संसद का विशेष सत्र चल रहा है और महिला आरक्षण बिल (Women Reservation Bill) को लेकर खास चर्चा है. विपक्ष लगातार इस बिल को पास कराने की मांग कर रहा था. बताया जा रहा है कि सरकार इसी सत्र में ये बिल ला भी सकती है. इसके लिए 18 सिंतबर को हुए केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी भी दे दी है.
ऐसे में आइए जानते हैं कि महिला आरक्षण बिल क्या है? इसकी यात्रा कैसी रही? भारत की राजनीति में महिला आरक्षण की अभी क्या स्थिती है? संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कितना है और क्यों इस बिल को लाने की जरूरत पड़ रही है? इन सब पहलुओं पर इस स्टोरी में चर्चा करेंगे.
महिला आरक्षण बिल: 27 साल, 8 बार पेश... कैसी रही यात्रा? संसद में महिलाओं की क्या स्थिति?
1. क्या है महिला आरक्षण बिल?
साधारण भाषा में कहें तो महिला आरक्षण विधेयक में लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत या एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है.
विधेयक में 33 प्रतिशत कोटा के भीतर ही SC, ST और एंग्लो-इंडियन के लिए उप-आरक्षण का भी प्रस्ताव है. विधेयक में प्रस्तावित है कि हर आम चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को बदला जाना चाहिए. यानी इस बार अगर किसी 10 सीट को आरक्षित किया गया तो अगली बार किसी और 10 सीट को आरक्षित किया जाए. पहले वाली सीटों पर दोबारा आरक्षण लागू न हो.
Expand2. महिला आरक्षण बिल की यात्रा कैसी रही?
भारत में महिला आरक्षण बिल की यात्रा काफी लंबी रही है. इतनी लंबी की इसमें 27 साल लग गए और 8 बार पेश करना पड़ा, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका.
यह बिल पहली बार देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार में 12 सितंबर, 1996 को लाया गया था. ये 81वें संशोधन विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश हुआ था. हालांकि, विधेयक सदन से पारित नहीं हो सका और लोकसभा भंग होने के साथ विधेयक भी लटक गया.
इस कोशिश के करीब दो साल बाद, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने 1998 में 12वीं लोकसभा में विधेयक को फिर पेश किया. वाजपेयी ने 1998 में अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का जिक्र किया था.
हालांकि, इस बार भी बिल को पास होने के लिए जितने समर्थन की जरूरत थी उतना नहीं मिला और यह फिर से लटक गया. बाद में इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान ही फिर से पेश किया गया, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA-1 सरकार के दौरान महिला आरक्षण विधेयक की चर्चा ने फिर जोड़ पकड़ा. 6 मई, 2008 को ये विधेयक राज्यसभा में दोबारा पेश किया गया और इसके 3 दिन बाद, 9 मई को स्थायी समिति को भेज दिया गया.
स्थायी समिति ने डेढ़ साल से भी ज्यादा समय लगाने के बाद 17 दिसंबर 2009 को अपनी रिपोर्ट पेश की. इसे फरवरी 2010 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिल गई और महिला आरक्षण विधेयक 9 मार्च, 2010 को 186-1 वोटों के साथ राज्यसभा में पास हो गया.
हालांकि, इसे सरकार ने लोकसभा में दोबारा कभी विचार के लिए नहीं रखा और 2014 में लोकसभा के विघटन के साथ ही ये फिर से पास नहीं हो पाया. यानी ये विधेयक संसद में अब तक कुल 8 बार अलग-अलग समय पर पेश हो चुका है, लेकिन कानून नहीं बन पाया.
Expand3. क्या भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण है?
इस सवाल का जवाब 'हां' है. भारत में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. यह संविधान के अनुच्छेद 243D के माध्यम से दिया गया है.
1992 में, 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए 33.3 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान अनिवार्य किया गया था.
इस ऐतिहासिक संशोधन के बाद 14 लाख से ज्यादा महिलाएं नेतृत्व करने की भूमिका में आईं और स्थानीय शासन का हिस्सा बनीं. ये 40% के लगभग है. आज, कम से कम 21 राज्यों ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया है.
ये राज्य हैं...
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल.
Expand4. भारतीय संसद में महिलाओं की अभी क्या स्थिती है?
