुरमीत सिंह इसी वजह से बीजेपी से नाराज दिखे थे. इन सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा तो जमाया पर वह काफी नहीं था. पहाड़ी जिलों में कांग्रेस बंदर और सुअरों से खेती को हो रहे नुकसान के मुद्दे को उठाना भूल गई.
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं . उनका ट्विटर हैंडिल @Himanshu28may है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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