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वास्तव में इस समय शहबाज शरीफ के लिए जो परिस्थितियां हैं वह उससे बदतर नहीं हो सकती थीं. बंटे हुए गठबंधन और विभाजित देश के प्रधान मंत्री के तौर पर उनके पास एक कठिन काम है. वह काम है पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का. यह काम ऐसे समय पर तब और भी जटिल हो जाता है जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट में है और शायद ही कोई मदद का हाथ बढ़ाने के लिए तैयार हो. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने उसे चेतावनी दी है. हालांकि बहुत ज्यादा खुशी मनाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि श्रीलंका की तरह पाकिस्तान की दुर्दशा भी सभी के लिए एक खराब संकेत है. यह एक सबक भी हो सकती है कि आखिर वो क्या है जो क्या नहीं करना है?
पाकिस्तान में इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि क्या उनका देश उसी दिशा में बढ़ रहा है जिस तरह से श्रीलंका पूरी तरह से टूटने की ओर है. हाल ही में पाकिस्तान की कैबिनेट ने एक अध्यादेश पारित किया है, जिसमें अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए सरकारी संपत्ति बेचने की बात कही गई है. इसकी डिटेल्स काफी कुछ बयां करती है. इस लेन-देन को सरकार-से-सरकार के बीच तक सीमित करते हुए, कैबिनेट सावधानी से कहता है कि "इस अध्यादेश के मुताबिक कोई जांच एजेंसी, भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी, कानून प्रवर्तन एजेंसी या कोर्ट, किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी प्रक्रियात्मक चूक या अनियमितता की जांच नहीं करेगी... (और) किसी भी व्यक्ति पर उसकी आधिकारिक क्षमता में की गई कार्रवाई के लिए उसकी व्यक्तिगत क्षमता में मुकदमा नहीं किया जाएगा."
स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान की संघर्ष की ओर झुकी हुई राजनीति में कोई भी जोखिम नहीं उठाना चाहता है, जहां लगभग सभी नेताओं ने झूठे (मनगढ़ंत) या वास्तविक आरोपों पर जेल में समय बिताया हो. इसके बाद की आलोचनाओं की बाढ़ के दौरान कुछ ने इस तथ्य पर टिप्पणी की कि इस मामले में प्रधानमंत्री के पास बहुत कम विकल्प हैं. पाकिस्तानी मुद्रा लगातार गिर रही है, इस समय डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया अपने सर्वकालिक निचले स्तर (232.85) पर पहुंच गया है. वहीं पाकिस्तान का कुल कर्ज और देनदारियां बढ़कर 53.5 ट्रिलियन रुपये पर पहुंच गई हैं. रिपोर्ट के अनुसार जून 2021 में पाकिस्तान का कर्ज इसकी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में 55.1% था, जबकि जून 2020 में यह 56% और जून 2019 में 54.4% था. अगर हम भारत के संदर्भ में इस आंकड़े की बात करें तो यहां का ऋण-से-जीडीपी अनुपात 19.9% था. इन आंकड़ों की वजह से पाकिस्तान में लोग चिंता और डर में हैं. पाकिस्तान का कर्ज निवेशकों सहित सभी के लिए रोंगटे खड़े करने वाला है. बॉन्ड बाजारों से इसे पहले ही बंद कर दिया गया है. इस समय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अलावा कोई और नहीं बचा है.
फरवरी में आईएमएफ ने पाकिस्तान को लगभग 1 बिलियन डॉलर निकालने की अनुमति दी, जिससे बजट समर्थन के लिए कुल आवंटन लगभग 3 बिलियन डॉलर हो गया. अगर पाकिस्तान द्वारा चीन से लिए गए कर्ज पर नजर दौड़ाएं ताे यह आंकड़ा उसके सामने कुछ भी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने आईएमएफ से ज्यादा कर्ज चीन से ले रखा है, अकेले वाणिज्यिक ऋणों (commercial loans) की गणना करें तो यह लगभग 6.7 बिलियन डॉलर के हैं. आईएमएफ के साथ एक समझौते के तहत चीन अपने कर्ज के एक हिस्से को रोल करने के लिए सहमत हो गया है, जिसके तहत ऋण को उसके कर्ज के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है, जैसे कि संयुक्त अरब अमीरात 2 बिलियन डॉलर की अपनी जमा राशि के साथ है और सऊदी अरब अपने 3 बिलियन डॉलर से अधिक के ऋण और विस्तारित तेल सुविधा (रिपोर्ट के अनुसार 2.4 बिलियन डॉलर) के साथ है.