17वीं लोकसभा में अब तक (उपचुनाव के आंकड़े जोड़कर) सबसे अधिक 82 महिला सांसद हैं. यह कुल लोकसभा सदस्य संख्या का लगभग 15.21 प्रतिशत है. 2022 में सरकारी आंकड़ों के अनुसार, राज्यसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 14 प्रतिशत है.
2014 में, यानी 16वीं लोकसभा में, 68 महिला सांसद थीं, जो सदन की कुल ताकत का 11.87 प्रतिशत थीं.
2019 के लोकसभा चुनाव के अनुसार, 47.27 करोड़ पुरुष और 43.78 करोड़ महिला मतदाता हैं. 2019 के चुनावों में, महिला मतदाताओं की भागीदारी 67.18 प्रतिशत थी, जो पुरुषों की भागीदारी (67.01 प्रतिशत) से अधिक थी.
Expand5. महिला आरक्षण बिल लाने की जरूरत क्यों है?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी 18 सितंबर को संसद में कई आंकड़े देकर बताया कि महिला आरक्षण बिल की जरूरत क्यों है? उन्होंने कहा कि आज लोकसभा में करीब 14 फीसदी और राज्यसभा में करीब 10 फीसदी महिला सांसद हैं. 1952 में पहली लोकसभा में करीब 5 प्रतिशत महिला सांसद थीं. यानी 70 सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया. उन्होंने आगे कहा कि अमेरिका और ब्रिटेन की संसद में 2-3 प्रतिशत महिला सांसद थीं, आज 28 और 33 प्रतिशत हैं.
पीएम मोदी ने भी कहा कि आजादी से लेकर अब तक संसद के दोनों सदनों को मिलाकर लगभग 7500 सांसदों ने योगदान दिया, जिसमें महिला सांसद करीब 600 के आस-पास रहीं.
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने 2018 में भी अपनी पार्टी की तरफ से सरकार को महिला आरक्षण बिल पर समर्थन देने की बात कही थी.
उन्होंने पीएम मोदी को चिट्ठी लिखी थी और ट्वीट कर कहा था कि...
"हमारे प्रधान मंत्री कहते हैं कि वह महिला सशक्तिकरण के लिए योद्धा हैं? उनके लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठने, अपनी बात कहने और महिला आरक्षण विधेयक को संसद से पारित कराने का समय आ गया है. कांग्रेस उन्हें बिना शर्त समर्थन की पेशकश करती है."
ऐसे में अब केंद्र की बीजेपी सरकार 13 साल बाद फिर से महिला आरक्षण पर बिल लेकर आ रही है, जिसके लिए केंद्रीय कैबिनेट में मंजूरी भी दे दी है. ऐसे ये देखना होगा कि ये बिल संसद में कब पेश होगा?
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क्या है महिला आरक्षण बिल?
साधारण भाषा में कहें तो महिला आरक्षण विधेयक में लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत या एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है.
विधेयक में 33 प्रतिशत कोटा के भीतर ही SC, ST और एंग्लो-इंडियन के लिए उप-आरक्षण का भी प्रस्ताव है. विधेयक में प्रस्तावित है कि हर आम चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को बदला जाना चाहिए. यानी इस बार अगर किसी 10 सीट को आरक्षित किया गया तो अगली बार किसी और 10 सीट को आरक्षित किया जाए. पहले वाली सीटों पर दोबारा आरक्षण लागू न हो.
महिला आरक्षण बिल की यात्रा कैसी रही?
भारत में महिला आरक्षण बिल की यात्रा काफी लंबी रही है. इतनी लंबी की इसमें 27 साल लग गए और 8 बार पेश करना पड़ा, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका.
यह बिल पहली बार देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार में 12 सितंबर, 1996 को लाया गया था. ये 81वें संशोधन विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश हुआ था. हालांकि, विधेयक सदन से पारित नहीं हो सका और लोकसभा भंग होने के साथ विधेयक भी लटक गया.
इस कोशिश के करीब दो साल बाद, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने 1998 में 12वीं लोकसभा में विधेयक को फिर पेश किया. वाजपेयी ने 1998 में अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का जिक्र किया था.
हालांकि, इस बार भी बिल को पास होने के लिए जितने समर्थन की जरूरत थी उतना नहीं मिला और यह फिर से लटक गया. बाद में इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान ही फिर से पेश किया गया, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA-1 सरकार के दौरान महिला आरक्षण विधेयक की चर्चा ने फिर जोड़ पकड़ा. 6 मई, 2008 को ये विधेयक राज्यसभा में दोबारा पेश किया गया और इसके 3 दिन बाद, 9 मई को स्थायी समिति को भेज दिया गया.
