अमरनाथ (Amarnath) में शुक्रवार की शाम को बादल फटने से बड़ा हादसा हो गया, जिसमें 16 लोगों की मौत हो गई, वहीं 50 से ज्यादा घायल हो गए, जबकि इतने ही लोग फिलहाल लापता हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह कोई अप्रत्याशित घटना थी, अमरनाथ की दुर्गम यात्रा में मौसम की मार व अव्यवस्थाओं के चलते ऐसे हादसों के होने के बाद बड़े जानमाल का अंदेशा बना रहता है. लेकिन बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और जरूरी सेवाओं को सुनिश्चित कर इस तरह के हादसों की तीव्रता को कम किया जा सकता है.
बालटाल बेस कैंप से दुर्गम है यात्रा, 6 फीट चौड़ी सड़क का "फोर-लेन" की तरह इस्तेमाल
हादसे के एक दिन पहले, मतलब शुक्रवार को ही मैं अमरनाथ गुफा से वापस लौटा था. खराब मौसम के चलते मैं भी तीन दिन में यह यात्रा पूरी कर पाया था.
दरअसल अमरनाथ यात्रा के दो रास्ते हैं. पहला पहलगाम का पारंपरिक मार्ग, जहां से पैदल पिस्सु टॉप, शेषनाग होते हुए करीब तीन दिन में यात्रा होती है. घोड़ों से यह यात्रा थोड़े जल्दी भी होती है. दूसरा रास्ता बालटाल बेस कैंप से है, जो बरारी टॉप, संगम होते हुए है, यह सीधी खड़ी चढ़ाई है. लेकिन यह छोटा, पर बेहद जोखिम भरा रास्ता है.
कई जगह यहां एकदम खड़ी चढ़ाई है, जहां कई बार रास्ता 5-6 फीट चौड़ा ही बचता है. यहीं बगल में सिंध (सिंधु नहीं) नदी की गहरी खाई. इतने संकरे रास्ते पर आने-जाने वाले घोड़ों की दो लाइन, पैदल यात्रियों की दो लाइन और साथ में पालकी वाले चलते हैं. अक्सर यह लोग तेजी से एक दूसरे को धक्का देते हुए निकलते हैं.
जगह-जगह सुरक्षाबल घोड़े वालों व पैदल यात्रियों को रोककर दो-दो लाइन आगे बढ़वाने को मजबूर होते हैं. लेकिन कई बार इससे लंबा जाम लगता है, जो भूस्खलन की स्थिति में ज्यादा यात्रियों को फंसा देता है. इसके चलते यात्रा का समय भी काफी ज्यादा हो ज्यादा है. खतरे वाले रास्ते पर ज्यादा लंबा समय मतलब यात्रियों के जीवन पर ज्यादा खतरा.
मैंने खुद 9 बजे बेस कैंप से घोड़े से अमरनाथ के लिए अपनी यात्रा शुरु की थी. आमतौर पर चार बजे से शुरु होने वाली यह यात्रा उस दिन भी खराब मौसम के चलते पहले रद्द हुई थी, लेकिन बाद में धूप निकलने पर इसे दोबारा चालू करवा दिया गया था. उस दिन गुफा तक 16 किलोमीटर की दूरी को तय करने में मुझे करीब साढ़े 9 घंटे लगे.
तो इतनी बड़ी यात्रा इस मार्ग से होती है, जबकि कई जगह दूसरे पहाड़ी रास्तों की तरह ही इनका भी चौड़ीकरण किया जा सकता है, लेकिन अब भी ज्यादातर जगह रास्ता बेहद संकरा है.
दूसरी बात, घोड़ों व पैदल यात्रियों के लिए अलग-अलग रास्तों की बेहद जरूरत है. कई बार घोड़ों की टक्कर से यात्रियों के खाई में गिरने, या उन्हें चोट लगने की संभावना बनी रहती है. रास्ते को ब्लॉक करने के चलते दोनों के बीच आपसी टकराव तो बहुत आम हैं, जो कई बार हिंसक हो जाते हैं.
जहां हादसा हुआ, वहां किसी तरह का स्थायी/मजबूत ढांचा मौजूद नहीं
बादल फटने की घटना मुख्य गुफा के बाहर, निचले इलाके में हुई है, जहां बड़ी संख्या में अस्थायी तंबू लगे हुए हैं. इसलिए यहां अचानक बाढ़ आने से बड़ी संख्या में जनहानि हुई व लोग गायब हुए हैं.
जब यात्री बालटाल बेस कैंप से देरी से यात्रा करते हैं, तो कई बार मजबूरी में उन्हें अमरनाथ गुफा के बाहर तंबुओं में रुकना पड़ता है. यह तंबू मुख्यत: वहां दुकान लगाने वालों के होते हैं. मतलब यहां यात्रियों के लिए रुकने की व्यवस्था नहीं है, फिर भी हजारों लोग इन तंबुओं और भंडारों में ठहरते हैं. अगर यहां परमानेंट स्ट्रक्चर होता, तो अचानक बाढ़ की स्थिति में ज्यादा बेहतर सुरक्षा की जा सकती है.
अव्यवस्था का आलम यह है कि गुफा के पास बेहद ठंडी स्थितियों में बहुत लेट आने वाले यात्रियों को यह तंबू भी नहीं मिल पाते, जबकि बाकी तंबुओं में दुकानदार अच्छा-खासा पैसा लेकर 8-10 लोगों को तक शेयरिंग करवाते हैं.
रास्ते में जरूरी चीजों की बेहद कमी
वैष्णो देवी जैसे मंदिरों और यहां की कई दूसरी दरगाहों में काफी अच्छा प्रबंधन है. वैष्णो देवी में भी चढ़ाई है, पर वहां सबकुछ व्यवस्थित है. लेकिन इतनी बड़ी यात्रा होने के बावजूद अमरनाथ में बालटाल बेसकैंप से आगे की यात्रा में कुछ भी सुविधाएं नहीं हैं. ढंग के शौचालय तक नहीं मिलते. जबकि यहां भी वैष्णो देवी की तरह श्राइन बोर्ड है.नाम ना छापने की शर्त पर बालटाल में एक कैंप संचालक
बालटाल कैंप में फिलहाल दो हॉस्पिटल चल रहे हैं, जिनमें एक सीआरपीएफ कैंप का हॉस्पिटल है, जबकि दूसरा डीआरडीओ ने लगाया है. लेकिन यहां गुफा तक की यात्रा में अहम स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है. बीच में जरूरी चैकअप कैंप भी बमुश्किल ही मिलते हैं. यहां तक कि रास्ते में लंबे समय तक तो पानी की बोतल मिलना भी दूभर हो जाता है.
ऐसे में किसी के गंभीर तौर पर बीमार होने की स्थिति में एयरलिफ्ट ही एकमात्र ऑप्शन बचता है, क्योंकि ट्रांसपोर्ट के दूसरे साधन बेहद धीमे होते हैं. ध्यान रहे एक वक्त में बालटाल कैंप और यात्रा में करीब 20 से 25 हजार यात्री होते हैं. जबकि पहलगाम में चंदनवाड़ी कैंप में यह संख्या और भी ज्यादा है.
तो कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि इतनी बड़ी आबादी की यात्रा प्रकृति के मुश्किल हालातों के चलते वैसे ही कठिन और जोखिम भरी होती है, लेकिन इसे इंसानी बदइंतजाम और जरूरी चीजों की तैयारियों में कमी और भी ज्यादा बदतर बना रही है.
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