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गेहूं के निर्यात (Wheat Export) पर बिना सोचे समझे बैन करने के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले से एक भरोसेमंद एक्सपोर्टर के तौर पर भारत की विश्वसनीयता को धक्का लग सकता है, साथ ही इसने किसानों की भलाई को लेकर मोदी सरकार की बड़ी बड़ी बातों की कलई खोल दी है.
वाणिज्य विभाग के नोटिफिकेशन के हिसाब से रातोंरात सभी तरह के गेहूं खास प्रोटीन वाला ड्यूरम (जिसे स्थानीय भाषा में दुरुम कहते हैं) और नरम रोटी की वैरायटी वाले गेहूं के विदेश भेजने पर पाबंदी लगा दी गई. अब सिर्फ दो कैटेगरी की गेहूं का निर्यात होगा, एक वो जिसकी इजाजत केंद्र सरकार देगी वो भी इस आधार पर कि उस देश में फूड सिक्योरिटी यानि अनाज की किल्लत हो.दूसरी कैटेगरी है ‘देश या सरकार का भारत से अनुरोध’ जिसमें कान्ट्रैक्ट पहले ही हो गया हो और बैन नोटिफिकेशन से पहेल ही लेटर ऑफ क्रेडिट जारी हो गया हो .
यह कदम ऐसे समय में लिया गया है, जब भारत में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स अप्रैल में आठ साल में सबसे ज्यादा 7.79 प्रतिशत पर पहुंच रही है और खुदरा खाद्य महंगाई बढ़कर 8.38 प्रतिशत हो गई है. मैंने पहले बताया कि कैसे महंगाई गरीबों के लिए एक ‘अदृश्य टैक्स’ की तरह हो गया है. खासकर एक ऐसे समय में जब ये लोग सबसे बड़ी आर्थिक परेशानी में फंसे हुए हैं.
महंगाई काबू करने के अलावा कम गेहूं के पैदावार ने मोदी सरकार को चिंतित कर दिया है. आधिकारिक तौर पर सरकार ने बताया कि गेहूं एक्सपोर्ट पर पाबंदी का फैसला इसलिए लिया गया क्योंकि गेहूं की खरीद 15 साल में सबसे निचले स्तर पर चली गई है. सिर्फ 18 मिलियन टन गेहूं खरीदी गई जबकि पिछले साल 2021-22 में इसी समय में 43.3 मिलियन टन गेहूं खरीद हुई थी. जहां गेहूं की खरीद तकनीकी तौर पर अप्रैल से मार्च तक होती है लेकिन बल्क में सरकार जो MSP पर गेहूं लेती है वो अप्रैल से मिड मई तक जाता है.
रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते बैलेंस ऑफ पेमेंट संकट और ज्यादा लागत बढ़ने से पिछले कुछ महीनों में कई देशों ने गेंहू सप्लाई के लिए भारत का रुख किया. 31 मार्च 2022 को खत्म हुए वित्तीय साल में भारत से 7.22 मीट्रिक टन गेहूं का एक्सपोर्ट करीब 2.05 बिलियन डॉलर में हुआ जो कि भारत से सर्वाधिक गेहूं एक्सपोर्ट का रिकॉर्ड है. जो गेहूं बेच रहे हैं उन्हें एक्सपोर्ट के लिए ज्यादा पैसे मिलने से फायदा हो रहा था और गेहूं पैदावार पर उनकी कमाई बढ़ी थी.
भारतीय हालात में महंगाई को अक्सर एक्सपोर्ट की ज्यादा कीमत से जोड़ा जाता रहा है..लेकिन कंपीटिशन देखते हुए और भारत में गेहूं के प्रचुर पैदावार से बांग्लादेश जैसे देश भी भारत से काफी मात्रा में गेहूं खरीदकर खुश थे. (नीचे के आंकड़ों में देखिए..भारतीय एक्सपोर्ट महंगा होने और डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने के बाद भी कैसे तेजी से भारतीय एक्सपोर्ट बढ़ा है)
अशोक गुलाटी जिन्होंने जोरशोर से मोदी सरकार के किसान कानून का समर्थन किया था, अब वो गेहूं एक्सपोर्ट बैन के फैसले को ‘किसान विरोधी’ बता रहे हैं. वो कहते हैं :
दिलचस्प बात यह है कि गेहूं एक्सपोर्ट पर जो मौजूदा बैन लगा है वो भारत की व्यापार नीतियों में जमी कंज्यूमर पूर्वाग्रह को दिखाता है. यही कंज्यूमर पूर्वाग्रह अप्रत्यक्ष रूप से किसान विरोधी बन जाता है. जब किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से 10 फीसदी अधिक भाव अपने गेहूं के लिए मिल रहा है कि तो सरकार उन्हें बाजार की बेहतर स्थिति का फायदा क्यों नहीं लेने दे रही है ?
