भारत में किसानों (Farmer) के आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है. कई बार ऐसे मौके आए हैं जब किसानों के आगे सरकारों को झुकना पड़ा है. किसानों ने आजात भारत ही नहीं बल्कि अंग्रेजों के शासन में भी अपनी मांगे मनवाई हैं, लेकिन स्वतंत्रता के बाद कभी किसान उस तरीके से वोट बैंक नहीं बन पाया, जैसे वोटर की तवक्को राजनीतिक पार्टियां करती हैं. हालांकि मोदी सरकार (Modi Government) ने अगर विवादित तीन नए कृषि कानून वापस लिये हैं तो निश्चित ही ये किसानों की एकजुटता और संघर्ष का नतीजा है.
कृषि प्रधान हमारे देश का इतिहास कहता है कि किसानों ने 19वीं सदी से लेकर अब तक कई बार सत्ता को कदम खींचने पर मजबूर किया है, तो चलिए ऐसे ही कुछ किसानों के संघर्षों को याद करते हैं.
मोदी सरकार ने वापस लिए कृषि कानून
सबसे ताजा उदाहरण 19 नवंबर को मोदी सरकार द्वारा वापस लिये गये तीन नए कृषि कानून हैं. किसान एक साल से दिल्ली के चारों ओर इन कानूनों के खिलाफ धरना दे रहे थे. शुरुआत में सरकार कह रही थी कि किसी भी हाल में कानून वापस नहीं होंगे, सुधार किये जा सकते हैं. लेकिन किसान अड़े रहे और आखिरकार एक साल बाद केंद्र की मोदी सरकार ने तीन नए कृषि कानून वापस लेने का ऐलान कर दिया.
बोट क्लब आंदोलन
1988 में राकेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में ये आंदोलन हुआ था. इसमें करीब 5 लाख किसानों ने दिल्ली के बोट क्लब पर डेरा डाल दिया था. रिपोर्ट्स की मानें तो किसानों की संख्या इतनी थी कि विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक सिर्फ किसान ही किसान नजर आ रहे थे. इस आंदोलन में करीब 14 राज्यों के किसान पहुंचे थे और उनहोंने अपने ट्रेक्टर, बैलगाड़ी सब बोट क्लब के सामने खड़े कर दिये. किसानों की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनका 35 सूत्रीय चार्टर स्वीकार किया.
बिजली घर घेराव आंदोलन (यूपी)
1987 में 1 अप्रैल को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले मुजफ्फरनर के कर्नूखेड़ी बिजली घर में आग लग गई. पहले से ही महंगी दरों और बिजली की किल्लत से जूझ रहे किसानों के लिए ये बड़ी मुश्किल थी. यहीं पर पहली बार महेंद्र सिंह टिकैत को बड़े किसान नेता के रूप में पहचान मिली. बाबा टिकैत के नाम से मशहूर हुए महेंद्र सिंह टिकैत ने यहां बिजली घर के घेराव की कॉल दे दी. इस आह्वान के बाद बड़ी संख्या में किसान बिजली घर के घेराव के लिए पहुंच गए, किसानों की संख्या लाखों में थी जिसकी उम्मीद खुद महेंद्र सिंह टिकैत ने भी नहीं की थी. आंदोलन का असर ये हुआ कि तत्कालीन सरकार को बिजली की दरें कम करनी पड़ीं.
इसके अलावा आजाद भारत में किसानों के और कई बड़े आंदोलन हुए, जिनमें सीधे सरकार भले ना झुकी हो लेकिन उन्होंने किसानों की स्थिती पर अप्रत्यक्ष रूप से बड़ा असर डाला.
1967 का नक्सलबाड़ी आंदोलन
ये देश में जमींदारी का दौर था. इसी दौरान बंगाल से एक चिंगारी उठी और किसानों ने मां की, कि बड़े काश्तकारों को खत्म किया जाये और बेनामी जमीनों का समूचित वितरण किया जाये. बंगाल में उस वक्त कम्यूनिस्ट सरकार थी, जिससे किसान आंदोलन का बल मिला. इससे जमींदार घबरा गए और बटाईदारों को बेदखल करना शुरू कर दिया.
इसी दौरान एक किसान को दीवानी अदालत से जमीन मिलने का आदेश मिला, लेकिन जमींदार ने उसे कब्जा देने से इनकार कर दिया. जवाब में किसानों ने पार्टी के स्थायी नेतृत्व की अगुवाई में किसान समितियां और हथियारबंद दस्ते बना कर जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर लिया. झूठे दस्तावेज जलाए दिए गए और कर्ज की किताबें भी नष्ट की जाने लगीं. बाद में ये नक्सलवादी आंदोलन बन गया.
आजादी से पहले भी किसानों के कई प्रमुख आंदोलन हुए जिन्हें इतिहास में सफल आंदोलनों के तौर पर दर्ज किया गया.
नील सत्याग्रह (1917)
19वीं सदी के शुरुआत में गोरे बागान मालिक किसानों से जिस व्यवस्था के तहत नील की खेती करवाते थे उसे तिनकठिया कहा जाता था. इसके मुताबिक हर किसान को अपनी जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना जरूरी था. 1916 में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान एक राजकुमार शुक्ल नाम के किसान ने गांधी जी से चंपारण आने का आग्रह किया, इसका परिणाम ये हुआ कि तत्कालीन अंग्रेजी सरकार को विवश होकर किसानों की स्थिति का समझने के लिए एक कमेटी की गठन करना पड़ा, जिसमें गांधी जी भी एक सदस्य थे. कमेटी की सलाह पर ही तिनकठिया पद्धति को खत्म कर दिया गया और किसानों से अवैध तरीके से वसूले गए धन का 25 प्रतिशत हिस्सा उन्हें वापस किया गया.
बारदोली सत्याग्रह (1928)
गुजरात के बारदोली में हुआ ये सत्याग्रह पूरे राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान सबसे सफल, संगठित और व्यापक आंदोलन माना जाता है. दरअसल बारदोली में एक जनजाति हुआ करती थी कापिलराज( काले लोग), जिसकी स्थिति बड़ी दयनीय थी. इन्हें उच्च जाति के लोग बंधवा मजदूर बनाकर रखते थे. इसके खिलाफ आंदोलन छिड़ा और इस आंदोलन में किसानों ने लगान ना देने के लिए भी अभियान चलाया, जिसका नेतृत्व वल्लभ भाई पटेल ने किया. इसी आंदोलन में उन्हें सरदार की उपाधि मिली.
उत्तर प्रदेश के किसानों का एका आंदोलन
ये बात 1919 की है जब ताजा-ताजा किसान सभा का गठन हुआ था. किसानों ने इस संगठन के झंडे तले बढ़े हुए लगान के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. इसे पंडित जवाहर लाल नेहरू के समर्थन से और बल मिला. इस आंदोलन में मुख्य रूप से हरदोई, बहराइच और सीतापुर के किसान शामिल थे.
1857 के बाद से किसान आंदोलनों की शुरुआत
1857 की क्रांति के बाद ही किसान आंदोलनों की नींव पड़ गई थी, क्योंकि अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा किसान ही प्रभावित हुए थे. क्रांति के असफल होने के बाद किसानों का शोषण और बढ़ने लगा था. 1874 में महाराष्ट्र के पूना और अहमद नगर में किसानों का एक आंदोलन शुरू हुआ, दरअसल इसी साल दिसंबर के महीने में एक कालूराम नाम के सूदखोर ने बाब साहिब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी का ऑर्डर हासिल कर लिया. जिसके खिलाफ किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया.
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