हरियाणा में हार. जम्मू-कश्मीर में गठबंधन की सरकार. कांग्रेस के लिए चुनाव का कुल जमा हासिल क्या यही है. शायद नहीं. क्योंकि एक जगह हार और दूसरी जगह सरकार बनाने के बीच कांग्रेस की प्लानिंग और लीडरशिप की जो परते उधड़ी हैं, उन्हें रफू किए बगैर आगे के चुनाव जीतना मुश्किल है. बीजेपी के लिए भी कुछ जगहों से अच्छे संकेत नहीं मिले हैं. इसलिए 'बंपर जीत' वाले नैरेटिव से निकल बीजेपी को उन पर गंभीरता से सोचना होगा.
पहले कांग्रेस की बात कर लेते हैं.
पहली दिक्कत स्टेट लीडरशिप की है. राजस्थान और मध्य प्रदेश की तरह हरियाणा में भी कांग्रेस की जीत स्टेट पॉलिटिक्स की नंबर वन और टू की लड़ाई में फिसल गई. हरियाणा में 21 फीसदी दलित वोटर हैं. कुमारी शैलजा हरियाणा में कांग्रेस की सबसे बड़ा दलित चेहरा हैं. लेकिन वह चुनाव प्रचार से लगभग 13 दिनों तक गायब रहीं. हुड्डा परिवार के प्रति नाराजगी जाहिर करती रहीं. दलित वोटर के बीच मैसेज गया कि उनकी नेता का कांग्रेस में अपमान हो रहा है. बीजेपी ने भी इसे हवा दी. पीएम मोदी हरियाणा में दलित-जाट हिंसा के पुराने जख्मों को कुरेदते रहे. गोहाना-मिर्चपुर कांड की याद दिलाते रहे. लेकिन कांग्रेस ने शैलजा कुमारी के जरिए दलित वोटर को पार्टी के साथ बनाए रखने की ईमानदार कोशिश भी नहीं की. नतीजा क्या हुआ. जो दलित वोटर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़ा, वह 3 महीने में ही छिटक गया.
कांग्रेस में संगठन लेवल पर भी रफू की जरूरत है. हरियाणा चुनाव से 2 महीने पहले पार्टियों ने संगठन का विस्तार किया. लेकिन कांग्रेस 10 सालों से हरियाणा में न तो नया संगठन बना पाई और न ही इसे लेकर गंभीर दिखी. उसे लगा कि संगठन बनाने से कांग्रेस के सभी गुट सक्रिय हो जाएंगे. लेकिन गुटबाजी तो चुनाव में साफ-साफ दिखी.
ऐसे में अगर संगठन बनाने पर फोकस किया होता तो ये नौबत नहीं आती. लोकसभा की 99 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस मैसेजिंग में तो आगे बढ़ी है लेकिन पार्टी के माइक्रोमैनेजमेंट को सही किए बिना आगे के चुनावों में जाने से फिर से मुंह की खानी पड़ेगी.
तीसरी दिक्कत पारम्परिक वोटों की है. हर बार की तरह कांग्रेस ने जाट वोटर पर ही फोकस किया. पूरा चुनाव हुड्डा के इर्द-गिर्द लड़ा. 'बंपर जीत' की हवा बनी. जनता में मैसेज गया कि अबकी बार जाटों की सरकार, जिससे गैर जाट डिफोकस हो गए. बीजेपी ने इसी का फायदा उठाया. हरियाणा की गैर जाट मानी जाने वाली '35 बिरादरी' को एकजुट किया.
ये वही फार्मूला है जिससे बीजेपी को लोकसभा चुनाव में झटका लगा था. 'अबकी बार 400 पार' के नारे से बीजेपी की बंपर जीत की हवा बनी. इंडिया अलायंस ने बंपर जीत से संविधान बदलने का डर दिखाकर दलित-ओबीसी को एकजुट कर लोकसभा चुनाव की तस्वीर बदल दी. साल 2017 में यूपी में भी ऐसा हुआ था. 'यादवों की सरकार' का टैग लगाकर बीजेपी ने अखिलेश को सत्ता से बाहर कर दिया था. हरियाणा में कांग्रेस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. पारम्परिक जाट वोट की पॉलिटिक्स बैकफायर कर गई. कांग्रेस को यूपी में लोकसभा चुनाव में मिली जीत से सबक लेना चाहिए था. उसे पारम्परिक वोटों के दम पर नहीं, बल्कि सपा गठबंधन के जरिए यादव-मुस्लिम और दलित का भी साथ मिला था.
