महामारी में मौत के आंकड़ों का सच
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि महामारी (Covid-19) के कारण भारत में मौत का आंकड़ा 5 लाख 22 हजार बताया गया है लेकिन लगातार होते रहे अध्ययन इन आंकड़ों को खारिज करते हैं. सबसे पहले गुजरात के एक अखबार ने इसे साबित किया. महामारी से पूर्व वर्ष की तुलना में महामारी वाले साल में ज्यादा मौतें हुईं और यह अंतर सरकारी अनुमानों से बहुत ज्यादा रहा.
साइंस पत्रिका 2022 के अंक में छपे एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया कि भारत में महामारी से हुई मौतों का आंकड़ा 30 लाख था. अप्रैल में लैंसेंट में छपे एक अध्ययन में यह अनुमान चालीस लाख का है. एक अध्ययन डबल्यू एच ओ ने प्रायोजित किया है और जो अभी छपा नहीं है उसके मुताबिक यह आंकड़ा चालीस लाख से ज्यादा बताया गया है. दुनिया में यह आंकड़ा 90 लाख है.
चिदंबरम लिखते हैं कि अगर भारत में महामारी से मौत का आंकड़ा 30 से चालीस लाख है तो भारत सरकार को कई आधार पर नाकाम रहने का आरोपी ठहराया जा सकता है. यात्राओं पर पाबंदी, पूर्ण बंदी, कामचलाऊ स्वास्थ्य सेवाएं शुरू करने, टीकों के लिए ऑर्डर देने आदि जो इसके फैसले थे उनमें निराशाजनक रूप से देरी की गयी.
खतरनाक बात यह है कि सरकार आंकड़े स्वीकार करने को तैयार नहीं है. लेखक बताते हैं कि भारत में 6 लाख 64 हजार 369 गांव हैं. अगर पांच लाख गांवों में महामारी फैली और हर गांव में दो लोग भी मारे गये तो मौत का आंकड़ा 10 लाख का होता है. कस्बों और शहरों में हुई मौतों को जोड़ लें तो यह आंकड़ा पंद्रह लाख पहुंच जाता है.
विश्व बैंक के दस्तावेज में कहा गया है कि भारत में गरीबी 2011 में 22.5 फीसदी थी जो 2019 में घटकर 10.2 फीसदी रह गयी. लेखक इस आंकड़े से सहमत हैं. लेकिन, सवाला उठाते हैं कि इसमें महामारी के आंकड़े नहीं हैं. यह अध्ययन 2019 में ही रोक दिया गया था. 2020 के बाद सारे संकेतक नीचे चले गये थे और अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने 2020 में 23 करोड़ लोगों के गरीबी में जाने का अनुमान लगाया था.
लेखक ने अमेरिका में भारतीय वित्तमंत्री के इस दावे को भी परखा है कि भारत ने कोविड की महामारी के दौरान कोई कोविड कर नहीं लगाया. चिदंबरम ने लिखा है कि सिर्फ दो वर्ष में ईंधन पर कर से ही 8 लाख 16 हजार 126 करोड़ रुपये भर लिए थे.
हिंसा की विचारधारा से सर्वनाश निश्चित
इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने रामचरितमानस में सुंदरकाण्ड के उस क्षण की विशिष्ट मार्मिकता की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराया है जिसमें हनुमान सीता से मिलते हैं. असमंजस और विरोधाभासी स्थिति खत्म होती है. सीता में उम्मीद जगती है. हनुमान के मीठे वचन से परिदृश्य बदल जाता है. अंगूठी का व्यापक संदेश पहुंच जाता है.
आगे भानु प्रताप मेहता लिखते हैं अब राम और हनुमान संगठित धार्मिक हिंसा की विचारधारात्मक तैयारी के लिए रूपक बन गये लगते हैं. रामनवमी और हनुमान जयंती के समय विभिन्न शहरों में सांप्रदायिक हिंसा फैली है. जो साधारण किस्सा चल रहा है उसके मुताबिक हिन्दू जुलूस निकाल रहे थे और उन पर पत्थरबाजी हुई. अल्पसंख्यक इसके जिम्मेदार हैं. हिन्दू अपने ही देश में असुरक्षित हैं और अपने ही देश में उनके लिए कोई जगह नहीं है. फिर कहा जाता है कि ‘हमें उनसे छुटकारा चाहिए’.