क्या सरकार किसानों की आय नहीं बढ़ाना चाहती? और वह भी तब, जब सितंबर के अंत तक 80 करोड़ से अधिक लोगों को एनएफएसए और पीएमजीकेएवाई के तहत लगभग मुफ्त अनाज (चावल और गेहूं) दिया गया है. क्या सरकार किसानों की कीमत पर शहरी मध्यम वर्ग को बचाने की कोशिश कर रही है? यह शहरी-कंज्यूमर पूर्वाग्रह है जिसने हमारे किसानों की हालत खराब कर रखा है.
गुलाटी का विचार, निश्चित रूप से, मजबूत दलीलों पर आधारित है और उनके अपने नीतिगत दृष्टिकोण के मुताबिक हैं, (जिन्होंने उनके पिछले काम को पढ़ा है, वो ये जरूर समझ रहे होंगे). ऐसे ख्यालात किसानों को लेकर मोदी सरकार के पांखंड और नीतिगत नजरिए को उजागर करता है. अब बिना किसी संदेह के इस बात के साफ सबूत हैं कि किसानों की ‘आर्थिक आजादी’ दिलाने का सरकारी इरादा किसानों को बड़ा बाजार या बेहतर दाम तक पहुंच बढ़ाने की नीति पर नहीं बनी है.
कन्वेंशनल इकनॉमिक पब्लिक पॉलिसी मेकिंग में हमेशा कॉन्सेक्वेंशन सेंशिटिव रुख यानि पॉलिसी के असर पर फोकस रहता है ताकि मेथड के आउटकम को लेकर पहले से ही तैयारी रही। कोई भी अच्छी पब्लिक पॉलिसी इस मेथड से तैयार होती है.
इसके उलट एक नीति होती है जो नतीजों की फिक्र नहीं करती. मोदी सरकार का मौजूदा कदम उसी के मुताबिक है. इस तरह की पॉलिसी मेकिंग में ज्यादा ध्यान इकनॉमिक इफीशियंसी पर होती है और इसके लिए आर्थिक और सामाजिक चीजों की ज्यादा परवाह नहीं की जाती. इससे अक्सर ऐसी नीतियां अपने मकसद हासिल नहीं कर पाती. नोटबंदी और GST को जिस तरह से लागू किया गया ये उसी तरह की नीतियों का नजीर है. कोशिश ये थी कि जल्दी से जल्दी इसके आर्थिक फायदे उठाए जाएं.
दरअसल अभी इस सरकार में कोई फीडबैक का सिस्टम नहीं है जहां सरकारी पॉलिसी की नीतिगत गड़बड़ियों का फीडबैक लिया जा सके. साथ ही किसी चीज को करने में या पॉलिसी को लागू करने में हुई गलतियों और इससे इकनॉमी को होने वाले नुकसान की समझ बनाने का भी सिस्टम नहीं है.
सबसे खराब बात तो ये है कि सरकार ने अपने पक्ष में मीडिया नैरेटिव बना रखा है जहां उसकी गलतियों का भी बचाव होता है. ऑप्शन या फिर गलतियों को दूर करने का विकल्प बनाए रखने के विजन की चर्चा तो कभी होती ही नहीं.
विडंबना ये है कि विदेश नीति में भारत विश्व गुरू और ग्लोबल चेंजमेकर के तौर पर उभरना चाहता है. जब कोविड की लहर थी तो अपने नागरिकों को पूरी तरह से वैक्सीन दिए बिना ही सरकार ने विदेशों में वैक्सीन भेजने का बड़ा फैसला किया. जिन देशों में वैक्सीन नहीं थी वहां वैक्सीन सप्लाई करके भारत के लिए गुडविल बनाने की नीति पर सरकार चली और इसका जश्न मनाया. बाद में सरकार को अपनी गलती का अहसास तब हुआ जब डेल्टा वैरिएंट ने देश में तबाही मचा दी, बिना वैक्सीन लिए लाखों नागरिक असमय ही मर गए.
गेहूं एक्सपोर्ट को बढ़ाने के लिए 9 देशों में अपने कारोबारी प्रतिनिधिमंडल को भेजने और फिर अचानक से गेहूं एक्सपोर्ट बैन करने के सरकार का फैसला भी व्यवहारिक तौर पर पहले की तरह ही लिए फैसले जैसा है. निश्चित तौर पर इससे लाखों लोगों की जान तो नहीं जाएगी पर ज्यादा एक्सपोर्ट से किसानों की कमाई और पड़ोसी देशों और दुनिया में भारत की भरोसेमंद एक्सपोर्टर की छवि को धक्का लगेगा.
अब आगे का रास्ता ये है कि मोदी सरकार नीति बनाने के लिए नतीजों के असर वाले मेथड पर फोकस करे. नीतियों को लागू करने में शामिल महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं और संभावित परिणामों पर विचार करे.
सरकार के लिए यह समझना बहुत अहम है कि भारत में नीतियों के बनाने और लागू करने का आर्थिक फायदा होना चाहिए ताकि एजेंसी यानि कार्यकारी संस्था और लोग (नागरिक) आपसी सहयोग से काम कर सकें और सब इसका फायदा एक दूसरे से साझा कर पाएं।
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