रिपोर्टों में बताया जाता है कि सुदूर उत्तर में कोहिस्तान के खनिज समृद्ध क्षेत्रों का विस्तारित पट्टा चीन को दिया गया है. सऊदी क्या मांग सकता है यह स्पष्ट नहीं है. अगर इसे इस तरह गिना जा सकता है तो वे अद्वितीय अंतर रखते हैं. सऊदी ने न केवल पाकिस्तान के सबसे संवेदनशील परमाणु प्रतिष्ठानों का दौरा किया, बल्कि इस कार्यक्रम को इस हद तक वित्त पोषित किया कि पश्चिमी पर्यवेक्षकों द्वारा पाकिस्तानी डिटेरेंट को रियाद द्वारा "किराए पर" के तौर पर देखा गया था. हाल में यह भी आरोप लगाया गया है कि चीन सऊदी को अपनी बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता प्रदान कर रहा है. इसके परिणामस्वरूप सब कुछ काफी विस्फोटक पैटर्न में एक साथ आता प्रतीत होता है. याद रखें, न तो जीवन और न ही अंतर्राष्ट्रीय संबंध कोई भी मुफ्त नहीं है.
इस बीच, इमरान खान ने अमेरिका से "आयातित" सरकार में "चोरों" द्वारा सरकार की संपत्ति की "बिक्री" की निंदा की है. यह काफी विडंबनापूर्ण है क्योंकि इस समय जो दयनीय स्थिति है उसके लिए तो सीधे तौर पर इमरान खान खुद ही दोषी हैं. पाकिस्तान आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार इमरान के कार्यकाल के अंत तक कुल सार्वजनिक कर्ज 44 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया था. स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि इमरान के कार्यकाल में कर्ज और देनदारियों में तेजी से इजाफा हुआ है जबकि इमरान सत्ता में इस वादे के साथ आए थे कि वे नवाज शरीफ की कथित फिजूलखर्ची में कटौती करेंगे.
हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब पूरी दुनिया ईंधन के दामों में बढ़ोतरी कर रही थी तब इमरान खान ने कीमतें कम की थीं. इसकी वजह से इमरान को लोकप्रियता मिली और पाकिस्तान को नुकसाना. इन तथ्यों और आंकड़ों के बावजूद, जो संभवत: सभी पाकिस्तानियों को पता है, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) ने पंजाब उपचुनाव में 20 में से 15 सीटें जीतीं, इसने कुछ बुनियादी सच्चाइयों और एक चौंकाने वाले नए मोड़ का प्रदर्शन किया. सबसे पहले, पूरे 'पनामागेट' घोटाले के दौरान जब आम तौर पर गुप्त सरकारी रिपोर्टों को प्रसारित किया जाता था और मीडिया पर अंतहीन बहस होती थी तब सेना ने शरीफ और उनके परिवार के सदस्यों को बदनाम करने का काम बखूबी किया. अकूत संपत्ति की छवि-जिसका कम से कम कुछ हिस्सा कानूनी तौर पर हासिल किया गया था-वह ज्यादातर पाकिस्तानियों को बेचैन कर सकती थी.
दूसरा, सेना अपनी राजनीतिक इंजीनियरिंग को वापस लेने में असमर्थ लग रही है, ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि, जैसा कि कई लोग मानते हैं, यह एक विभाजित स्थिति में है. हालांकि यह पूरी तरह से असामान्य नहीं है, लेकिन उनका वर्तमान में फड़फड़ाना असामान्य है.
दूसरे शब्दों में, कोई भी सेना के इस कथन पर भरोसा नहीं कर कि कोई साजिश नहीं है. और आखिर में, पीटीआई ने जहां सोशल मीडिया का चालाकी से इस्तेमाल किया है, वहीं एक चिरस्थायी सच्चाई भी है : अपने मतदाताओं की जेब ढीली करना आपके राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है. महंगाई 14 वर्षों में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है और इसके कम होने की कोई संभावना नहीं है.