प्रताप भानु मेहता इस मान्य तर्क को खारिज करते हैं कि भारत में बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता का अस्तित्व नहीं है. अब यही युग सत्य है. ऐसा इसलिए कि उच्चतम स्तर का राजनीतिक नेतृत्व जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, वे या तो चुप हैं या हल्के से इशारा कर देते हैं, इसे अनदेखा कर दिया जाता है. अभिजात्य वर्ग लाज-शर्म खो चुका है. सिविल सोसायटी की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी यही बनती जा रही है.
मेहता लिखते हैं कि सांप्रदायिकता पर लिखना फिजूल का काम बन चुका है. यह राज्यसत्ता या नागरिक समूह को भी प्रभावित नहीं करता है. वे पूछते हैं कि मुसलमानों को क्या हम यह आश्वासन दे सकते हैं कि उनकी कम संख्या, वर्तमान राज्य सत्ता और उसकी विचारधारा जनित उन्माद का प्रयोग उनके सांस्कृतिक उन्मूल की परियोजना में नहीं किया जाएगा?
सेक्युलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है- इस विचार के सामने तमाम सेक्युलर धराशायी दिखते हैं. लेखक लिखते हैं बहुसंख्यकवाद के साथ राज्य सत्ता का गठजोड़ है और इसे स्वीकृति मिल रही है. खुद को पीड़ित की तरह पेश करना, दूसरों के अधिकारों को नहीं मानना, हिंसा को गौरवान्वित करना, बदला लेने के लिए छोटा बहाना खोजना और आमूलचूल तरीके से अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ साबित करना नयी प्रवृत्तियां हैं.
कीमत मांगने लगी है रूस-यूक्रेन में जंग
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने लिखा है कि युद्ध की कीमत चुकानी पड़ती है. तीन महीने हो चुके हैं और अब हर देश युद्ध की कीमत चुका रहे हैं. श्रीलंका विदेशी कर्ज की किश्तें चुकाने से मना कर चुका है तो पाकिस्तान में सरकार तक गिर गयी है. जब तक रूस को घुटनों के बल लाया जा सकेगा तब तक भारत समेत दुनिया भर के देशों में आर्थिक और राजनीतिक मुश्किलें बढ़ चुकी होंगी.
नाइनन लिखते हैं कि यूरोप को तमाम तरह के झटकों का सामना करना पड़ रहा है. रूस, जर्मनी का सबसे बड़ा ऊर्जा आपूर्तिकर्ता है. अगर रूसी तेल और गैस की आपूर्ति बंद होती है तो जर्मनी पर बहुत बुरा असर होगा. इंग्लैंड और खुद अमेरिका में भी पेट्रोल महंगा होने का असर दिखने लगा है. अगर रूस पर प्रतिबंध जारी रहा तो रूसी अर्थव्यवस्था इनसे कभी न उबर सके.
विश्व बैंक (World Bank) के हवाले से टीएन नाइनन लिखते हैं कि युद्ध की कीमत किसी देश पर उसकी जीडीपी की एक तिहाई जरूर होती है. यूक्रेन को 7 अरब डॉलर की मासिक आर्थिक कीमत चुकानी पड़ रही है. अमेरिका या यूरोप क्या यूक्रेन के लिए अपने बटुए खोलेंगे?
युद्ध के राजनीतिक प्रभाव की चर्चा करते हुए लेखक लिखते हैं कि फ्रांस में इमैनुएल मैक्रों को कड़ी टक्कर मिल रही है जबकि अमेरिका में नवंबर में होने वाले कांग्रेस चुनावों में डेमोक्रेट्स की हार का खतरा दिखने लगा है. दो साल बाद डोनाल्ड ट्रंप की वापसी का रास्ता बनने लगा है. नाइनन लिखते हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक कार्य योजना पर भी यह जंग भारी पड़ रही है.
महंगाई पर चूक गयी कांग्रेस
टीसीए राघवन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि राजनीतिक दल (Political Parties) अपने हित साधने का कोई मौका नहीं छोड़ती और अपनी छोटी सी उपलब्धि को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है. लेकिन, ऐसा लगता है कि सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस इसका अपवाद है. यहां तक कि कांग्रेस नो बॉल में फ्री हिट मारने का मौका भी गंवा देती है.