स्थायी समिति ने डेढ़ साल से भी ज्यादा समय लगाने के बाद 17 दिसंबर 2009 को अपनी रिपोर्ट पेश की. इसे फरवरी 2010 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिल गई और महिला आरक्षण विधेयक 9 मार्च, 2010 को 186-1 वोटों के साथ राज्यसभा में पास हो गया.
हालांकि, इसे सरकार ने लोकसभा में दोबारा कभी विचार के लिए नहीं रखा और 2014 में लोकसभा के विघटन के साथ ही ये फिर से पास नहीं हो पाया. यानी ये विधेयक संसद में अब तक कुल 8 बार अलग-अलग समय पर पेश हो चुका है, लेकिन कानून नहीं बन पाया.
क्या भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण है?
इस सवाल का जवाब 'हां' है. भारत में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. यह संविधान के अनुच्छेद 243D के माध्यम से दिया गया है.
1992 में, 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए 33.3 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान अनिवार्य किया गया था.
इस ऐतिहासिक संशोधन के बाद 14 लाख से ज्यादा महिलाएं नेतृत्व करने की भूमिका में आईं और स्थानीय शासन का हिस्सा बनीं. ये 40% के लगभग है. आज, कम से कम 21 राज्यों ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया है.
ये राज्य हैं...
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल.
भारतीय संसद में महिलाओं की अभी क्या स्थिती है?
17वीं लोकसभा में अब तक (उपचुनाव के आंकड़े जोड़कर) सबसे अधिक 82 महिला सांसद हैं. यह कुल लोकसभा सदस्य संख्या का लगभग 15.21 प्रतिशत है. 2022 में सरकारी आंकड़ों के अनुसार, राज्यसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 14 प्रतिशत है.
2014 में, यानी 16वीं लोकसभा में, 68 महिला सांसद थीं, जो सदन की कुल ताकत का 11.87 प्रतिशत थीं.
2019 के लोकसभा चुनाव के अनुसार, 47.27 करोड़ पुरुष और 43.78 करोड़ महिला मतदाता हैं. 2019 के चुनावों में, महिला मतदाताओं की भागीदारी 67.18 प्रतिशत थी, जो पुरुषों की भागीदारी (67.01 प्रतिशत) से अधिक थी.
महिला आरक्षण बिल लाने की जरूरत क्यों है?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी 18 सितंबर को संसद में कई आंकड़े देकर बताया कि महिला आरक्षण बिल की जरूरत क्यों है? उन्होंने कहा कि आज लोकसभा में करीब 14 फीसदी और राज्यसभा में करीब 10 फीसदी महिला सांसद हैं. 1952 में पहली लोकसभा में करीब 5 प्रतिशत महिला सांसद थीं. यानी 70 सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया. उन्होंने आगे कहा कि अमेरिका और ब्रिटेन की संसद में 2-3 प्रतिशत महिला सांसद थीं, आज 28 और 33 प्रतिशत हैं.
पीएम मोदी ने भी कहा कि आजादी से लेकर अब तक संसद के दोनों सदनों को मिलाकर लगभग 7500 सांसदों ने योगदान दिया, जिसमें महिला सांसद करीब 600 के आस-पास रहीं.
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने 2018 में भी अपनी पार्टी की तरफ से सरकार को महिला आरक्षण बिल पर समर्थन देने की बात कही थी.
उन्होंने पीएम मोदी को चिट्ठी लिखी थी और ट्वीट कर कहा था कि...
"हमारे प्रधान मंत्री कहते हैं कि वह महिला सशक्तिकरण के लिए योद्धा हैं? उनके लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठने, अपनी बात कहने और महिला आरक्षण विधेयक को संसद से पारित कराने का समय आ गया है. कांग्रेस उन्हें बिना शर्त समर्थन की पेशकश करती है."
ऐसे में अब केंद्र की बीजेपी सरकार 13 साल बाद फिर से महिला आरक्षण पर बिल लेकर आ रही है, जिसके लिए केंद्रीय कैबिनेट में मंजूरी भी दे दी है. ऐसे ये देखना होगा कि ये बिल संसद में कब पेश होगा?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)