क्या पाकिस्तान का पतन हो जाएगा? यह देखते हुए कि यह ऐसा देश नहीं है जिसके पास कोई प्राकृतिक संपत्ति और ताकत नहीं है, इसका उत्तर शायद नहीं है.
यह सच है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए यह अपनी बड़ी कृषि भूमि का उपयोग करने में असमर्थ रहे हैं, क्योंकि किसी भी सरकार ने इसे कभी भी ठीक करने की कोशिश नहीं की है. लेकिन एक नई सरकार इसकी शुरुआत कर सकती है, क्योंकि इसके पास लगभग कंबोडिया के आकार के बराबर करीब 22 मिलियन हेक्टेयर है.
यह भी सच है कि इसने 1960 के दशक से विदेशी सहायता पर निर्भर होना शुरू कर दिया था, जैसे कि भारत में 'फूड फॉर पीस' कार्यक्रम था, जिसे आमतौर पर 'PL-480' के रूप में जाना जाता है. इसके बाद भारत ने 'हरित क्रांति' की शुरुआत की जबकि पाकिस्तान ने इससे उलट काम किया : इसने टैक्स लगाया और अपनी क्षमता को भी बर्बाद कर दिया. लेकिन सही तरह के समर्थन से चीजें अलग हो सकती थीं.
भारत में असहज अर्थव्यवस्था का मतलब असहज राजनीति भी था. याद रखें कि 1960 के दशक में लाल बहादुर शास्त्री की अल्पकालिक सरकार ने तीन अविश्वास प्रस्ताव और स्थगन का सामना किया. अंततः भारत स्थिर हो गया, हालांकि हमेशा के लिए नहीं. जबकि आगे चलकर पाकिस्तान ने सैन्य शासन देखा.
यहां सबक स्पष्ट है. सेना को कुछ संस्थानों को इस झंझट से उभरने देना होगा. ऐसा हो सकता है. ऐसे प्रतिभाशाली पाकिस्तानियों की कमी नहीं है जो बदलाव लाना चाहते हैं. इनमें से कुछ राजनेता भी हो सकते हैं.
लीडरशिप संभालने की क्षमता शहबाज शरीफ में है. लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे. पंजाब में उनकी पार्टी की स्थिति पहले से ही ठीक नहीं है, जहां पीटीआई समर्थित परवेज इलाही ने उनके बेटे हमजा शरीफ को सत्ता से बेदखल कर दिया. अगर राष्ट्रीय चुनावाें की घोषणा होती है तो कोई भी पार्टी आवश्यक लेकिन अलोकप्रिय उपायों के विकल्प को नहीं चुनेगी. हालांकि सेना कुछ असमंजस में दिखाई दे रही है लेकिन इसके कोई आसार नहीं दिख रहे हैं कि वह पीछे हट जाएगी और संस्थानों को आगे आने देगी. अगर इन दो कारकों का हल निकाला जाता है तो कुछ आशा दिखाई देती है.
इस दौरान, श्रीलंका का खौफ बना हुआ है. वहीं कभी एक मॉडल राज्य के रूप में देखे जाने वाले बांग्लादेश ने अब दशकों में पहली बार बेलआउट पैकेज के लिए आईएमएफ की ओर रुख किया है क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उसका विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया है.
भारतीय रुपये में भी गिरावट आई है. एक शीर्ष मीडिया हाउस ने करीब 300 फर्मों के एक अध्ययन के हवाले से बताया कि मुनाफे में 200-300 अंकों की गिरावट आई है. यह बात सच है कि हमारे पास प्रचुर मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार है लेकिन यह निर्यात की वजह से नहीं है, ये कभी भी खत्म हो सकता है. यह समय पाकिस्तान की बदहाली पर हंसने या अतीत की उपलब्धियों पर आराम करने का नहीं है. उदाहरण के लिए, हरित क्रांति जिसने भारत को बचाया था वही अब उत्पादन के गिरने का कारण भी है. इसके पीछे स्वार्थ और नए विचारों का खारिज किया जाना है.
यह समय एक साथ डूबने का नहीं है. पहले से ही यूक्रेन युद्ध हमारे और हमारे पड़ोसियों के लिए ऐसा कर रहा है. जोखिम उठाएं या इससे निपटें.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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