आसमान छूती महंगाई ऐसा ही मौका है जिसे कांग्रेस ने गंवा दिया है. लगातार तीसरे महीने खुदरा महंगाई आरबीआई के सहज स्तर से अधिक रही है. अगले तीन महीने में भी स्थिति यही रहने वाली है.
टीसीए राघवन लिखते हैं कि एक तरफ महंगाई पूरी रफ्तार से आगे बढ़ रही है तो दूसरी ओर लोगों की आय थम गयी है. कोविड-19 महामारी की वजह से लोगों की आय में वृद्धि लगभग शून्य हो गयी है. लेखक बताते हैं कि हाल में कांग्रेस ने संवाददाता सम्मेलन कर इस मुद्दे को लेकर आयी.
मगर, वह आम भाषा में लोगों को महंगाई का कारण और प्रभाव नहीं समझा सकी. एक साल में पेट्रोल-डीजल के दाम 40 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ गये हैं. इस पर फोकस करने के बजाए कांग्रेस अंतरराष्ट्रीय कीमतों से तुलना करने में जुटी है.
लेखक ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया है कि 2009 और 2014 के आम चुनावों से पहले महंगाई काफी ऊंचे स्तर पर थी मगर चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं बन पायी. 2022 में महंगाई ने लोगों की नाक में दम कर दिया है मगर हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं रहा. तो क्या कांग्रेस भी महज खानापूर्ति के लिए महंगाई का मुद्दा उठा रही है?
आज भी प्रासंगिक है लोकतंत्र पर राजाजी की राय
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में याद दिलाया है कि 1957 से पहले भारतीय राजनीति में कांग्रेस की वैसी ही स्वीकार्यता थी जैसी आज भारतीय जनता पार्टी की है. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक राजनीतिक दल के अत्यधिक प्रभुत्व के कारण लोकतंत्र के खतरों पर लेख लिखा था. वे स्वतंत्रता संग्रामी, गांधी-नेहरू के करीबी और केंद्र व राज्य में ऊंचे पद पर रहे थे.
राजगोपालाचारी ने यह लेख अगस्त 1957 में लिखा था. इसमें उन्होंने दो बातों का जिक्र किया था. संसदीय लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है जब सभी वर्ग के नागरिकों को साथ ले चलना सरकार का उद्देश्य हो और दूसरा दो दलीय व्यवस्था में दूसरा दल उस अवस्था में रहे कि जरूरत पड़ने पर देश की सत्ता संभाल सके.
राजाजी के हवाले से रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि आम तौर पर नेता पार्टी में बहुमत के आधार पर निर्णय लेते हैं. लेकिन, ऐसा तब नहीं होता है जब नेता को खुद महत्वपूर्ण शक्ति हो. ऐसी स्थिति में पार्टी बंद कमरे में भी नहीं बंटती. इन्हीं परिस्थिति में तानाशाही का जन्म होता है. राजाजी ने यह टिप्पणी तब कांग्रेस को ध्यान में रखकर की थी.
लेकिन, उनके विचार आज बीजेपी शासित भारत में भी प्रासंगिक हैं. कुछ महीने बाद राजाजी ने एक और लेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था- “आजाद सोच की चाहत”. इसमें उन्होंने कहा था कि कोई भी वाद तब तक लोकतंत्र में संतोषजनक तरीके से काम नहीं कर सकता जब तक कि वह जिम्मेदारी और खुद का आकलन न करे.
गुहा लिखते हैं आज नेहरू युग नहीं है और संचार के माध्यम विकसित हैं तब भी 1950 के दशक वाली स्थिति बनी हुई है. अपने मंत्रियों और सांसदों की ओर से प्रशंसा में प्रधानमंत्री के लिए रोज लेख छप रहे हैं. सावधानी से तैयार किए वीडियो संदेशों में प्रधानमंत्री को जीवन से बड़ा व्यक्तित्व बताया जाता है. भक्त ब्रिगेड का कट-पेस्ट ट्वीट आते रहते हैं. आज जो देश में स्थिति है उस बारे में राजाजी ने बहुत पहले ही आगाह कर दिया था. राजाजी ने नेहरू और उनके साथियों को ‘अच्छे लोग’ कहकर संबोधित किया था. आज मोदी और शाह निर्मम, अनैतिक और बहुसंख्यकवादी हैं. ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्य कहीं खो से गये हैं.
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