रफू की चौथी जरूरत टिकट बंटवारे की पूरी प्रोसेस में है. हरियाणा में बीजेपी और कांग्रेस को लगभग बराबर 39% वोट मिले. लेकिन बीजेपी को 48 और कांग्रेस को 37 सीटें मिली हैं. 11 सीटों का फासला. इसकी बड़ी वजह सही जगह पर सही उम्मीदवार न उतारना. बागियों ने भी बहुत नुकसान किया. कांग्रेस से टिकट न मिलने से गुस्साए नेताओं ने बगावत का रास्ता अपना लिया. अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों के खिलाफ निर्दलीय उतर गए. तिगांव, अंबाला कैंट और बहादुरगढ़ विधानसभा सीटों पर बागी निर्दलीय उम्मीदवारों की वजह से कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही. पानीपत ग्रामीण जैसे ऐसी और भी सीटें हैं.
बीजेपी ने हरियाणा में 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार बदल दिए. इनमें 16 की जीत हुई. लेकिन कांग्रेस ने अपने किसी विधायक का टिकट नहीं काटा. सवाल है क्यों. कांग्रेस ने एक साल पहले राजस्थान विधानसभा चुनाव से सबक क्यों नहीं लिया. यहां भी बीजेपी से 2 फीसदी वोट कम था. लेकिन 45 सीटों का फासला था. यहां भी बागी कांग्रेस पर भारी पड़े थे.
अब सवाल उठेगा कि अरे इतना गलत कैसे हो गई कांग्रेस. जम्मू-कश्मीर में तो सरकार बना रही है. बिल्कुल नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बना रही है. लेकिन ये कांग्रेस से ज्यादा नेशनल कांफ्रेंस की जीत है. कांग्रेस 10 साल पहले 2014 के चुनाव में 18 फीसदी वोटों के साथ जम्मू-कश्मीर में 12 सीट जीती थी. लेकिन अबकी बार 6% वोट घट गए. 12% वोटों के साथ 6 सीट पर सिमट गई. ये हाल तब है जब राहुल गांधी ने कश्मीर में भारत जोड़ो यात्रा पार्ट 1 का अंत किया था. लोकसभा चुनाव में इसी जम्मू-कश्मीर से करीब 20 फीसदी वोट मिले थे. फिर 3 महीने में क्या बदल गया. कांग्रेस का एग्रेसन कम हुआ या जीत का ओवर कॉन्फिडेंस है.
अब बीजेपी की भी बात कर लेते हैं. जम्मू-कश्मीर में 10 साल के अंदर कई प्रयोग हुए. धारा 370 हटाई गई, परिसीमन कर हिंदू बाहुल्य जम्मू में 6 सीट बढ़ाई गई. पहली बार 9 एसटी सीट रिजर्व सीट थी. इन सबके बावजूद जम्मू में 4 सीटों का फायदा हुआ. जबकि जम्मू में कुल सीट 37 से बढ़कर 43 हो गई थी. यानी हिंदू बहुल क्षेत्र में स्ट्राइक रेट में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. जम्मू की नौशेरा सीट से जम्मू-कश्मीर बीजेपी अध्यक्ष और हिंदू ब्रांड चेहरा रविंद्र रैना भी चुनाव हार गए. इसकी वजह हिंदू वोटों का बंटना बताई जा रही है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के सुरिंदर कुमार करीब 8 हजार वोटों से जीते.
वहीं कश्मीर में 2014 की तरह पार्टी का फिर से खाता नहीं खुला. अगर बीजेपी ने पांच सालों में घाटी में वादों के मुताबिक विकास किया होता, वादे के मुताबिक पहले ही पूर्ण राज्य का दर्जा दिया होता तो शायद कश्मीर से भी कुछ अच्छी खबर मिल सकती थी.
बीजेपी को सोचना होगा कि किसी पार्टी से गठजोड़ किए बिना, कश्मीर में एक भी सीट जीते बिना जम्मू के बल पर सरकार बनाने का सपना कभी भी पूरा हो सकता है. अभी की स्थिति देखें तो नहीं. ऐसे में जम्मू की मुस्लिम-बहुल सीटों को जीतते और उससे भी ज्यादा जरूरी कश्मीर में जनाधार मजबूत करने पर गंभीरता से सोचना होगा.
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